पिछली चौथाई सदी में हिंदुस्तानी संगीत नए बदलावों के साथ नए रूप में सामने आया है. पुरानी पीढ़ी ने नए लोगों को आगे आने का मौका दिया. नए दौर के संगीतकारों ने नए प्रयोग के साथ संगीत की नई पौध सजा-संवार कर पेश की. अलबत्ता बहस जारी है कि आज के सुर बेहतर हैं या नहीं. पर जो बात दिल को अजीज लग रही है वह यह है कि ये संगीतकार भविष्य को देख रहे हैं और उसी के अनुसार अपने सुर-संगीत-शैली को संवार रहे हैं, साजों को नया अंदाज दे रहे हैं, टेक्नोलॉजी और मीडिया का बेहतरीन इस्तेमाल कर रहे हैं.
घराना शैली
न तो ऑडियंस को कुछ समझ आ रहा था, न ही समीक्षकों को. जश्न का आगाज करते हुए बताया गया कि शाम के युवा कलाकार आगरा घराने से हैं. वे मंच पर आए, उन्होंने आगरा घराने के अंदाज में आलाप लिया, बोल ग्वालियर शैली में थे और गीत जयपुर घराने की किशोरी अमोणकर के भजन-सुर में घोलकर पूरा किया. आज शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाओं को ऐसी ही बहुरंगी सुर-लहरी में पेश किया जा रहा है.
शास्त्रीय संगीत गुरु-शिष्य परंपरा में पोषित होता रहा है. इधर गुरु ने सरगम की तान ली और उधर शिष्य ने दोहराया. संगीत का पाठ इसी तरह जबानी शुरू किया गया और ऐसे ही पूरा किया गया. शिष्य गुरु के साथ रहकर अपना खर्चा खुद उठाकर संगीत सीखा करते. घराने से बाहर किसी और से सीखना संभव नहीं था, न ही स्कूल या किताब या पेशेवर संगीत शिक्षक का चलन था. गुरु ने जिस प्रतिभा को चुना, वही संगीत सीख सकता था या फिर उनके सगे-संबंधी. फिर भी, पिछले 25 साल में संगीत की शिक्षा में घरानों की भूमिका हाशिए में जाती दिख रही है और मौजूदा स्थिति को देखते हुए लग रहा है कि आगे यह और भी पिछड़ती चली जाएगी. इसकी वजह सामाजिक भी हो सकती है या ऐतिहासिक और आर्थिक भी.
पुराने जमाने में संगीत के महारथियों को अपने ही राज्य में इधर-उधर काम मिल जाया करता था. समय बीतने के साथ ये फनकार स्थानीय शासकों के आमोद-प्रमोद के लिए उनके दरबारियों में शामिल किए जाने लगे. पर इसका नतीजा यह हुआ कि वे आम लोगों से कटते चले गए. उनके पास सुरों के हुनर के अलावा कुछ था ही नहीं. लिहाजा उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा इसी का रियाज और बारीकियों को मांजने में लगा दी थी. वह संगीत का शानदार युग था.
घराना गायिकी की परंपरागत खासियत और शैली में नई बुनावट उभरने लगी है. समय इशारा कर रहा है कि इसमें अभी और रंग भरे जाएंगे क्योंकि घराना शैली की एकरस आवाज और तान के फन को जिंदगी भर मांजते रहने और इसकी सीमाओं के अंदर ही अपने खास अंदाज को तैयार करने की बातें आज बेमानी होती जा रही हैं.
टेक्नोलॉजी का नित नया विकास संगीत के लिए नए कपाट खोल रहा है. पुराने जमाने में माइक्रोफोन या लाउडस्पीकर तो होते नहीं थे, इसलिए कलाकारों को अपने सुर को खास तरीके से रियाज में बांधना होता था, जिससे कार्यक्रम पेश करते समय ज्यादा से ज्यादा लोगों तक उनकी आवाज पहुंच सके. यही वजह थी कि धीमी आवाज में सुरों को साधने का चलन ही नहीं था. आज आधुनिक साधनों की मदद से फनकार अपनी आवाज ही नहीं बल्कि अपने स्वर में भी कई रंग भर सकते हैं. कहने का अर्थ है कि आज फनकार अपनी आवाज को सामान्य या मंद या बेहद मंद रखते हुए भी उसे जितने ऊंचे सुर में चाहे, उतने में पेश कर सकता है.
सार की सोच का सार यही है कि ''विभिन्न घरानों, विभिन्न गुरुओं की बेहतरीन विशेषताओं का समन्वय करो; संगीत का मिजाज बदल रहा है. यह आनंद से भरा अनुभव होगा. कुछ नया पेश करने के लिए विकास की प्रक्रिया से गुजरना ही होगा.” पुराना चलन बदल रहा है. शुद्ध सुरों या घरानेदार की परिभाषा पर बने रहना मुश्किल नजर आ रहा है. प्रतिस्पर्धा के इस दौर में फनकार शोहरत पाने की होड़ में कुछ भी करने पर आमादा हैं. किसे परवाह है?
