देश के लिए क्या कारगर रहेगा गुजरात मॉडल?

मोदी के गुजरात मॉडल को लेकर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य में उसकी हालत बुरी है. ऐसे में क्या देश के लिए कारगर रहेगा यह मॉडल? पढ़िए पूरी पड़ताल.

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जयंत श्रीराम

  • नई दिल्ली,
  • 09 अप्रैल 2014,
  • अपडेटेड 2:46 PM IST

दशकों से संरक्षण का आदी भारतीय वोटर क्या अब सशक्त होने में ज्यादा दिलचस्पी लेगा? क्या विकास को सौगातों से ज्यादा लोकप्रिय बनाया जा सकता है? क्या हक के मुकाबले उम्मीदें ज्यादा ताकतवर हो सकेंगी?  

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल ने जमीनी सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को एक तरफ रखकर  चुनाव की परिभाषा में इसी तरह के बदलाव लाने की पेशकश की है. यह बदलाव न तो परिभाषित किया जा सकता है और न ही इसे चुनौती दी जा सकती है. आलोचक मोदीनॉमिक्स को महज प्रचार बता रहे हैं. ऐसे में वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन जैसे दिखावटी आयोजन आम आदमी की जिंदगी में बदलाव लाने वाली असली चीजों में खराब प्रदर्शन पर पर्दा डाल देते हैं.

कांग्रेस और बाकी दलों ने नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल का पर्दाफाश करने को अपने चुनावी एजेंडे में सबसे ऊपर रखा है. लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि मतदाता के सामने बहस के लिए पहली बार जाति और संस्कृति का गणित अकेला मुद्दा नहीं है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी के (बीजेपी) प्रधानमंत्री पद के दावेदार की तरफ से पेश विकास का सिद्धांत भी है.

तो आइए देखें कि असल में ये गुजरात मॉडल क्या है? क्या यह कारगर है? और अगर यह कारगर है तो भी बाकी भारत के लिए यह काम का है या नहीं?

गुजरात में कदम रखते ही सबसे पहले नजर चौड़ी सड़कों, गांव में लहलहाते खेतों और किसी बड़े महानगरीय शहर को टक्कर देती अहमदाबाद के कुछ हिस्सों की शानो-शौकत पर पड़ती है. यह वह गुजरात है, जिसने गजब की तेजी से आर्थिक वृद्धि की है. 2004 और 2012 के बीच राज्य की वृद्धि दर 10.1 फीसदी रही, जबकि राष्ट्रीय औसत 7.6 फीसदी का था. लेकिन इन सजी-संवरी सड़कों और दमकते हाइवेज से कुछ दूर चलें, तो एकदम अलग तस्वीर उभरती है.

इसमें कोई शक नहीं कि बुनियादी ढांचे, निवेश और ई-गवर्नेंस के मामले में गुजरात मॉडल कामयाब रहा है, लेकिन उसकी अपनी सीमाएं हैं. यह सीमाएं आम आदमी को बेहतर इलाज पहुंचाने में नाकामी और शिक्षा में असफलता से उजागर होती हैं. आज भी नवजात बच्चों की मौत और औरतों की साक्षरता के मामले में गुजरात दूसरे राज्यों से पीछे है.

लेकिन सवाल यह भी है कि इसमें नाकामी या कामयाबी के लिए मोदी की नीतियां कितनी  जिम्मेदार हैं? गुजरात के विभिन्न इलाकों में दूर-दूर तक घूमने और सरकारी अफसरों तथा अर्थशास्त्रियों से बातचीत के बाद इंडिया टुडे  ने आज के दौर में गुजरात में प्रशासन के चार प्रमुख सिद्धांतों की पहचान की:

-खेती के तरीकों को बदलने पर जोर और उद्योग पर पैनी नजर.
-इलाज और पढ़ाई-लिखाई जैसे क्षेत्रों में निजी उद्यम को बढ़ावा.
-गांवों में भी शहरों जैसा बुनियादी ढांचा.
-सरकार का विकेंद्रित मॉडल जिसमें योजनाएं स्थानीय आबादी की जरूरत और मांग के हिसाब से बनाई जाएं.
इन सिद्धांतों के जरिए भारत के लिए मोदी की योजनाओं का खाका खींचा जा सकता है.


