कुल्हड़ में जीवन का कौतुहल

'कुल्हड़ में वोदका' या कहिए कविता. पुस्तक के कुल्हड़ में जीवनानुभवों की वोदका. रंजना त्रिपाठी aajtak.in की नियमित पाठक हैं और समकालीन कवयित्रियों में नया लेकिन प्रतिभाशाली नाम भी. रंजना की इन कविताओं को एक सिलसिले से पढ़िए.

Advertisement
Book Cover Book Cover

आजतक डेस्क

  • नई दिल्ली,
  • 09 अगस्त 2015,
  • अपडेटेड 7:12 PM IST

'कुल्हड़ में वोदका' या कहिए कविता. पुस्तक के कुल्हड़ में जीवनानुभवों की वोदका. रंजना त्रिपाठी aajtak.in की नियमित पाठक हैं और समकालीन कवयित्रियों में नया लेकिन प्रतिभाशाली नाम भी. रंजना की इन कविताओं को एक सिलसिले से पढ़िए. लगेगा कि इस संग्रह का नाम 'कुल्हड़ में वोदका' नहीं होना था. 'कुल्हड़ में कोलाज' होना था. जीवन के विभिन्न रंगों और अनुभवों का कोलाज. हर अनुभव का रंग. हर रंग के अनुभव. जीवन में जीवन खोजने की जिज्ञासा. तो कही मिले हुए जीवन में अनगिनत प्रश्नों की पड़ताल. एक छटपटाहट. एक कौतुक. और भीतर, बाहरी संसार को जानने का कोलाहल.

Advertisement

रंजना की कविता उनके गद्य से यात्रारंभ करती है. ऐसा गद्य जो अपने आप में एक कविता है: 'मैं प्रेम से निर्मित, प्रेम में जीने वाली एक नन्हीं सी लड़की हूँ. जो जीती है कई-कई लड़कियों में. मैं सचमुच नहीं समझ पाती कि मैं अपना परिचय किस तरह दूँ. मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? कहाँ से आई हूँ ? कहाँ जाना चाहती हूँ ? मैं कुछ नहीं जानती. मैं एक मामूली सी लड़की जो कभी ख़ास नहीं बनना चाहती.'

सांसारिक हवाओं से जूझता कवि-मन संग्रह में अपनी बात भी प्रश्न से ही शुरू करता है : 'क्या यह मेरा युग है / जो हज़ार-हज़ार सदियों के / विषाद से अभिषिप्त नज़र आता है ?' और या फिर स्वयं से ही किये गए अनगिनत सवाल : 'मैं कौन हूँ ? आवाज़ के लहजे में / हरियाली सी झूमती / घास सी मुस्कुराती / कनेर का एक फूल हूँ मैं / मैं कौन हूँ ?'

Advertisement

निराशा का अपना नाद होता है. एकांत का अपना. और इसी तरह अकेलेपन की अपनी ही पीड़ा, अपने ही प्रश्न. जीवन के कोलाज में एक पृष्ठ इस अरेलेपन के नाम दर्ज होता है. सबके बीच रहते हुए एक कविता अकेलेपन का भी स्वर भी जागृत करती है : अकेलापन / मुझे भाती हैं / अकेली रातें /अकेले दिन / अकेली सुबहें / अकेला कमरा / अकेली बालकनी / अकेली सीढ़ियाँ / अकेली दीवारें / अकेला कमरा / अकेली रातें... और अकेली सिसकियाँ. स्री का वह अकेलापन और वह सिसकियाँ जो उसके अपने भीतर के संसार का हिस्सा हैं. यह उसके अकेलेपन की सिसकियाँ हैं और सिसकियों का अकेलापन.

आरंभ में 'कुल्हड़ में कोलाज' का जि‍क्र हुआ था. प्रमाण यहां आ रहा है. यहां जहां अकेलेपन की बात करते-करते अचानक स्री पुस्तक के एक पृष्ठ पर आक्रमक स्वर में भूटती है और कहती है : 'शरीर पाने से बेहतर है / चाँद पाने की चाहत / तुम कहते हो प्रेम / और सोचते हो सेक्स / जिसकी अपनी कोई भाषा नहीं / सिवाय सन्नाटे के.'

इसी तरह की अनगिनत वर्जनाएं. परम्पराएं. कौतुहल. चुप्पी के सवाल. मां. लड़कियां. लड़कियों के परिधान. स्त्री मन की असंख्य झटपटाहटें. और रंजना त्रिपाठी का एक कविता-संग्रह - कुल्हड़ में वोदका. स्री मन की और उसकी भीतरी परतों की एक पूरी यात्रा. जो 96 पृष्ठों में तो समेटी नहीं जा सकती लेकिन रंजना ने कोशिश की है. एक ऐसी कोशिश जो काबिल-ए-तारीफ है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement