अनुभव सिन्हा
स्मृतिः ऋषि कपूर 1952-2020
यह स्वीकार करना मेरे लिए तकरीबन नामुमकिन है कि ऋषि कपूर इतनी जल्दी गुजर गए, पर उनकी सबसे पहली याद मेरे जेहन में उमड़ रही है. मैं आठ साल का था जब एक सिनेमाघर में बॉबी (1973) देखने गया था. तब वे 'लवरबॉय' थे और वह छाप कुछ वक्त तक बनी रही. उस जमाने की उनकी जो यादें मेरे जेहन में हैं, वे उनके अच्छे अदाकार होने की हैं जिन्होंने ज्यादातर खुशमिजाज किरदार निभाए. पर प्रेम रोग (1982) ने मुझ पर गहरा असर छोड़ा, जिसमें उन्होंने एक अलहदा किरदार पर्दे पर उतारा था.
बॉम्बे में 30 साल से होने और यहां की ज्यादातर मशहूर शख्सियतों से किसी पार्टी में मिल लेने के बावजूद, अजीब बात कि मैं ऋषि जी से कभी नहीं मिला था. जब मैंने मुल्क (2018) लिखकर खत्म की, मैं उन्हें इस फिल्म में लेना चाहता था, पर हमारा किसी भी तरह का कोई जुड़ाव नहीं था. फिर एक दोस्त ने मुलाकात तय करवाई और फिल्म की कहानी सुनाने के इरादे से मैं उनसे मिलने गया.
मैं जानता था कि मुल्क के लिए मुझे उनकी जरूरत थी. मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था, इसलिए मैं घबराया हुआ था. मैं ढाई घंटे कहानी सुनाने के लिए तैयार था और उन्होंने मुझे देखा और कहा, ''तुम मुझे ये पूरी चीज सुनाने वाले हो?'' उन्होंने कहा कि वे 15 मिनट में छोटा करके इसे सुनना चाहते थे. उन्होंने कहा, ''डायरेक्टर लिख भर देते हैं कि हमें सेट पर क्या करना है और हम वहीं पर कर देते हैं.'' जब मैंने उन्हें कहानी सुनाई तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ''इसमें कोई हीरो नहीं है.'' मैंने कहा, ''आप हो, मैं हूं और स्क्रिप्ट है.''
उस पड़ाव में वे अहम किरदार निभा रहे थे, पर उन फिल्मों में पहले से एक नायक था. उनके लिए मुल्क बनाने का पूरा तजुर्बा हैरानी भरा था. हमने पूरी फिल्म 28 दिनों में शूट की और आखिरी दिन उन्होंने मुझे अपनी वैन में बुलार कहा, ''यह फिल्म शायद अभी पूरी नहीं हुई है.'' उन्होंने जोर देकर कहा कि वे उनके हिस्से की शूटिंग के लिए और 10 दिन देते हैं. फिर वे मेरे दफ्तर में धमक पड़ते और वैसा ही बर्ताव करते जैसे वे थे—ठेठ ढर्रे के पंजाबी दबंग. मैंने उनके चाचा शम्मी कपूर के साथ काम किया था, जो उनसे भी बड़े दबंग थे, लिहाजा मैं जानता था कि उन्हें कैसे संभालना है. मेरे लिए बयान कर पाना मुश्किल है कि हमें कितना ज्यादा मजा आता था.
वे ऐसे शख्स थे जिन्होंने हमेशा वक्त के साथ खुद को बदला. जब आप ऐसा करते हैं और कामयाबी के किसी निश्चित विचार के साथ अटककर नहीं रह जाते, तब आप खुद को नए सिरे से ढाल पाते हैं. इस मामले में अमिताभ बच्चन तुलना के एक बिंदु हो सकते हैं. उन्हीं की तरह ऋषि कपूर भी निर्भीक और बेधड़क थे. उन्होंने कभी अपनी किसी पिछली सूरत-सीरत की याद नहीं दिलाई और सांचों को तोडऩे से कभी नहीं कतराए. वे उत्साहपूर्ण नई चीजों में हाथ आजमाना चाहते थे. इससे वे अभिनेता के तौर पर कहीं ज्यादा वक्त तक जिंदा रह सके. जब भी नई पीढ़ी आती है, हर बार नियमों में फेरबदल कर देती है, पर चिंटूजी जानते थे उनके मुताबिक कैसे चला जाता है.
वे अक्सर लोगों को दो श्रेणी में बांटते थे—अच्छा और बुरा. कभी कोई बीच की जगह नहीं होती थी. वे ऐसे लोगों की तलाश में रहते जिनके साथ वे हो सकें. धार्मिक आस्थाएं उनके लिए कभी अहम नहीं रहीं और यही धर्मनिरपेक्षता का बुनियादी विचार है. समर्पित धर्मनिरपेक्ष होते हुए भी चिंटूजी बेहद जुनूनी थे. मिसाल के लिए, जो भी उनके मन में आता, वे ट्वीट कर देते. अगर मैं जाता और उनसे पूछता, ''क्या चिंटूजी, क्या लिखा है आपने?'', तो वे महज कंधे झटककर कहते, ''ऐसा ही तो है, हमने बस लिख दिया.''
ट्विटर पर उनकी शख्सियत उनकी असल जिंदगी की शख्सियत से मिलती-जुलती थी. उन्होंने चीजों को गहराई से समझने में वक्त जाया नहीं किया; उन्होंने तो बस जो दिल में आया कह दिया. उनके जैसे लोगों को समझना आसान नहीं, पर एक बार आप उन्हें समझ लेते हैं, तो आप पाएंगे वे अद्भुत, पारदर्शी और ईमानदार हैं. वे कभी छल-प्रपंच नहीं करते. ट्विटर पर उनकी टाइमलाइन देखिए. वे किसी को खुश या आहत करने की कोशिश नहीं कर रहे थे. वे वही थे, जो वे थे.
अनुभव सिन्हा ने फिल्म मुल्क में ऋषि कपूर का निर्देशन किया था.
श्रीवत्स नेवतिया से बातचीत पर आधारित
***
aajtak.in