खेती में बदलाव
सड़क, बिजली और पानी

गुजरात की मोदी विकास गाथा मूल रूप से इस सीधे-सादे नीतिगत फैसले पर टिकी है कि हर किसी को सड़क, बिजली और पानी मिले. यहां की असरदार योजना ज्योतिग्राम योजना है. 2006 में शुरू की गई इस योजना से गुजरात के 18,000 गांवों को सिंचाई के लिए आठ घंटे बिजली और घर के लिए 24 घंटे बिजली मिलती है.

यह योजना अब तक 97 फीसदी गांवों में लागू हो चुकी है. सड़कें अच्छी होने से किसान मंडी तक आसानी से पहुंच सकते हैं. एक से अधिक फसलें उगाने और डेरी चलाने के लिए संसाधन पा सकते हैं. सिंचाई के नए तरीकों खासकर चेकडैम के निर्माण के बल पर गुजरात ने सनï 2000 के बाद से देश के सभी राज्यों में सबसे तेज यानी 9.6 फीसदी वृद्धि दर्ज की है.

गुजरात में घूमें तो बदलाव के कई निशान दिखाई देते हैं. वलिया तहसील में किसानों ने बताया कि पहले सिर्फ राज्य के उत्तरी हिस्से में उगने वाला और साल में तीन बार फूलने वाला अनार अब इस इलाके में पपीते, केले, गन्ने और चीकू की भरपूर फसल में जुड़ गया.

सूरत और भड़ूच के लिए सहायक बागबानी निदेशक दिनेश पडालिया के अनुसार हर तालुका में बागवानी अधिकारी की तैनाती से किसानों को फायदा हुआ है. इस व्यवस्था से राज्य सरकार डेरी फार्मिंग को बढ़ावा दे रही है. कपास जैसी नकदी फसल, ज्यादा कमाई देने वाले मवेशी, फल और सब्जियां तथा गेहूं की वजह से ज्यादा तरक्की हुई है, क्योंकि इनकी उपज और मूल्य तेजी से कई गुना हो गया है.

लेकिन क्या खेती का यह प्रदर्शन अन्य राज्यों में दोहराया जा सकता है? गुजरात में कई साल से चल रहा आगा खां ग्रामीण सहायता कार्यक्रम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अपूर्व ओझा के मुताबिक ज्योतिग्राम योजना की लागत 2,000 करोड़ रु. है. उनका कहना है, ''अगर इसमें महंगाई दर को मिला लें तो भी पूरे देश में इस योजना को अपनाने की लागत करीब 65,000 करोड़ रु. आएगी.” यह रकम बड़ी है, पर इंतजाम हो सकता है. 2014-15 में सिर्फ ईंधन की सब्सिडी के लिए कुल 65,000 करोड़ रु. रखे गए.

गुजरात में खेती में तरक्की का एक और पहलू भी है. एक तरफ उपज बढ़ी तो दूसरी तरफ किसानों की संख्या घटी. यानी कम किसान अब ज्यादा कमाई कर रहे हैं. ये अपने आप में अच्छा संकेत है. भारत में लोगों को खेती से हटा कर गांवों में पारंपरिक सर्विस सेक्टर या शहरों में उद्योग से जुड़े सर्विस सेक्टर में लगाने की जरूरत है. 2011 की जनगणना के अनुसार 10 वर्ष में गुजरात में किसानों की संख्या में 3.55 लाख की कमी आई है, लेकिन बेरोजगार खेतिहर मजदूरों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ी है.

जनगणना के आंकड़ों के अनुसार इसी दौर में गुजरात में औद्योगिक श्रमिकों की संख्या 22 लाख से अधिक बढ़ी है. इसका मतलब गांवों से बड़ी संख्या में लोग शहरों में जाकर काम करने लगे हैं. अगर पूरे देश में यही सब हुआ, तो खेती पैदावार बढ़ाने के साथ ही गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे. यानी एक ऐसा ढांचा खड़ा करना होगा जिसमें खेती मुनाफे का सौदा हो और खेती से बाहर हुए लोग बाकी काम-धंधों में बेहतर आजीविका पा सकें.

