करीब 50 वर्षों के बाद दक्षिण भारतीय राज्यों से एक बार फिर से अलग द्रविड़नाडु की मांग उठने लगी है. भारत के भीतर ही कुछ नेता एक अलग द्रविड़नाडु यानी दक्षिण के पांच राज्यों को मिलाकर बनाने की बात कह रहे हैं, वहीं कुछ नेता भारत से अलग होने की मांग भी कर रहे हैं.
दक्षिण भारतीय नेताओं का कहना है कि दक्षिण के राज्यों को उत्तर भारतीय राज्यों के मुकाबले भारत सरकार की तरफ से कम महत्व और सहूलियतें मिलती हैं. जिसके कारण दक्षिण भारतीय राज्यों को नुकसान हो रहा है.
समय-समय पर द्रविड़नाडु की मांग उठती रही है, लेकिन इस बार यह मांग उठाई है अभिनेता से नेता बने कमल हासन ने, जिन्होंने हाल ही में अपनी एक राजनैतिक पार्टी मक्कल नीधि मय्यम बनाई है.
वे तमिलनाडु के साथ-साथ दक्षिण के अन्य राज्यों में भी अपनी पार्टी के विस्तार की महत्वकांक्षा रखते हैं. उनकी इस मांग का समर्थन किया है द्रमुक नेता एमके स्टालिन ने, जो खुद भी दक्षिण के सबसे बड़े राज्य तमिलनाडु में अपनी खोई सियासी जमीन तलाशने में लगे हैं.
इन दोनों नेताओं का कहना है कि यदि दक्षिण के सभी राज्य एक साथ द्रविड़नाडु की मांग करें तो उनकी आवाज और बुलंद हो जाएगी. तेलुगु फिल्मों के अभिनेता और जनसेना पार्टी के नेता पवन कल्याण ने तो इस प्रकार की मांग को जायज ठहराते हुए युनाइटेड स्टेट्स ऑफ सदर्न इंडिया का नाम भी सुझा दिया है.
टीडीपी के सांसद मुरली मोहन ने तो यहां तक कह दिया कि अगर दक्षिण के राज्यों से इसी प्रकार भेदभाव होता रहा तो दक्षिण के पांचों राज्य तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, तेलांगना, कर्नाटक और केरल मिलकर खुद को स्वतंत्र घोषित कर देंगे.
दरअसल द्रविड़नाडु की मांग तो 1940 से ही की जा रही है. 1940 में पेरियार की जस्टिस पार्टी ने अपनी इस मांग को लेकर एक प्रस्ताव भी पास किया था. इस प्रस्ताव में द्रविड़ लोगों के लिए अलग देश की मांग की गई थी.
1940 से 1960 के दशक में इस मांग ने और जोर पकड़ा, जब पेरियार के पूर्व सहयोगी सीएन अन्नादुरै ने मई 1962 में संसद में कहा कि अब समय आ गया है कि तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास) को एक अलग देश का दर्जा दे दिया जाए और दक्षिण के राज्यों को मिलाकर द्रविड़नाडु नाम से एक अलग देश का गठन का किया जाए. इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि दक्षिण का परिवेश भारत के बाकी हिस्सों से भिन्न है.
अन्नादुरै की इस बात का संसद में जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कड़ा विरोध करते हुए कहा था कि आजादी के 15 वर्षों के बाद इस तरह की मांग अनुचित है. वाजपेयी की बात का संसद में अधिकांश सदस्यों ने समर्थन भी किया था.
60 के दशक में हिंदी भाषा को लेकर विवाद ने भी इस मांग को और ज्यादा हवा दे दी, मशहूर लेखक रामचंद्र गुहा के मुताबिक तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की समझदारी तथा अंग्रेजी को लेकर उनकी सोच के कारण यह देश बिखरने से बच गया था.
इस बार ये असंतोष 15वें वित्त आयोग के वित्त आवंटन को लेकर है. दरअसल अब तक 1971 की जनसंख्या के आधार पर राज्यों को वित्त आवंटन होता रहा है, लेकिन इस बार 2011 की जनसंख्या के अनुसार राज्यों को वित्त आवंटित करने का प्रावधान किया गया है.
14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट पर आधारित इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1971 की बजाय 2011 की जनगणना का इस्तेमाल करने की वजह से साल 2015-20 के दौरान आंध्र प्रदेश को लगभग 24,000 करोड़ रु. के, तमिलनाडु को 22,000 करोड़ रु. से अधिक, केरल को 20,000 करोड़ रु. से अधिक और कर्नाटक को लगभग 8,500 करोड़ रु. का नुक्सान उठाना पड़ेगा.
2011 की जनगणना के मुताबिक वित्त आवंटन होने से इसका लाभ उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, एमपी और जम्मू-कश्मीर सरीखे राज्यों को होगा. इसी वजह से दक्षिण भारतीय राज्यों के नेता इस प्रकार की मांग उठा रहे हैं.
***
संध्या द्विवेदी / मंजीत ठाकुर