इक्कीस मार्च की शाम 5 बजे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक फोन किया. उन्होंने पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री से कहा, ''अमरिंदर, मैं चाहती हूं कि आप अमृतसर से चुनाव लड़ें. मुझे लगता है कि इस काम के लिए आप सबसे सही व्यक्ति हैं. आपको कुछ भी चिंता करने की जरूरत नहीं. मैं हर तरह से आपकी मदद करूंगी.” सड़क के रास्ते दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नेशनल हाइवे-1 पर अपनी गाड़ी किनारे खड़ी की और तुरंत हां कर दी. लेकिन वे अचानक किए गए इस फोन से काफी हैरान थे. सोनिया गांधी का इस तरह अनुरोध करना असामान्य बात थी, खासकर तब, जब उन्होंने तीन हफ्ते पहले उनसे मुलाकात करके लोकसभा चुनाव लडऩे की अनिच्छा जताई थी और सोनिया ने अपनी सहमति भी दे दी थी.
दो दिन पहले 19 मार्च को सोनिया के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल ने जब अमरिंदर से इस संभावना पर चर्चा की थी तो उन्होंने चुनाव लडऩे से मना कर दिया था क्योंकि उन्हें सोनिया की मंजूरी मिल चुकी थी. उन्होंने कुछ टीवी इंटरव्यू में भी अपनी अनिच्छा जता दी थी. इस फोन के करीब घंटे भर बाद राहुल ने भी उन्हें मोबाइल पर संदेश भेजा: ''धन्यवाद, आप खड़े होंगे और लड़ेंगे.”
पार्टी के बहुत-से वरिष्ठ नेताओं की राय में 10 जनपथ से सीधे किए जाने वाले फोन कांग्रेस के प्रथम परिवार की नई कोशिश का संकेत हैं, जिसमें यह परिवार अपनी रणनीति की एकजुटता का संकेत दे रहा है: सोनिया और उनकी संतान राहुल और प्रियंका अपनी अलग-अलग कोशिशों के बावजूद मिलकर काम कर रहे हैं, ताकि सामूहिक शक्ति पैदा कर सकें.
सोनिया ने भले ही 2014 के आम चुनाव की कमान बेटे राहुल को सौंप दी हो, लेकिन वे अब भी पार्टी की अध्यक्ष हैं और पार्टी पर उनका पूरा नियंत्रण है. इस तरह वे ही सर्वेसर्वा हैं. कांग्रेस के लोग कहते हैं कि संकेत साफ है: जरूरत पडऩे पर वे ही असली बॉस हैं. इस चुनाव में वरिष्ठ नेताओं को खड़ा करने से लेकर अल्पसंख्यकों को यह संदेश देने तक कि धर्मनिरपेक्ष वोटों को बंटने मत दो, सोनिया वह सब कुछ कर रही हैं, जो पार्टी अध्यक्ष के तौर पर उनसे उम्मीद की जाती है.
और अब पार्टी के लिए तुरुप का पत्ता समझी जाने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा भी मैदान में आ गई हैं. इस चुनाव में उन्होंने धीरे-धीरे कई भूमिकाएं ले ली हैं. राहुल के अदृश्य मैनेजर और प्रमुख सलाहकार के तौर पर और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि वे राहुल की नई कांग्रेस और पार्टी के पुराने दिग्गजों के बीच पुल का काम कर रही हैं. कांग्रेस में यह भूमिका लंबे समय से गायब थी और पार्टी के पतन की मुख्य वजहों में यह भी एक बड़ी वजह थी.
इसके अलावा प्रियंका परिवार का सुरक्षित गढ़ समझे जाने वाले अमेठी और रायबरेली में भी बहुत महत्व रखती हैं. कांग्रेस के अपने अनुमानों के हिसाब से पार्टी अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करने जा रही है, ऐसे में इस परिवार के पास भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को रोकने में राहुल की मदद करने के सिवाए कोई चारा नहीं है.
सोनिया हर मर्ज की दवा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सचिव पी.पी. माधवन ने 21 मार्च को अमरिंदर सिंह को फोन करने के बाद लगातार दो दिनों तक कई फोन घनघनाए.
सोनिया ने पूर्व केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी को पंजाब के आनंदपुर साहिब से पर्चा भरने को कहा. प्रदेश विधायक दल के नेता सुनील जाखड़ से सीमावर्ती क्षेत्र फिरोजपुर में चुनाव प्रचार शुरू करने को कहा गया. कांग्रेस अध्यक्ष ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद से जम्मू-कश्मीर के ऊधमपुर से चुनाव लडऩे को कहा और राहुल से कहा गया कि वे मधुसूदन मिस्त्री के लिए कड़े मुकाबले की सीट का चयन करें. वे अब वडोदरा से नरेंद्र मोदी के खिलाफ मैदान में हैं.
चुनावी मैदान से आ रही खबरों से यही पता चलता है कि दिग्गज या लोगों में विशेष रसूख रखने वाले नेताओं को उतारने की सोनिया की रणनीति का असर दिखने लगा है. 28 मार्च को अमरिंदर के अमृतसर पहुंचने से पहले ही उनके नामांकन की खबर से ही सत्तारूढ़ अकाली दल-बीजेपी खेमे में सन्नाटा पसर गया. इससे पहले वहां पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के लिए बेहद आसान चुनाव मानकर खुशियों का आलम था.