राज्य में नए किस्म का शहरीकरण
गांवों में आधुनिकता की बयार

2011 में अहमदाबाद में एक समारोह में मोदी ने माना कि शहरों की तरफ बड़ी संख्या में लोगों के पलायन की समस्या है. उन्होंने 50 गांवों के लिए पुन: शहरीकरण नाम की एक प्रायोगिक योजना घोषित की. मोदी के मुताबिक जिस तरह की नागरिक और बुनियादी सुविधाएं शहरों को मयस्सर हैं, वैसी ही सहूलियतें गांवों को मुहैया कराई जाती हैं. ऐसा करके वे एक तरह से गांव की आत्मा को जिंदा रखना चाहते हैं.

यह योजना 2011 में ही शुरू हुई है, इसलिए इसके जमीनी नतीजे, खासकर पूरे गुजरात के आदिवासी इलाकों में मुश्किल से नजर आते हैं. फिर भी इससे बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में सुधार की वचनबद्धता तो दिखती है. उत्तरी गुजरात में अंतसुबह से लेकर अहमदाबाद से सटे खोरज तक कई मामलों में बुनियादी सुविधाओं में सुधार हुआ है, फिर चाहे वह नए स्कूल हों, अस्पताल की इमारतें हों या कंकरीट की सड़कें ही क्यों न हों.

लेकिन यह गांवों का शहरीकरण देशभर में चल रहे इसी तरह के ग्रामीण विकास कार्यक्रमों से अलग नहीं है. इसलिए यह सवाल नहीं उठ सकता कि क्या इसे देशभर में अपनाया जा सकता है. यह भी कहा जाता है कि यह विचार सबसे पहले डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति रहते हुए दिया था. उन्होंने इसे पूरा (पीयूआरए) यानी गांव के इलाकों में शहरी सुविधाएं देना कहा था.

उद्योग
जमीन और प्रोत्साहन

गुजरात में कई तरह की बुनियादी सुविधाओं का एक बड़ा पहलू यह भी है कि सरकार ने उद्योगों के लिए ठोस उपाय अपनाए. राज्य की औद्योगिक वृद्धि दर 2005-09 के दौरान बढ़कर 12.65 फीसदी हो गई, जो 2001-04 के दौरान सिर्फ 3.95 प्रतिशत थी. इसका बहुत सारा श्रेय सरकार की इस नीति को जाता है कि बड़ी कंपनियों को बुनियादी सुविधाएं और जमीन की उपलब्धता से सहारा दिया गया.

2009 की औद्योगिक नीति में कम-से-कम 5,000 करोड़ रु. के निवेश वाली मूल बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं के लिए योग्यता आधारित सहायता पैकेज की व्यवस्था है. राज्य में निजी संचालन वाले बंदरगाहों से भी फायदा हो रहा है, जिन्हें 1995 में ही खोल दिया गया था. 1980 के दशक से गुजरात केऔद्योगिक ढांचे में जबरदस्त बदलाव हुआ है, क्योंकि रिलायंस और एस्सार ने जामनगर और वडीनार में अपने कारखाने खोले.

2008 में टाटा मोटर्स नैनो कार का कारखाना पश्चिम बंगाल में सिंगूर से गुजरात के आणंद ले आई. आम आदमी पार्टी (आप) के संस्थापक अरविंद केजरीवाल सहित विपक्षी नेताओं ने कारोबारी घरानों को जमीन बेचने के जो आरोप लगाए हैं, उनका खंडन कंपनियों और सरकार दोनों ने किया है. एक आरोप यह भी है कि सूरत जैसे कुछ शहरों में ही लघु उद्योगों को बहुत मामूली प्रोत्साहन दिया गया है.

सूरत टेक्स्टाइल ट्रेडर्स एसोसिएशन फेडरेशन के अध्यक्ष संजय जगनानी का कहना है कि सरकार ने लघु और मझोले कारखानों के लिए शायद ही कोई ठोस मदद की है. उनका कहना था कि इस समय कारोबार बढऩे की जो रफ्तार 10 फीसदी है, वह, ''सरकारी मदद से दोगुनी” हो सकती है.