पहले शागिर्द अपने गुरु के साथ रहते थे. पर आज यह परंपरा खत्म हो रही है. आज गुरु अपने शिष्यों के साथ संगीत सभाओं में नहीं जाते, जबकि पहले उस्ताद वहां जाकर तैयारी का जायजा लिया करते थे. वे गलतियों की ओर इशारा करने से कतई नहीं चूकते थे. आज उस्ताद खुद ही पूरी दुनिया घूम रहे हैं, ऐसे में भला शिष्यों पर ध्यान देने का समय कहां से निकालें? लेकिन जो समर्पित गुरु हैं, वे भी गलतियां दिखाने से परहेज करने लगे हैं. शायद कोई भी संबंधों में खटास नहीं चाहता. यही वजह है कि नया पेश करने के नाम पर समझौते होने लगे हैं.
सितारवादक नीलाद्रि कुमार पूछते हैं, ''हम सिर्फ संगीत से ही ऐसी अपेक्षा क्यों करते हैं कि यह पाक-साफ और अनुशासित रहे?” आज गुरु-शिष्य परंपरा ने प्रशिक्षण कैंप व्यवस्था को जन्म दिया है. पंडित जसराज, पंडित राजन साजन मिश्र, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जैसे गुरुओं के पास शिष्य जाते हैं, साथ रहते हैं, संगीत सीखते हैं और फिर चले जाते हैं. वैसे वाद्य कलाकार हमेशा एक जगह से दूसरे जगह के सफर पर ही होते हैं, इसलिए उनके छात्रों को अपने गुरुओं का सान्निध्य बहुत ज्यादा नहीं मिल पाता जबकि हुनर को निखारने के लिए यह जरूरी है. इससे स्थिति बिगड़ रही है.
आज सारे घरानों की चुनी हुई विशेषताओं का बहुरंगी मिश्रण पेश किया जा रहा है, इसे अलग करना संभव नहीं है. किसी उभरते हुए कलाकार की पहचान में चार चांद लगाने के लिए 'घराना’ प्रतिष्ठा और शैली के तौर पर ओढ़ा जा रहा है, भले उसका उस घराने से दूर का भी नाता न हो या उसके अंदाज में घरानेदार की कोई लौ मौजूद न हो. इस जेट युग में गुरु से सीखने का धीरज और एकाग्रता खत्म हो गई है. बस कैसेट सुनो, कुछ अच्छी चीजों को यहां-वहां से उठाओ और पैबंद/सीवन लगाकर आलापों के गोले तैयार करो और बरसाना शुरू करो. संगीत सिखाने के रिवाज भी बदल गए हैं. बहुत-से ऐसे वाद्य कलाकार हैं जिनके शिष्यों को अपने गुरुओं की बेहतरीन कला को सीखने को कड़ी मेहनत करनी होती है, पर टेक्नोलॉजी की मदद उन्हें मिली हुई है. छात्र पाठ रिकार्ड करते हैं और घर ले जाते हैं. पर यह देखना बाकी है कि क्या यह रिवाज महारथियों को जन्म दे रहा है?
गुरुओं के पास रहते हुए वर्षों रियाज कर अपनी आवाज और संगीत शैली को निखारने के बाद गुरु की अनुमति लेकर मंच पर प्रस्तुति के लिए बैठने वाली पीढ़ी की जगह एक ऐसी पौध पनप रही है जो एक अनौपचारिक माहौल में व्यक्तिगत प्रशिक्षण ले रही है. संगीत स्कूलों या आधुनिक गुरुकुल के परिसरों में उत्साह पंख फैलाए उड़ान भर रहा है. भला हो इन टैलेंट शोज का, सभी अपने जीवन में कुछ बेहद नायाब कर देने के लिए लालायित हो रहे हैं और वे कैसे इसे हासिल कर पाएंगे? पहले उन्हें शास्त्रीय संगीत की बुनियादी शिक्षा लेनी होगी और उसके बाद उन्हें टैलेंट शो में जाना होगा. इतिहास में बदलाव की दस्तक सुनाई दे रही है.
