हमारे देश की औरतें गुस्से में हैं और इसकी वजह साफ है. हजारों शब्दों, लाखों लोगों के आंसुओं और सैकड़ों नारों से इतिहास का निर्णायक मोड़ बन चुकी एक घटना के बावजूद अब भी आधे से ज्यादा शहरी पुरुष मानते हैं कि महिलाओं को अंधेरे में घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए.
वे खुद को कटु यथार्थवादी करार दे सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमारे पास बेहतर संबोधन है. वे यथास्थितिवाद के पोषक हैं जो अच्छे से जानते हैं कि इंकलाबी हवाओं से दिमागी कचरा साफ नहीं हो सकता.
अब भी महिलाएं जो चाहती हैं और पुरुष जो मानते हैं, उसके बीच गहरी खाई है. 38 फीसदी महिलाएं गर्व से कह रही हैं कि वे रात में निकलने में खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं. डेंटेड और पेंटेड हों, नई और पुरानी बीवी हो, ठुमके वाली हों या नहीं, लेकिन उन्हें सुरक्षित रहने का अधिकार तो है. अगर यहां पीड़िता है, तो उसकी आवाज सुनने के लिए सत्ता में एक औरत भी है, जहां हर त्रासदी का जवाब एक फतह है. यह दास्तान एक ऐसे समाज की भी है जो अपनी बुराइयों को पहचानने के मामले में बहुत कमजोर है. इस समाज के 87 फीसदी लोग मानते हैं कि बलात्कारियों को फांसी की सजा दी जानी चाहिए.
जस्टिस वर्मा कमेटी हालांकि बलात्कारियों को फांसी देने या जुवेनाइल की उम्र 18 से घटाकर 16 किए जाने के पक्ष में नहीं हैं. कमेटी ने 23 दिसंबर को गृह मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी है. सिर्फ महीनेभर में प्राप्त 80,000 सुझावों के आधार पर कमेटी ने दीर्घकालीन प्रभाव वाले बदलावों की सिफारिश की है. सिफारिशों में यौन उत्पीडऩ पर बने कानूनों का दायरा व्यापक करने की मंशा है जिसमें वैवाहिक जीवन में होने वाले बलात्कार (मेरिटल रेप) और मर्जी के बिना यौन स्पर्श भी शामिल हैं जिनका जिक्र भारतीय दंड संहिता में नहीं है. कमेटी ने बच्चों की तस्करी, आंतरिक संघर्ष वाले इलाकों में सैन्य बलों की यौन हिंसा, विकलांगों के साथ होने वाले बलात्कार और समलैंगिकों पर यौन हमले को भी शामिल किया है. रिपोर्ट जमा करने के तुरंत बाद जस्टिस वर्मा ने कहा, ‘‘हमारे कानून तो सही हैं लेकिन उनका कोई असर नहीं होता.’’
कमेटी की सिफारिशें बदलाव का आगाज हैं. अब यह बात मानी जा चुकी है कि ये प्रदर्शन व्यापक बदलाव का एक क्षण थे (जैसा बीजेपी प्रवक्ता निर्मला सीतारमन कहती हैं) और आधुनिक भारतीय इतिहास में निर्णायक मोड़ (चौतरफा घिरे दिल्ली पुलिस पुलिस आयुक्त नीरज कुमार का बयान) भी, लेकिन आगे इसकी नियति क्या होगी? ये प्रदर्शन बहुप्रतीक्षित लैंगिक न्याय का उत्कर्ष थे. लंबे समय से दबे एक गुस्से से कोई नहीं उलझ सकता, यहां तक कि मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने भी प्रदर्शनों को ‘‘सही और अनिवार्य’’ बताया. लेकिन असल खतरा इस समाज के ऐसे चमकदार पलों से है जो एक सीमा तक ही समाज को दुरुस्त कर पाते हैं. जब लोगों के संगठित होने के बावजूद भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सका और कई बातों तथा मुलाकातों के बावजूद महिलाओं को अपना अधिकार नहीं मिलता, ऐसे में विश्वास दम तोड़ देता है और उम्मीदें धराशायी हो जाती हैं.
इसने देश की बुनियादी बनावट ही बदल डाली है, जिसने इस भरोसे के साथ खुद को बदलने की कवायद की थी कि दुनिया में उसकी भी एक सम्मानित जगह है. क्या भारत ने यह लड़ाई इसलिए लड़ी कि एक बार फिर हताशा की सुरसा का ग्रास बन जाए? सुप्रीम कोर्ट की वकील करुणा नंदी को अब भी उम्मीद है, ‘‘सती निरोधक कानून को लें. यह तरक्कीपसंद सामाजिक आंदोलनों के जवाब में पारित हुआ था और इसने समाज को बदलने में इतनी भूमिका निभाई कि आज उस चलन की हर कोई निंदा करता है और शायद ही कहीं यह जिंदा हो.’’
गैंग रेप मामले की सुनवाई 21 जनवरी से फास्ट ट्रैक अदालत में हो रही है. फांसी हो भी सकती है और नहीं भी. नाबालिग बताया जा रहा छठवां आरोपी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर केस लड़ रहा है. हमारी सामाजिक तरक्की का असली इम्तिहान इस बात से होगा कि हर साल भारत की अदालतों में आने वाले 23,000 से ज्यादा बलात्कार के मामलों में सुनवाई किस तरह से की जाती है. इससे बड़ी बात यह कि हम पीड़िता को कैसे सम्मान दिला पाते हैं.
जयंत श्रीराम