विकेंद्रीकरण
सरकार जनता के द्वार

2005 से गुजरात ने ऐसी कई योजनाएं अपनाई हैं, जिनसे सत्ता का विकेंद्रीकरण हो और आवश्यक सेवाएं गांवों में लोगों तक पहुंचे. योजनाओं का प्रसार करने का तरीका भी निराला है. गांववालों के साथ संपर्क करने के लिए मेले जैसा आयोजन होता है. मिसाल के तौर पर कृषि महोत्सव मेले में वैज्ञानिक, सरकारी अधिकारी और कृषि विशेषज्ञ गांव पहुंचकर किसानों को ड्रिप सिंचाई, मिट्टी के परीक्षण, बरसात का पानी इकट्ठा करने के बारे में जानकारी देते हैं.

सरकार दो उत्सव भी आयोजित करती है. इनमें से 'कन्या केलावनी’ का मकसद ज्यादा से ज्यादा लड़कियों का स्कूल में दाखिला करना है. वहीं, 'गुणोत्सव’ हर साल प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता को आंकने के लिए मनाया जाता है. इन योजनाओं के अंतर्गत मंत्री और सरकारी अफसर सभी 18,000 गांवों में जाते हैं. वहां तीन दिन रहकर स्कूलों का सर्वे करते हैं और परिवारों से लड़कियों को पढ़ाने की जरूरत पर बात करते हैं, क्योंकि आदिवासी इलाकों में लड़कियों का पढ़ाने का चलन कम है. इन कार्यक्रमों की मदद से प्राइमरी स्कूल में नए एडमिशन की संख्या पहले के 73 फीसदी से बढ़कर 2012 में 85.3 फीसदी हो गई.

इन योजनाओं की सबसे बड़ी ताकत ''अपनो ताल्लुको, वाइब्रेंट ताल्लुको” नाम से स्थानीय प्रशासन की मजबूत व्यवस्था है. विकेंद्रीकरण का एक और पहलू आदिवासी और तटीय आबादी के लिए क्षेत्र विशेष की जरूरत के मुताबिक योजनाएं बनाने में स्थानीय अधिकारियों की सूझ-बूझ के उपयोग का है. 2005 में शुरू हुई वनबंधु कल्याण योजना ऐसी ही एक योजना है.

इसमें बहुत से सरकारी विभागों के कामकाज में तालमेल किया गया है, ताकि योजनाओं को आदिवासी आबादी की जरूरतों के मुताबिक ढाला जा सके. तटीय आबादी के लिए सागर खेडू योजना भी इसी मॉडल पर चलती है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2007 और 2012 के बीच वनबंधु योजना ने करीब 10,000 ऐसे लोगों को रोजगार दिया, जो दसवीं या बारहवीं की परीक्षा में फेल हो गए थे. इसके अलावा राज्य की 42 आदिवासी तहसीलों में 50 नए स्कूल भी खुले.

क्या विकेंद्रीकरण के इस मॉडल को देशभर में अपनाया जा सकता है? अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय का कहना है, ''गुजरात में 1960 के दशक से ही पंचायती राज की स्वस्थ परंपरा है, जिसके कारण विकेंद्रीकरण की योजना आसानी से बन जाती है.” अन्य राज्यों में अपनाने के लिए सबसे पहले स्थानीय स्वशासन को मजबूत करना होगा. यानी मूल प्रश्न यह आएगा कि बाकी देश की जनता को पहले इस बात के लिए जागरूक बनाया जाए कि सबके हित में ही उनका हित है. देखने में आया है कि उत्तर प्रदेश में आदर्श ग्राम के लिए महात्मा गांधी, आंबेडकर या लोहिया के नाम पर चलने वाली योजनाओं में भ्रष्टाचार घुस जाता है.

ई-प्रशासन
आमने-सामने संपर्क

ई-प्रशासन योजनाएं अमल में आने से जमीनी स्तर पर लाल फीताशाही कम हुई है. हर तहसील मुख्यालय में एक जन विकास केंद्र है, जहां 100 से अधिक प्रमाणपत्र मामूली भुगतान पर मिनटों में मिल जाते हैं. इनमें से कई प्रमाणपतत्र तो अब ई-ग्राम विश्वग्राम केंद्र में गांववालों को मिलने लगे हैं. सरकार के इस अनूठे नेटवर्क में राज्य की सभी 13,700 ग्राम पंचायतों को जोड़ा गया है.

