जीएसटी: कर एक, आशंकाएं अनेक

चतुर राजनैतिक चालों, उतार-चढ़ाव के बाद बहुचर्चित कर ढांचा अस्तित्व में, पर अमल में आशंकाएं.

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श्वेता पुंज

  • नई दिल्ली,
  • 20 सितंबर 2016,
  • अपडेटेड 4:36 PM IST

करों में इजाफा हमेशा लोगों की नाराजगी का कारण बनता है. इसे राजनैतिक चतुराई नहीं माना जाता. इससे सरकार विरोधी लहर पैदा हो सकती है. सरकारें जब भी कराधान में निर्णायक बदलाव की कोशिश करती हैं, वे इसके लिए खासा जोखिम उठाती हैं. देश की कर व्यवस्था में बेशक इकलौता सबसे बड़ा बदलाव वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) ऐसी कई आशंकाएं लेकर आया है.

जाहिर है, काफी कुछ दांव पर है. जीएसटी विधेयक की अहमियत, उसकी विध्वंसक संभावनाएं और उसके अमल की चुनौतियां इसी हकीकत से जाहिर हो जाती हैं कि पहली दफा 2006-07 में इसकी चर्चा शुरू हुई और 2016 अगस्त में जाकर यह संसद में पास हो सका. 2006-07 में यूपीए सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने बजट में प्रस्ताव किया था कि जीएसटी को अप्रैल, 2010 से लागू किया जाएगा. तब भी यह लक्ष्य महत्वाकांक्षी था.

मौजूदा बीजेपी की अगुआई वाली एनडीए सरकार के लिए यह किसी तख्तापलट सरीखा ही था. विधेयक के पास होने के जश्न के वक्त भी यह चिंता बनी हुई थी कि यह कैसे अमल में आएगा. बेशक, मुख्य चिंता देश भर में कर की एक दर को लेकर थी. इस काम को अब जीएसटी काउंसिल के हवाले कर दिया गया है.

कई आकलनों पर पहले से ही विचार चल रहा है. मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम की अगुआई में एक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि जीएसटी के लिए राजस्व उपयुक्त दर (आरएनआर)—वह दर जिस पर नई कर व्यवस्था से पुरानी व्यवस्था जैसी ही राजस्व उगाही हो—करीब 15.5 प्रतिशत होगी. इस लिहाज से कमेटी की सलाह है कि जीएसटी की मानक दर 17 से 18 प्रतिशत के बीच हो सकती है. लेकिन क्या पूरे देश में यह एक दर लागू करना कारगर है?

केंद्र सरकार के राजस्व सचिव हंसमुख अधिया तो कहते हैं, ''नहीं, यह संभव नहीं. आरएनआर एक आदर्श दर है जो सभी चीजों पर बिना रियायत के लागू होगी. लेकिन क्या यह संभव है? क्या गरीब लोगों को इसका दंश झेलना पड़ सकता है? इसलिए हम जीएसटी की आदर्श इकलौती दर को लागू नहीं कर सकते. हम उसकी कोशिश कुछ समय बाद करेंगे. लेकिन फिलहाल तो यह हमारे लिए कोई विकल्प नहीं है. हमें कम से कम तीन दरें रखनी होंगी." हालांकि जीएसटी जैसे कर सुधार की लंबे समय से जरूरत महसूस की जाती रही है. ज्यादातर देशों में ऐसे मामलों के लिए इकलौती दर है, जबकि भारत में दोहरी दर कायम है. एक, केंद्र की और दूसरी, राज्यों की. इस मामले में यह बदलाव बड़ा है और इसके ठीक-ठीक लागू होने में समय लगेगा. अधिया कहते हैं, ''यह भारत के लिए नया प्रयोग है. हम सहकारी संघवाद के नए चरण में जा रहे हैं, एक ऐसे मॉडल के साथ जिसमें सभी राज्य समान रूप से साझीदार हैं."

जीएसटी काउंसिल की पहली बैठक 22 और 23 सितंबर को तय है. उसका एजेंडा भी उतना ही महत्वाकांक्षी है, जैसा कि संसद में इस विधेयक को पास कराना था. संभावना यही है कि हर राज्य अपने फायदे वाली दर लागू करेगा और जीएसटी के दायरे से अपनी फायदे की वस्तुओं को बाहर रखने पर जोर देगा. आदर्श रूप में तो जीएसटी की एक ही दर होनी चाहिए, लेकिन राज्यों के जोर देने पर एक प्रावधान यह भी है कि प्राकृतिक आपदा के दौरान राज्य अलग दर लागू कर सकते हैं.

असली आशंका अपना प्रभुत्व खोने का है. विधेयक के पास होने के पहले ही राज्य और केंद्र के प्रतिनिधियों के बीच काफी तीखा टकराव हो चुका है. राज्यों ने इसमें कुछ जीत भी हासिल की है. राज्यों को 1.5 करोड़ रु. या उससे कम कारोबार वाले मामले में लेखाजोखा का अधिकार हासिल हो गया है. शराब को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है. उद्योग के लोग इसे जीएसटी के दायरे में रखना चाहते थे. दिक्कत यह है कि राज्यों को करीब 30 प्रतिशत राजस्व शराब और पेट्रोलियम उत्पादों से ही मिलता है. फिलहाल कुछ पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरों से अलग रखा गया है. बाद में शामिल किया जा सकता है.

