नोटबंदी: पढ़ें या कतार में सड़ें!

नोटबंदी के असर से छात्र भी अछूते नहीं, फीस चुकाने से लेकर गुजर-बसर में भी परेशानी. छोटे शहरों में पढ़ रहे कुछ छात्र तो फिलहाल अपने गांव लौटे.

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एटीएम की कतार में छात्र एटीएम की कतार में छात्र

सरोज कुमार

  • नई दिल्ली,
  • 06 दिसंबर 2016,
  • अपडेटेड 1:49 PM IST

उत्तरी बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में एमफिल करने आए 22 वर्षीय श्वेतांशु शेखर अपने जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. उन्हें उम्मीद थी कि इससे न सिर्फ वे अपनी रिसर्च के लिए जरूरी किताबें और पत्रिकाएं खरीद सकेंगे बल्कि उनका लाइफस्टाइल भी सुधर जाएगा. अब आलम यह है कि स्कॉलरशिप बैंक खाते में आने के बावजूद वे लाचार हैं. दरअसल, 14 नवंबर को उनकी स्कॉलरशिप आई और उसके छह दिन पहले ही देश में नोटबंदी लागू होने की वजह से बैंक और एटीएम में उमड़ी भीड़ और कैश की कमी से वे पैसे नहीं निकाल पा रहे हैं. नोटबंदी के करीब तीन हफ्ते गुजर जाने के बाद भी उन्हें दोस्तों के साथ मिल-बांटकर गुजारा करना पड़ रहा है. इस दौरान वे सिर्फ एक बार 2,000 रु. निकाल पाए हैं. वे खीझ उठते हैं, ''हम एटीएम या बैंक की लंबी कतार में घंटों लगे रहेंगे तो पढ़ेंगे कब?"

ठीक ऐसा ही हाल श्वेतांशु के सहपाठी दिनेश कबीर का है. वे अपने जेआरएफ के लिए जरूरी फॉर्म बड़ी मशक्कत से बैंक में जमा कर चुके हैं लेकिन वहां उसे अपडेट करने में देर हो रही है. वे मायूस हैं कि शायद उनकी फेलोशिप कुछ देर से आए. लेकिन उनके हालात इससे भी बुरे गुजरे हैं. बकौल दिनेश के, ''पढ़ाई तो छोड़ दीजिए, ठीक से खाने-पीने के लिए सोचना पड़ रहा है. एक-दो बार तो फाका तक करना पड़ा. हम जैसे छात्र एटीएम पर भी निर्भर हैं. लेकिन एटीएम से पैसे मिलना फिलहाल दूभर हो गया है." पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी से दिल्ली आए दिनेश के अभिभावक भी उनकी मदद नहीं कर पा रहे हैं. छात्रों के सामने एक और परेशानी मुंह बाए खड़ी है. उत्तर प्रदेश के महाराजगंज की सुशीला का डीयू में पीएचडी का आखिरी साल है. उनके मुताबिक, उन्हें ऐसी दिक्कतों का सामना पहले कभी नहीं करना पड़ा था. वे दिल्ली के बुराड़ी बाइपास के पास हरदेव नगर में तीन अन्य लड़कियों के साथ कमरा शेयर करती हैं. उनका मकान मालिक प्रति व्यक्ति करीब 3,000 रु. किराया नकद ही वसूलता है. सुशीला बताती हैं, ''मकान मालिक नोटबंदी में भी किराया कैश ही मांग रहे हैं. ऐसे में हम क्या करें? बैंक में भी हुज्जत करने के बाद भी सिर्फ 4,000 रु. ही निकाल पाई और उसमें भी अपने दोस्तों की मदद के लिए उन्हें उधार देना पड़ गया." 30 नवंबर को भी वे बैंक में कैश निकालने के लिए चार-पांच घंटे कतार में लगी थीं, लेकिन कैश खत्म हो गया और उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा.

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंदी विभाग के एमफिल छात्र सुशील द्विवेदी को इन परेशानियों के बीच अपने प्रजेंटेशन और परीक्षा की फिक्र है. 10 दिसंबर से उनके टर्म पेपर हैं और किराएदार से किचकिच के अलावा खानपान को लेकर भी उन्हें परेशानी हो रही है. जामिया कैंपस के दो एटीएम में अब भी रात 10-11 बजे तक लंबी कतार लग रही हैं. इसकी बनिस्बत जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अब हालात सामान्य होने लगे हैं. यहां के  पीएचडी छात्र बृजेश यादव के मुताबिक, ''शुरुआत में तो लंबी कतारें लग रही थीं पर यहां आधा दर्जन एटीएम हैं. सो छात्रों को थोड़ी-बहुत देर में सही कैश मिल जा रहा है." यहां आकाश जैसे छात्र भी हैं, जिन्होंने अपनी जरूरतें कम कर ली हैं और पेटीएम का इस्तेमाल बढ़ा दिया है. वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शुरू में तो काफी दिक्कतें रहीं पर अब कम ही सही कैश छात्रों को सामान्य तौर पर मिल पा रहा है. लेकिन जिन्हें ज्यादा कैश की जरूरत है, उन्हें मायूसी हाथ लग रही है.

हर कोई नोटबंदी से नाराज नहीं है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े और जेएनयू में एमए के छात्र अंकित दुबे नोटबंदी को लेकर उत्साहित हैं. वे भुगतान के लिए पेटीएम का इस्तेमाल कर रहे हैं. वे कहते हैं, ''नोटबंदी से काले धन पर कुछ तो लगाम लगेगी, फिर हमें थोड़ी बहुत परेशानी हो रही है तो क्या हुआ. अच्छे काम के लिए आहुति तो देनी ही पड़ती है." शायद उन्हें खासकर छोटे शहरों और कस्बों के छात्रों के हालात का अंदाजा नहीं है. इंटरनेट के इस्तेमाल में युवा भले ही आगे हों, लेकिन हकीकत तो यही है कि देश की करीब 64 फीसदी आबादी इंटरनेट से महरूम है और ग्रामीण क्षेत्र में तो और भी ज्यादा. ऐसे में ऑनलाइन भुगतान और पेटीएम जैसी ऑनलाइन सुविधाओं का इस्तेमाल तो बड़ी आबादी के लिए दूर की ही कौड़ी है.

तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के बीए द्वितीय वर्ष के छात्र अमन आर्यन को ही लें. उनके पिता कुर्सेला में स्वास्थ्य विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं. हर महीने के आखिर में अमन अपने पिता के पास जाकर कैश में ही महीने भर का खर्च ले आता या फिर उसके पिता ही किसी के हाथों भिजवा देते. इस बार कैश की इतनी दिक्कत है कि अमन अपने लॉज का 1,500 रु. किराए और मेस के 1,800 रु. किराए का बंदोबस्त नहीं कर पाया और उसे फिलहाल विश्वविद्याल को अस्थायी तौर पर छोड़ घर बैठना पड़ रहा है. भागलपुर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रो. आर.एस. दुबे का कहना है, ''नोटबंदी के बाद तीन-चार दिनों तक यहां छात्रों को दिक्कत हुई थी पर अब स्थिति सामान्य है." पर पटना के महेंद्रू में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग कर रहे 20 वर्षीय श्वेत सुमन को फिलहाल मुंगेर में अपने घर लौटना पड़ा है. वे कहते हैं,  ''मुझे और मेरे दर्जन भर साथियों को फिलहाल तो अपने-अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा है, जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती."

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