राजस्व विभाग के ई-जमीन प्रोजेक्ट ने गुजरात में करीब आधे मालिकों की जमीन के रिकॉर्ड डिजिटल कर दिए हैं. इससे जमीन के मालिकाना हक में हेराफेरी के मामले बहुत कम हो गए हैं. सबसे निराली योजना शायद मुख्यमंत्री कार्यालय में स्थापित स्वागत ऑनलाइन शिकायत निपटान प्रणाली है. मोदी हर चौथे शनिवार को करीब चार घंटे तक गांववालों की शिकायतें खुद सुनते हैं और उनका ऑनलाइन समाधान करते हैं. लेकिन इधर सालभर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने के बाद वे इन कामों के लिए कितना वक्त निकाल पाते होंगे, कहना कठिन है.

गुजरात में कई ई-प्रशासन योजनाएं लागू करने वाले पंकज गुप्ता पहले टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज के प्रमुख थे. गुप्ता के हिसाब से इन योजनाओं पर अमल का खर्च कम रखा गया है. उन्होंने बताया, ''राज्य में 2003 से अपनाए गए आठ बड़े और करीब एक दर्जन छोटे प्रोजेक्ट्स की लागत करीब 1,200 करोड़ रु. रही है. अगर कोई नोडल एजेंसी यह काम संभाल ले तो इसे पूरे भारत में अपनाने की लागत 20,000 करोड़ रु. से कुछ ही ज्यादा होगी.”

(गुजरात में निजी क्लीनिक के बाहर खड़े मरीज)
स्वास्थ्य सेवा
निजी विकल्प

ई-गवर्नेंस और क्षेत्रवार योजनाओं जैसे कार्यक्रमों की सफलता के बावजूद स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक संकेतकों की हालत खस्ता है. 2012 के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो गुजरात में जन स्वास्थ्य केंद्रों में 34 फीसदी डॉक्टरों की कमी थी, जबकि राष्ट्रीय औसत 10 फीसदी कमी का था. अहमदाबाद से करीब 150 किमी उत्तर में भिलोडा गांव में एक सरकारी अस्पताल, राज्य के गांवों में जनस्वास्थ्य सेवा की स्थिति बयान करता है.

सबसे नीचे के तल पर एक कमरे के बाहर मरीजों की कतार लगी थी, ऐसे में लैब तकनीशियन ने बताया कि 98 बिस्तर वाले अस्पताल में सिर्फ एक चिकित्सा अधिकारी है. करीब 400 मरीज रोजाना अस्पताल में आते हैं. डॉक्टरों की इस कमी से निबटने के लिए सरकार लोगों को निजी स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज कराने का विकल्प दे रही है.

मुख्यमंत्री अमृतम योजना में गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के अधिक से अधिक पांच सदस्य सरकारी मंजूरी वाले निजी अस्पतालों में दो लाख रु. तक का इलाज करवा सकते हैं, जबकि चिरंजीवी योजना महिलाओं को निजी अस्पतालों में प्रसव कराने के लिए प्रोत्साहन देती है.108 एंबुलेंस सेवा में 450 एंबुलेंस हैं, जिन्हें किसी भी गांव में भेजा जा सकता है. यह सेवा जीवीके ग्रुप संचालित करती है.

क्या इलाज का इंतजाम निजी कंपनियों पर छोड़ देना वाकई कारगर है? इसके प्रमाण मिलेजुले हैं. गुजरात में शिशु मृत्यु दर 2012 में 38 थी, जो 42 के राष्ट्रीय औसत से कम लेकिन तमिलनाडु (21) और महाराष्ट्र (25) जैसे राज्यों से कहीं ज्यादा थी. मातृ मृत्यु दर यानी प्रति 10,000 प्रसवों पर प्रसव के दौरान मरती महिलाओं की संख्या गुजरात में 122, केरल में 66 और महाराष्ट्र में 87 हैं. लेकिन इसका एक कारण यह है कि 15 फीसदी आदिवासी आबादी दूरदराज के इलाकों में रहती है. वैसे यहां सवाल यह भी है कि क्या केरल और महाराष्ट्र के आदिवासी शहर से सटे गांवों में ही रहते हैं?

अभी हाल तक गांवों में डॉक्टर 1.5 लाख रु. का बॉन्ड भरने के बाद निजी अस्पतालों में प्रैक्टिस कर सकते थे. सरकार ने अब इस बॉन्ड को तीन गुना से ज्यादा बढ़ाकर 5 लाख रु. का कर दिया है और राज्य में एमबीबीएस की 2,000 सीटें बढ़ा दी हैं. स्वास्थ्य के मद में  राज्य के 2013-14 के बजट में योजना व्यय में 24 फीसदी बढ़ोतरी से इनमें से कुछ खामियां दूर हुई हैं.

