दलितों पर सबका दांव

चुनावों के दौर में उत्‍तर प्रदेश में बीएसपी से लेकर सपा, कांग्रेस और बीजेपी तक सभी पार्टियों की निगाह टिकी है 25 फीसदी दलित वोटों पर.

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आशीष मिश्र

  • लखनऊ (उ.प्र.),
  • 22 अप्रैल 2014,
  • अपडेटेड 5:09 PM IST

बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती 10 अप्रैल की दोपहर एक बजे हरदोई के आइटीआइ ग्राउंड में गरज कर बोलीं, ‘‘मैं चमार जाति से ताल्लुक रखती हूं. अगर 80 सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवार चुनाव जीतते हैं तो हाथ किसके मजबूत होंगे? आपकी बहन के होंगे, आपकी बेटी के होंगे, आपके समाज की लड़की के होंगे. अगर ये दोनों पासी यहां से चुनाव जीतते हैं तो कोई यह नहीं बोलेगा कि पासी जीते हैं.

सब यही बोलेंगे कि चमार की बेटी के हाथ में दो और सीटें आ गई हैं.’’ हरदोई और मिसरिख सुरक्षित संसदीय सीटों के एकीकृत चुनाव अभियान के दौरान पार्टी के उम्मीदवारों की उपजाति का उल्लेख कर मायावती ने दलित जातियों के बीच चुनावी ‘‘सोशल इंजीनियरिंग’’ को नया तेवर देने की कोशिशकी. यह कोशिश बेवजह नहीं थी.

इससे ठीक 48 घंटे पहले समाजवादी पार्टी (सपा) ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटव बिरादरी के बीजेपी नेता अशोक प्रधान और इससे एक हफ्ते पहले डॉ. भीमराव आंबेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालजी प्रसाद निर्मल का समर्थन हासिल कर उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में जगह बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी.

मायावती को पता है कि यूपी में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने का रास्ता यहां की 17 सुरक्षित सीटों से होकर गुजरता है. सो दूसरी पार्टियां भी इन्हें हथियाने की रणनीति बना रही हैं. इसी के तहत दलित वोट बैंक को साधने में सभी पार्टियों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है.

आबादी के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रदेश यूपी में दलितों की 21 फीसदी से ज्यादा आबादी है. यहां की 80 लोकसभा सीटों में से 17 भले अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हों, लेकिन तकरीबन 40 प्रतिशत सीटें ऐसी हैं, जहां इनकी आबादी 25 प्रतिशत से ज्यादा है. ऐसे में सुरक्षित सीटों पर राजनैतिक पार्टियों की रणनीति दूसरी गैर-दलित जातियों को अपने दलित उम्मीदवार के साथ जोडऩे की है.

दलित चिंतक और इलाहाबाद स्थित गोविंद वल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के प्रो. बद्री नारायण कहते हैं, ‘‘दलितों की 66 उपजातियों में से आधा दर्जन को ही राजनैतिक मंच पर जगह मिल रही है. शेष अपने लिए राजनैतिक जगह तलाश रही हैं.’’

सुरक्षित सीटों पर सोशल इंजीनियरिंग
आंबेडकर जयंती पर 14 अप्रैल को मायावती ने लखनऊ के मॉल एवेन्यू स्थित अपने आवास में दोपहर तीन बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए अचानक बुलावा भेजा. इस मौके पर मायावती ने न सिर्फ बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर हमला बोला बल्कि बीएसपी के गठन से लेकर अब तक दलितों के लिए किए काम भी गिना डाले.

उनका इशारा साफ था. यूपी में दलित वोटों पर किसी की भी नजर मायावती को बर्दाश्त नहीं है. पिछले 20 साल के दौरान सिर्फ 1999 और 2004 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने 5-5 सुरक्षित सीटें हथियाई थीं. पिछले चुनाव में यह घटकर दो पर आ गईं.
इस लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद में मायावती ने दलित सीटों पर सोशल इंजीनियरिंग ईजाद की है.

दलितों की आबादी में करीब 70 फीसदी की भागीदारी रखने वाले चर्मकार-जाटव-पासी गठजोड़ के बूते मायावती ने सुरक्षित सीटों पर नीला परचम लहराने की तैयारी की है. पार्टी ने 9 सीटों पर जाटव-चर्मकार जाति के उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा है और छह सीटों पर पासी उम्मीदवार खड़े किए हैं.

बीएसपी के विधानमंडल दल के नेता और प्रदेश प्रवक्ता स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं, ‘‘2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 17 सुरक्षित सीटों में से 13 पर दूसरे स्थान पर थी और हार का अंतर भी बहुत कम था. इस बार सपा सरकार में समाज के सभी वर्गों के साथ दलितों पर हो रहे अत्याचार से जनता बीएसपी के शासन को याद कर रही है. यह इस चुनाव में स्पष्ट हो जाएगा.’’

पिछला प्रदर्शन दोहराने की चुनौती

सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर दलितों के निशाने पर आई सपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने पिछले प्रदर्शन को दोहराने की है. पिछली बार पार्टी ने 17 सुरक्षित सीटों में से 10 पर अपना परचम लहराया था. इस वर्ष की शुरुआत में दलितों के बीच नाराजगी दूर करने के लिए सपा सरकार ने प्रदेश में अनुसूचित जाति और जनजाति के काफी समय से खाली पड़े पदों पर भर्ती प्रक्रिया शुरू की. लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान से दस दिन के भीतर सपा ने तीन बड़े दलित नेताओं को पार्टी में शामिल कर चुनावी अभियान की साइकिल दौड़ा दी.

