बिहार चुनाव बहुत जल्द राष्ट्रीय राजनीति की धड़कन बनने वाला है. सवा साल की मोदी सरकार और अमित शाह की तथाकथित कुशल रणनीति की सबसे बड़ी परीक्षा और मोदी-विरोधी दलों की साझा ताकत की नुमाइश का सबसे बड़ा अवसर बिहार चुनाव बनने वाला है.
बिहार में 2010 के मुकाबले इस बार राजनीतिक स्थिति 360 डिग्री अलग है. तब जो साथ थे आज आमने-सामने हैं, तब जो आमने-सामने थे, आज साथ-साथ हैं. मोदी सरकार के यश और अपयश की लड़ाई का असली पैमाना बिहार के चुनावी नतीजे ही होने वाले हैं.
इस साल की शुरुआत में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और फिर कुछ बीजेपी नेताओं और मंत्रियों की बेवकूफाना बयानबाज़ियों और बदज़ुबानियों के सम्मिलित असर ने दिल्ली में बीजेपी की हार में योगदान दिया था.
हाल के सुषमा-ललित प्रकरण, वसुंधरा-ललित कांड और सबसे ताज़ा शिवराज व्यापम कांड ने भी बीजीपी के अपयश वाले खाते में इज़ाफा ही किया है. आरजेडी-जेडीयू में गठबंधन और नीतीश के मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित होने के बाद बड़ा सवाल ये है कि ये दो दल जो अब तक एक दूसरे के विरोध की राजनीति करते थे, इनके नेताओं के मिलन से क्या इनके वोटर भी आपस में मिलन के लिए राज़ी हो जाएंगे.
आंकड़ों पर नज़र डालें तो बिहार में यादव मतदाताओं का प्रतिशत कुल मतदाताओं में करीब 14 फीसदी है. क्या वो नीतीश से खफा हैं या उन्हें भी लालू की तरह नीतीश मंज़ूर हैं. या क्या वो अब भी लालू के साथ उसी परंपरागत मज़बूती के साथ बने हुए हैं. अभी हाल ही में वैशाली ज़िले के महुआ में लालू के बेटे तेजप्रताप की उम्मीदवारी के एलान के साथ ही यादव समाज के अंदर से ही उभरा जो विरोध देखने के मिला उससे ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है कि लालू का आधारभूत जनाधार खिसक गया है. यादव मतदाता लालू परिवार को उसी वफादारी के साथ स्वीकार करने को तैयार नहीं है जैसे पिछले दशक में उसने स्वीकारा था. भूपेंद्र यादव को बिहार का प्रभारी बनाकर, नंदकिशोर को विपक्ष का नेता बनाकर और हुकुमदेव और रामकृपाल यादव जैसे नेताओं को प्रमोट कर बीजेपी ने यादव मतदाताओं को रिझाने की अपनी रणनीति साफ कर दी है. रही सही कसर पप्पू यादव को एनडीए में शामिल कराकर पूरी करने की कोशिश होगी. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी भी अपने भाषणों के ज़रिए यादव मतदाताओं को अपने पाले में करने की कोशिश करते दिखे थे.
लोकसभा चुनाव और देश के बाकी दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटों के बिखराव से बीजेपी को फायदा होता रहा है. पर बिहार के चुनाव इस मायने में बिल्कुल विपरीत हैं. यहां हिन्दू वोटों का तो बिखराव है पर मुस्लिम वोट जनता परिवार के पक्ष में गोलबंद होता दिख रहा है. बिहार में इस मायने में फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों जैसी स्थिति है. बिहार के मुस्लिम बहुल किशनगंज, कटिहार, अररिया, सिवान, गोपालगंज जैसे जिलों में इस गोलबंदी के विपरीत क्या हिंदू मतदाताओं का भी जवाबी ध्रुवीकरण होगा ये बड़ा सवाल है. संभवत: इसी ध्रुवीकरण की संभावनाओं को देखते हुए बीजेपी हिंदुओं की दबंग जातियों- राजपूत, भूमिहार, यादव, कोइरी, पासवान और निषाद आदि को अपने पाले में लाने और उन्हें खुश रखने की हर संभव जुगत लगा रही है.
मुस्लिम वोटरों को लुभाने की कोशिशों के तहत ही कांग्रेस ने गुलाम नबी आज़ाद को बिहार चुनाव में सक्रिय किया है. आज़ाद बिहार जा भी चुके हैं और आने वाले दिनों में इनकी सक्रियता और बढ़ने वाली है. हालांकि बीजेपी ने भी मुस्लिम वोटों के लिए अपने दरवाज़े अभी बंद नहीं किए हैं. सुशील मोदी ने कुछ समय पहले कहा था कि बीजेपी भी ठीक-ठाक संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारेगी. ऐसे में साबिर अली, मोनाज़िर हसन, जमशेद अशरफ, शाहिद अली खान जैसे नेता बीजेपी के काम आ सकते हैं.
जैसा कि सर्वविदित है बिहार से एक बड़ी संख्या में लोग बिहार से बाहर रहते हैं पर इनकी बिहार की राजनीति पर पैनी नज़र रहती है. अकसर ये ओपिनियन मेकर का काम करते हैं. नीतीश-लालू की दोस्ती, बीजेपी की संभावनाओं, मांझी फैक्टर और एनडीए में पप्पू के शामिल होने की सूरत में ये लोग किसी एक गठबंधन के पक्ष या विपक्ष में हवा बनाने का काम कर सकते हैं. प्रवासी बिहारियों की इसी ताकत की पहचान कर अभी हाल ही में सूरत में अमित शाह ने वहां के प्रवासी बिहारियों से बिहार जाकर बीजेपी के कामकाज का प्रचार करने की अपील की थी. लोकसभा चुनावों में भी गुजरात में बसे बिहार के लोगों का बीजेपी ने अपने प्रचार में उपयोग किया था. बिहार में मतदान और मतगणना की तारीखों का भले ही अभी एलान बाकी है पर यकीन मानिए मतों की गिनती की जो भी तारीख मुकर्रर होगी वही साल 2015 की राजनीति का सबसे बड़ा दिन होगा.
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