(गुजरात के साबरकंठा जिले के स्कूल में बच्चे)
शिक्षा
शिक्षकों का कम वेतन और खाली पोस्ट

सर्वशिक्षा अभियान के तहत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली के आंकड़ों से पुष्टि होती है कि समस्या प्राइमरी स्कूलों से ऊपर है. 2011-12 के एक सर्वेक्षण में इस प्रणाली को पता चला कि विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात उच्च माध्यमिक और माध्यमिक शिक्षा में 54 था, जबकि राष्ट्रीय औसत 32 का था. 2013 की इस प्रणाली की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात में प्राइमरी स्तर पर भर्ती अनुपात 85.3 फीसदी रहा था, जो माध्यमिक स्तर पर गिर कर 48.77 फीसदी रह गया. गुजरात में स्कूलों में बीच में पढ़ाई छोड़ देने वालों की दर 58 फीसदी है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 49 फीसदी का है.

स्वास्थ्य सेवा की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी स्टाफ की कमी है. उत्तरी गुजरात में नवभवनाथ गांव में सरकारी प्राइमरी स्कूल की सुविधाएं देखने लायक हैं. दस क्लासरूम, एक कंप्यूटर रूम और लड़के-लड़कियों के लिए अलग शौचालय. इस स्कूल में शिक्षक विद्या सहायक योजना के तहत आते हैं, जिसमें 5,300 रु. मासिक का अंशकालिक वेतन दिया जाता है. विपक्षी कांग्रेस लंबे समय से इसे शिक्षकों का खुला शोषण बताती रही है.

बीजेपी महासचिव अमित शाह ने इंडिया टुडे कॉनक्लेव में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के सवाल पर यह बात कबूल की थी. हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि वे शिक्षक चार साल तक अंशकालिक रहे और उसके बाद स्थायी कर दिए गए. अस्थायी मास्टरों को मिलने वाला यह शर्मनाम वेतन बच्चों की पढ़ाई पर भी बुरा असर डालता है. ऐसे शिक्षक सामान्य तौर पर शिक्षित तो होते हैं, लेकिन उनका मन दूसरा बेहतर रोजगार खोजने में लगा रहता है.

यही समस्या जब स्कूल से कॉलेज स्तर के अध्यापकों तक पहुंचती है तो और भी भयावह हो जाती है. 2013 की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे गुजरात में इंजीनियरिंग कॉलेजों में 1,700 से ज्यादा पद खाली थे. इसे सुधारने का इरादा पक्का है. सरकार ने मोदी के सत्ता में आने के बाद से राज्य में विश्वविद्यालयों की संख्या 15 से बढ़ाकर 52 कर दी है. फिर भी शिक्षकों की कमी के कारण अब तक खास फायदा नहीं हुआ है. 2013-14 में सरकार ने शिक्षा पर योजनागत खर्च 43 फीसदी बढ़ा दिया.

सरकार की इन सारी पहल को बहुत सकारात्मक नजरिए से देखा जाए तो भी आज तक गुजरात की छवि बेहतर प्रोफेशनल, वैज्ञानिक, डॉक्टर या इंजीनियर पैदा करने वाले राज्य की नहीं बनी है. प्रशासनिक सेवाओं में दबदबे को लेकर भी गुजरात के बारे में कोई दमदार धारणा नहीं है. विज्ञान के मामले में आज भी दक्षिण के राज्यों के दबदबे वाली धारणा कायम है.

प्रशासनिक परीक्षाओं में भी अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा है. गुजरात की छवि आज भी बेहतर कारोबारी और व्यापारी पैदा करने वाले राज्य की है. यह छवि कोई बुरी तो नहीं है, लेकिन अगर शिक्षा को योग्यता की एक कसौटी माना जाए तो गुजरात पिछड़ा ही नजर आएगा. बल्कि इस मामले में तो अपेक्षाकृत पिछड़े राज्य बिहार का उत्तरी इलाका और बंगाल हमेशा से छाप छोड़ता रहा है. गुजरात इनसे सीख सकता है.