आशंकाएं कई
मॉडल जीएसटी विधेयक के द्ब्रयौरों पर जब विस्तार से बहस शुरू होगी तो यह ध्यान में रखना होगा कि इसका मकसद क्या है. अधिया कहते हैं, ''पहला मकसद कारोबार के लिए सहूलियत मुहैया कराना है. कई तरह के करों से दिक्कतें होती हैं. फिर एक से दूसरे राज्य में माल ढुलाई में भी कई मुश्किलें आती हैं. हमें ऐसी कर व्यवस्था भी चाहिए, जिसमें कर चोरी आसान नहीं हो."

लेकिन इससे कई हलकों में आशंकाएं हैं. एक मसला यह है कि कारोबारियों को उस हर राज्य में पंजीकरण कराना होगा, जहां उनका कारोबार है. इसका मतलब यह हुआ कि दूरसंचार कंपनियों को कम से कम 36 पंजीकरण कराने पड़ेंगे. इसी तरह पूरे देश में कारोबार करने वाले बैंक, वित्तीय सेवाएं और ई-कॉमर्स कंपनियों को इसका दंश झेलना पड़ेगा. यह तो कारोबार की सहूलियत वाले विचार के विपरीत जाता है.

वित्तीय सलाहकार फर्म अर्न्स्ट ऐंड यंग (अब ईवाइ) के विपिन सापरा कहते हैं, ''आज सेवा क्षेत्र बेहतर हालत में है. कर एक ही है और कई तरह के पंजीकरण की जरूरत नहीं है. जीएसटी के तहत दोहरा नियंत्रण हो जाएगा."  ई-कॉमर्स कंपनियां तो इस कदर परेशान हैं कि वे जीएसटी से ही अलग रहने की मांग कर रही हैं. हालांकि सरकार इस पर गौर करने को कतई तैयार नहीं है. अधिया सीधे-सीधे कहते हैं, ''आखिर वे क्यों कर अदा नहीं करना चाहते?"

जीएसटी को लेकर दूसरी आपत्ति ''इनपुट टैक्स क्रेडिट" को लेकर है. इससे भी कई तरह की बाधाएं उत्पन्न होती हैं. इसका लाभ शराब, पांच पेट्रोलियम उत्पाद, रियल एस्टेट और बिजली जैसे क्षेत्रों को नहीं होगा. (मसलन, कोई दूरसंचार कंपनी अगर अपना टावर जेनरेटर पर चलाना चाहती है तो वह ईंधन पर पहले से लगे कर में छूट की मांग नहीं कर सकती). कनाडा जैसे देशों के जीएसटी कानूनों का मजमून तैयार करने में मदद करने वाले विशेषज्ञ सत्या पोद्दार बताते हैं, ''जीएसटी के दायरे से बाहर न रहने वाले क्षेत्रों पर भी सरकार ने क्रेडिट पर पाबंदियां थोप दी हैं. मसलन, निर्माण में लागत खर्च इनपुट क्रेडिट के दायरे से बाहर है. मकानों की बिक्री भी जीएसटी के दायरे से बाहर है. लेकिन मकान में लिफ्ट से लेकर बिजली तक लगाने में इनपुट टैक्स क्रेडिट हासिल नहीं की जा सकेगी."

विवाद का दूसरा मामला वाहन उद्योग से जुड़ा है. कंपनियां विभिन्न तरह के करों खासकर लग्जरी कार पर 40 प्रतिशत दर से जूझ रही हैं. लग्जरी कार की परिभाषा भी पेचीदा है, जो विभिन्न राज्यों ने अपने यहां निवेश आकर्षित करने के लिए बना रखी है.

केंद्र सरकार ने आश्वस्त किया है कि अगले पांच साल तक वह राज्यों को राजस्व कमी की भरपाई करेगी. उसे यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि अपने राजस्व घाटे को दुरुस्त करने के लिए कर ज्यादा न हो. आदित्य बिड़ला समूह के अजीत रानाडे कहते हैं कि परोक्ष करों की दर पर एक विधायी सीमा लगाई जाने की जरूरत है, ताकि भविष्य में सरकारें इसमें इजाफा न कर सकें. वे कहते हैं, ''हमें बुनियादी सिद्धांत को सही रखना होगा. कर की दर पर बवाल नहीं चाहिए. कर की दर कम से कम होनी चाहिए और जो कमी हो, आगे भरपाई की जानी
चाहिए." पोद्दार न्यूजीलैंड जैसे देशों की मिसाल देते हैं, जहां पहले 10 प्रतिशत दर से शुरुआत की गई और अब दर 14-15 प्रतिशत तक पहुंच गई है. हालांकि वहां कोई छूट नहीं है. ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर में कुछ मामलों में छूट है. लेकिन उसकी स्पष्ट व्याख्या है, ताकि कोई विवाद न हो.

यह समझने की जरूरत है कि कारोबार जैसे वैश्विक होता जा रहा है, सरकार को सभी पक्षों की सलाह से कर कानून बनाने होंगे. राज्यों को अपनी जरूरत के हिसाब से अनाप-शनाप दर नहीं लागू करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. देश की नई अर्थव्यवस्था का दायरा अखिल भारतीय है. इसलिए केंद्र और राज्य जब मानक कर दर पर बातचीत करें तो उन्हें अपने वोट बैंक और तात्कालिक हितों को ध्यान में न रखकर नई उभरती अर्थव्यवस्था की जरूरतों को ध्यान में  रखना चाहिए.

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