पटना के रहने वाले 19 वर्षीय कार्तिक करण इन दिनों कुछ ज्यादा ही तनाव महसूस कर रहे हैं. कार्तिक ने एमबीबीएस में दाखिले के लिए 1 मई को नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (एनईईटी) दिया है. साथ ही वे चाहते हैं कि जुलाई में प्रस्तावित एनईईटी की दूसरे फेज की परीक्षा भी दें. उन्हें लगता है कि दूसरे फेज में कंपीटिशन बढ़ेगा और इससे एनईईटी का कट-ऑफ ज्यादा जा सकता है, क्योंकि हजारों छात्रों ने पहले फेज की परीक्षा नहीं दी होगी. इसको लेकर वे कड़ी मेहनत कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में जब आदेश दिया था, तब तत्कालीन केंद्र सरकार और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) एनईईटी को लागू कराने के पक्ष में थे. लेकिन पूर्व चीफ जस्टिस अल्तमश कबीर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ (जिसमें जस्टिस बिक्रमजीत सेन और एच.आर. दवे शामिल थे) ने इसे राज्य सरकारों, निजी कॉलेजों और अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों को प्रभावित करने वाला बताया था. हालांकि जस्टिस दवे ने अलग राय दी थी. लेकिन इस बार जस्टिस दवे की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने पिछली 28 अप्रैल को एनईईटी को दो फेज में कराने की मंजूरी दे दी. इसके साथ ही अदालत ने केंद्र सरकार की यह दलील भी नामंजूर कर दी कि इसी सत्र में नई परीक्षा शुरू करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं. पहले फेज का एनईईटी 1 मई, 2016 को हुआ और दूसरा 24 जुलाई को प्रस्तावित है.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई को निजी कॉलेजों की याचिका खारिज करते हुए साफ किया कि निजी कॉलेज अलग परीक्षा नहीं ले सकते और 9 मई को उसने राज्य सरकारों और अल्पसंख्यक संस्थानों की अलग परीक्षा की अनुमति खारिज कर दी. इस बार एनईईटी केवल हिंदी और अंग्रेजी में ली गई है, जिसका खासकर दक्षिणी राज्यों ने विरोध किया. हालांकि कोर्ट ने इसे छह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं—तमिल, तेलुगु, मराठी, असमी, बांग्ला और गुजराती—में भी कराने संबंधी केंद्र सरकार की याचिका पर विचार करना स्वीकार कर लिया है.
वहीं राज्य सरकारों के अपने-अपने सिलेबस और पैटर्न होते हैं, जिसकी वजह से भी छात्रों को परेशानी उठानी पड़ सकती है क्योंकि एनईईटी का पैटर्न सीबीएसई के सिलेबस पर आधारित है. हालांकि ज्यादातर राज्य एनईईटी पर रजामंद हैं और केंद्र सरकार भी सहमत नजर आ रही है लेकिन कुछ राज्य एक साल के लिए इसे टाले जाने की मांग कर रहे हैं. कई मामलों में राज्यों की शंकाएं एक दम निर्मूल नहीं हैं. जैसे, उत्तर प्रदेश में सीपीएमटी के जरिए एमबीबीएस के अलावा आयुर्वेद, यूनानी और तिब्बती मेडिकल पाठ्यक्रमों में दाखिला होता था. अब सीपीएमटी न होने की स्थिति में इन पाठ्यक्रमों के लिए अलग से इंतजाम करना पड़ेगा.
इसी विषय पर व्यापम के व्हिसल ब्लोवर डॉ. आनंद राय इंडिया टुडे से कहते हैं, ''राज्य और निजी कॉलेज नहीं चाहते कि देश में एक समान परीक्षा हो, इसके लिए फिलहाल वे इसे एक सत्र के लिए टालने की चाल चल रहे हैं. अगर प्रवेश परीक्षा पारदर्शी हो गई तो निजी कॉलेज लाखों रु. में मेडिकल सीट बेचने का धंधा नहीं कर पाएंगे. इससे मेडिकल पेशे की बड़ी सड़ांध खत्म होगी, लेकिन निजी कॉलजों के हित प्रभावित होंगे.''
उधर, केंद्र ने यह संकेत जरूर दिया है कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 16 मई को पत्रकारों से बातचीत में कहा कि देशभर में किस तरह परीक्षा आयोजित हो, यह देखना कार्यपालिका का का
इस पूरे घटनाक्रम के बीच कार्तिककरण जैसे छात्र एक तरफ तैयारी में जुटे हैं, तो दूसरी तरफ अंतिम फैसले पर निगाह जमाए हैं. पैटर्न बदलने से उन्हें कुछ दिक्कत तो जरूर है, लेकिन उन्हें एक बड़ी उम्मीद यह है कि शायद अब पहले की तरह पर्चा और मेडिकल सीटें न बिक पाएं.—साथ में आशीष मिश्र
सरोज कुमार