फैसला
मंजिल अभी दूर है

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि गुजरात को आदर्श परिस्थितियों का लाभ मिला है—सरकार के पास औद्योगिक घरानों को देने के लिए बहुत सारी जमीन का होना, सड़क बनाने के लिए अनुकूल जमीन होना और गुजरातियों का कारोबारी हुनर कामयाबी की पक्की गारंटी है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी के नेतृत्व में गुजरात ने बुनियादी सुविधाओं को खूब बढ़ावा दिया है. इससे खेती का रूप बदल गया है और धीरे-धीरे गुजरात के गांवों का चेहरा बदल रहा है. दूसरे राज्यों में इस हद तक आर्थिक विकास को दोहरा पाना मुश्किल हो सकता है.

गुजरात ने जिस दौर में 10.1 फीसदी की वृद्धि दर हासिल की उस समय दो राज्यों—महाराष्ट्र (10.8 फीसदी) और तमिलनाडु (10.3 फीसदी)— ने ही उसे मात दी. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने 2011 का जो मानव विकास सूचकांक प्रकाशित किया है, उसके अनुसार महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने अपने मानव विकास सूचकांक (लोगों की आयु, शिक्षा आमदनी के संकेतकों) को राष्ट्रीय औसत से ऊपर कर लिया था, जबकि गुजरात उससे नीचे ही रहा.

सेवाओं को गांवों तक पहुंचाने और टैक्नोलॉजी अपनाने को पूरे भारत में आसानी से अपनाया जा सकता है. लेकिन जब तक उनके साथ अच्छे डॉक्टर, अच्छे शिक्षक और कुशल स्टाफ देने का संकल्प नहीं होगा, तब तक सामाजिक संकेतक पिछड़ते रहेंगे. सरकार ने डॉक्टरों के लिए बॉण्ड बढ़ाकर और विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाकर प्रयास तो किया है. इसके बावजूद सामाजिक संकेतक सुधरने में लंबा वक्त लगता है और आज किए गए निवेश का लाभ एक दशक या उसके भी बाद में मिलेगा.

दो बातें तो साफ हैं कि गुजरात अभी उतना आदर्श राज्य नहीं है, जितना मोदी के समर्थक मानते होंगे और न ही उतना बिखरा हुआ है, जितना केजरीवाल और दूसरे नेता कहते हैं. अगर विशेष रूप से स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी कुछ समस्याएं दूर कर दी जाएं तो गुजरात आधुनिक भारतीय राज्य की ऐसी मिसाल बन सकता है, जिसे दूसरे राज्य अपना सकते हैं.

(गुजरात में अहमदाबाद-वडोदरा एक्सप्रेसवे)
लेकिन इस पूरे विश्लेषण में एक बात और याद रखनी होगी—विकास को मापने के जो भी पैमाने गुजरात सरकार, स्वतंत्र संगठन और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने अपनाए हैं, उनमें समाज को गरीबी-अमीरी, गांव-शहर या स्त्री-पुरुष जैसे खांचों में बांटकर देखा गया है. जितने भी पैमानों की चर्चा यहां की गई है उसमें संप्रदाय या धर्म को पूरी तरह सोच-विचार से बाहर रखा गया है. जबकि सांप्रदायिकता या सीधे कहें कि मुसलमानों के साथ अन्याय ही नरेंद्र मोदी की आलोचना का सबसे बड़ा विषय रहा है.

मोदी जिसे विकास मॉडल कहते हैं, उसी मॉडल को बगावत के दिनों में उमा भारती ने विनाश मॉडल और मीडिया का फुलाया गुब्बारा कहा था. और इसी मॉडल पर जब हमला करना होता है तो विपक्ष इसे सीधे दंगा मॉडल से जोड़ देता है. कुछ विरोधी नेता यह भी दलील देते हैं कि मोदी का विरोध करके कोई मुसलमान गुजरात में नहीं रह सकता. हो सकता हो ये बातें निराधार हों, लेकिन ये आम चुनाव भी तो बुनियादी बातों की जगह धारणा, प्रोपगेंडा और सपनों पर हो रहा है.       
—साथ में कौशिक डेका, उदय माहूरकर, एम.जी. अरुण, डाटा रिसर्च टीना एडविन

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