सपा का हाथ पकडऩे वाले ‘‘डॉ. भीमराव आंबेडकर महासभा’’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल कहते हैं, ‘‘मायावती की पिछली सरकार ने अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम में तुरंत एफआइआर के प्रावधान को हटाकर इसे कमजोर कर दिया. दलित छात्रावासों में सामान्य वर्ग को भी प्रवेश देने और कानूनी नियमों का पालन न करके प्रमोशन में आरक्षण को लचर ढंग से लागू करने के पीछे की मायावती की मंशा अब दलित समझ गए हैं.

इस चुनाव में सपा इन्हीं मुद्दों को सामने ला रही है.’’ जाटव-चर्मकार जातियों में बीएसपी की पकड़ को देखते हुए सपा ने इनकी काट के लिए दूसरी जातियों पर भरोसा जताया है. पार्टी ने केवल दो सीटों पर जाटव-चर्मकार उम्मीदवार उतारे हैं. सबसे ज्यादा सात सीटों पर पासी नेताओं को टिकट देने के अलावा स्थानीय समीकरणों पर कब्जा जमाने के लिए धानुक और वाल्मीकि जाति को भी चुनावी रण में जगह दी गई है.

सभी जुटे हैं दलितों को मनाने में
मिशन मोदी की कामयाबी के लिए बीजेपी को पिछड़े, अति और पिछड़ों के साथ दलितों के समर्थन की भी दरकार है. यह दलित वोट बैंक का ही जादू था, जब 1996 के लोकसभा चुनाव में 14 सुरक्षित सीटों पर कमल खिला था. लेकिन इसके बाद लगातार पार्टी दलितों से दूर होती गई, जिसका असर चुनाव नतीजों में भी दिखा. बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चे के पूर्व अध्यक्ष रामनरेश रावत कहते हैं, ‘‘मायावती को समर्थन देने के बाद से पार्टी से जुड़े दलित छिटककर बीएसपी की ओर चले गए थे.’’

पिछले साल दिसंबर में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कुल 79 विधानसभा सीटों में से 70 पर केसरिया लहराने से यूपी में बीजेपी के हौसले बुलंद हैं. पार्टी ने अब लोकसभा चुनाव में यूपी में दलितों का समर्थन बटोरने की भी उम्मीद लगाई है. राज्य में मायावती से नाराज कांशीराम समर्थक दलितों का समर्थन जुटाने के लिए बीजेपी ने केंद्रीय कार्यालय में कांशीराम का चित्र टांगना शुरू कर दिया.

15 जनवरी को बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चे के प्रभारी संजय पासवान ने पंजाब में कांशीराम के गांव जाकर पार्टी की सरकार बनने पर उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न देने का वादा किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषंगिक संगठन सेवा भारती गांवों में चौपाल लगाकर आंबेडकर, जगजीवन राम और कांशीराम को दलित आइकन के रूप में पेश कर रहा है.

इस तरह परोक्ष रूप से बीजेपी के पक्ष में दलित वोटों को लामबंद करने की कोशिश की जा रही है. पार्टी ने इंडियन जस्टिस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नौकरीपेशा दलित अधिकारियों और कर्मचारियों में पैठ रखने वाले उदितराज को अपने साथ जोड़ा है ताकि प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर पार्टी से नाराज दलितों को मनाया जा सके.

बीएसपी से दलितों को तोडऩे की जंग
पिछले साल 8 अक्तूबर को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नई दिल्ली में अनुसूचित जाति सशक्तिकरण के एक कार्यक्रम में मायावती को निशाने पर ले लिया. वे बोले, ‘‘मायावती ने दलित नेतृत्व पर अपना कब्जा कर लिया है और वे दूसरे नेताओं को आगे नहीं आने देतीं.’’ लोकसभा चुनाव की घोषणा के करीब पांच माह पहले राहुल गांधी के इस बयान ने यूपी में दलित वोटों को हथियाने की जंग में मुख्य विपक्षी दल की ओर इशारा कर दिया था.

यह बात तब और साफ हो गई, जब बीएसपी की ही तर्ज पर कांग्रेस ने भी नौ सीटों पर जाटव-चर्मकार उम्मीदवार उतार दिए और दलित वोटों के लिए सीधी लड़ाई का ऐलान कर दिया. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पूनिया बताते हैं, ‘‘मायावती को केवल चुनाव के समय ही जाटव और चर्मकार जातियां याद आती हैं.

बीएसपी शासन में ही इनका सबसे ज्यादा उत्पीडऩ हुआ, जबकि राहुल गांधी लगातार हर मंच पर दलितों को बराबरी दिलाने का प्रयास कर रहे हैं.’’ राहुल ने बीएसपी के संस्थापक सदस्य बलिहारी बाबू को लालगंज सुरक्षित सीट से चुनाव में उतारा है. साथ ही कांशीराम के सहयोगी रहे दलित नेता राजबहादुर को दलितों के बीच पार्टी की पैठ बढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी है. बलिहारी बाबू कहते हैं, ‘‘मायावती की नीतियों से दलित तबका परेशान है और अब वह कांग्रेस को विकल्प के रूप में देख रहा है.’’

राजनैतिक पार्टियों की खेमेबंदी से बेखबर बाराबंकी जिले के देवा ब्लॉक में दलितों के सबसे बड़े गांव गौरैया में तो आजादी के बाद पहली बार बिजली चमकने की आस एक बार फिर जगी है. इस बार पत्थर के कुछ खंभे भी गड़ गए हैं. पिछली दफा भी बिजली का वादा हुआ था, लेकिन पांच साल में केवल गांव के मंदिर और मस्जिद ही सोलर लाइट से रोशन हो पाए. नेताओं की कतार लगी है. सब जाति के सम्मान के नाम पर वोट मांग रहे हैं. मतदाताओं की खामोशी उनकी बेचौनी बढ़ा रही है.
-साथ में प्रशांत पाठक

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