फ्यूजन
पुरानी पीढ़ी से उलट आज की नई पौध प्रयोग करने, नई विधाओं को आजमाने और अपना दायरा बढ़ाने से नहीं डरती, चाहे वह डांसर हो, फनकार हो या वादक. माध्यम अलग-अलग हो सकते हैं. मसलन, हाल ही दिल्ली में एक समारोह में नीरेन सेनगुप्ता, अलका रघुवंशी, श्रीधर अय्यर, मनीषा गवाड़े और संजय भट्टाचार्य की पेंटिंग को साडिय़ों, स्टोल और टाइयों पर प्रिंट किया गया. उनकी कृतियों को क्रेप साडिय़ों पर छापा गया था और उन्हें फैशन शो के जरिए पेश किया गया जिसमें माधवी मुद्गल, उमा शर्मा, कौशल्या रेड्डी जैसी नृत्यांगनाएं और मधुप मुद्गल, शुभेंद्र राव, अभय रुस्तम सोपोरी जैसे वाद्य कलाकार रैंप पर चले. और जानते हैं शो स्टॉपर कौन था! महान नर्तक पंडित बिरजू महाराज. उसके पहले ध्रुपद गायक वसीफुदीन डागर और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया भी फैशन शोज में कार्यक्रम पेश कर चुके हैं.
आज रियलिटी शोज या फिल्म शोज में वादकों या डांसरों का जज बनना बुरा नहीं माना जाता. बदल रहे समय की आहट स्पष्ट सुनाई दे रही है और कलाकार भी खुश हैं कि उन्हें अपनी ऑडियंस तक पहुंचने का मौका मिल रहा है. उनकी जीवनशैली भी अलग रूप ले रही है. आज उन्होंने खुद को संगीत की बारहखड़ी सिखाने की भूमिका में बांध नहीं रखा है.
वे दुनिया घूम रहे हैं, विदेशी विश्वविद्यालयों में लेक्चर दे रहे हैं, कार्यक्रम पेश कर रहे हैं. उनका दायरा बढ़ गया है. वे सिर्फ मंच पर अपनी कला पेश करते नहीं दिखते, बल्कि पेज 3 पर भी उनसे मुलाकात हो जाती है. आज किसी लाउंज में शराब के दौर के बीच हल्के-फुल्के शास्त्रीय संगीत की पेशकश से कयामत नहीं आती.
कोलैबोरेशन और बैंड
संगीत महारथी तो बुलंदियों पर हैं लेकिन नई पीढ़ी अब भी शुद्ध शास्त्रीय संगीत सभाओं की बाट जोह रही है. ऐसे में उभरते वाद्य कलाकार या नर्तक-नृत्यांगनाएं क्या करें भला? ऐसी असमंजस की स्थिति में ही उन्होंने एक नायाब तरीका निकाला है. वे विविध शैलियों के वादकों के साथ मिलकर संगीत के एक नए बहुरंगी स्वरूप को जन्म दे रहे हैं, चाहे यह हिंदुस्तानी हो या पश्चिमी; या फिर बैंड बना रहे हैं.
मसलन कमाल साबरी की सारंगी फंक, नीलाद्रि कुमार का सितार फंक. बस इतना है कि आप अपने अंदर अकुलाते रचनाकार को किस हद तक उडऩे के लिए आजाद करते हैं. हालांकि कोलैबोरेशन की बात नामी संगीतकारों के लिए थोड़ी अटपटी लगती है. विख्यात संतूरवादक पं. शिवकुमार शर्मा कहते हैं, ''देखिए, संगीत तो बदलेगा, बेशक. लेकिन ईमेल पर संगीत के कोलैबोरेशन की बात मेरी समझ से परे है.”
टेक्नोलॉजी
टेक्नोलॉजी के विकास के कारण आज संगीतकार दूसरे वाद्य कलाकारों के पास बैठे बगैर संगीत रच रहे हैं. मेल के जरिए धुन उनके पास पहुंच जाती है, जिससे वे अपनी-अपनी तैयारी कर लें और जब आखिरी रिकार्डिंग का वक्त आता है तो सब स्टुडियो में इकट्ठे हो जाते हैं. ऐसा पहले कभी सोचा भी नही जा सकता था. वाद्य कलाकार पहले अपने हुनर को दिखाने के लिए नेट का इस्तेमाल नहीं करते थे. आज हर वाद्य कलाकार की अपनी वेबसाइट है जिसमें उन्होंने अपने बारे में सारा ब्योरा दे रखा है. यह एक ऐसा सशक्ïत साधन है, जिसके जरिए आप अपनी काबिलियत पूरी दुनिया को दिखा सकते हैं. हमारे जमाने के मूल्यों में आमूल बदलाव दिखाई दे रहे हैं. जिंदगी तेजी से भाग रही है और इसी के साथ समाज, संस्कृति और आर्थिक पहलुओं में गहरा परिवर्तन दिख रहा है. कौन आश्वस्त कर सकता है कि घरानों की महक बरकरार रहेगी? आगत की कल्पना सहमा दे रही है कि बदलाव की आंधी सब कुछ मिटा न दे. दिल थामकर सुनिए!
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