ऐसे में सोनिया की रणनीति को कई लोग सयानी चाल मान रहे हैं. एक कांग्रेस महासचिव के मुताबिक, अमरिंदर को प्रत्याशी बनाने से पार्टी को उम्मीद है कि जेटली (जिन्हें अमरिंदर अपने भाषणों में ''दिल्ली से आए हमारे सम्मानित मेहमान” कहते हैं) 30 अप्रैल तक अमृतसर में ही बंध जाएंगे और तब तक कुल नौ में से सात चरणों के चुनाव संपन्न हो जाएंगे. जेटली अपनी पार्टी के प्रमुख रणनीतिकार हैं और केंद्र में उनकी गैर-मौजूदगी से पार्टी को नुकसान हो सकता है.
सोनिया ने भ्रष्टाचार के दाग होने के बावजूद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को नांदेड़ और पवन कुमार बंसल को चंडीगढ़ से टिकट दिलवाया. उन्हें टिकट न देने का मतलब जुर्म स्वीकार कर लेना होता जबकि अभी दोनों ही मामले लंबित हैं. मार्च में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी ने आपराधिक पृष्ठभूमि के 35 प्रतिशत उम्मीदवार उतारे हैं जबकि कांग्रेस की सूची में ऐसे उम्मीदवार 27 प्रतिशत ही हैं.
अगर राहुल की चलती तो चव्हाण को टिकट नहीं मिलता. बताते हैं, सोनिया ने कांग्रेस चुनाव समिति को कहा कि मराठा वोट बैंक को आकर्षित करने और विलासराव देशमुख के निधन के बाद नए नेता को विकसित करने के लिए चव्हाण को टिकट देना जरूरी है. इस चतुराई भरी पहल से चव्हाण के बागी बनने की संभावनाओं को खत्म कर दिया गया. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि चंडीगढ़ में बंसल को खड़ा करने से कांग्रेस मुकाबले में लौट आई है. वहां उनका मुकाबला दो बाहरी उम्मीदवारों बीजेपी की किरण खेर और आम आदमी पार्टी (आप) की गुल पनाग से है.
कांग्रेस के घोषणापत्र जारी करने के कार्यक्रम में 26 मार्च को जब एक पत्रकार ने चव्हाण को टिकट देने के बारे में सवाल किया तो सोनिया तपाक से बोलीं, ''मैं जवाब दूंगी.” और कहने लगीं, ''जहां तक हम जानते हैं, चव्हाण को चुनाव लडऩे से कोई कानून नहीं रोकता.” उनके तीखे जवाब और आक्रामक तेवर ने साफ संदेश दे दिया कि कई कांग्रेस नेता ऐसे हैं जिनका पार्टी नेतृत्व न सिर्फ बचाव करेगा, बल्कि पार्टी सफाई के नाम पर जिताऊ प्रत्याशियों को कतई कुर्बान नहीं करेगी.
यह रवैया राहुल के तरीके से अलग है. यही रवैया सहारनपुर में प्रत्याशी इमरान मसूद के मामले में भी अपनाया गया. मोदी पर टिप्पणी के लिए 29 मार्च को उनकी गिरफ्तारी के बावजूद कथित तौर पर सोनिया ने पटेल के जरिए उत्तर प्रदेश इकाई को संदेश भिजवाया कि उसी दिन सहारनपुर में राहुल की रैली रद्द नहीं होगी. मसूद की गिरफ्तारी से सहानुभूति की लहर पैदा हो गई है. सहारनपुर सीट में 42 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है और सहानुभूति लहर का असर बगल की सीटों पर भी पड़ सकता है.
मसूद की गिरफ्तारी के दिन ही शाम 4 बजे के आस-पास राहुल सहारनपुर में मंच पर मसूद की पत्नी के साथ थे. राहुल ने अपने भाषण में कहा कि मसूद ने यह टिप्पणी उस वक्त की थी जब वे समाजवादी पार्टी में थे और कांग्रेस का इससे कोई लेना-देना नहीं है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक, स्थानीय सूचनाओं पर यकीन करने की सोनिया की रणनीति से स्थिति कांग्रेस के पक्ष में गई है.
कांग्रेस नेताओं की मानें तो ज्यादा से ज्यादा पार्टी प्रत्याशी मांग कर रहे हैं कि सोनिया उनके ह्नेत्र में प्रचार के लिए आएं. उन्होंने 30 मार्च को दिल्ली से प्रचार अभियान की शुरुआत की. मां और बेटे के राजनैतिक नजरिए और तरीके पर पार्टी के एक महासचिव कहते हैं, ''वे हमेशा अपनी कार्रवाइयों और संकेतों से छाप छोड़ती हैं जबकि राहुल व्यापक परिदृश्य को ध्यान में रखकर और सैद्धांतिक बातें करते हैं. दोनों की अपनी-अपनी शैली है.”
प्रियंका तार जोडऩे वाली जब समय और समर्थन दोनों ही कांग्रेस के हाथ से फिसलते दिख रहे हैं, प्रियंका ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. जब से राहुल गांधी को पार्टी के चेहरे के तौर पर पेश किया गया, प्रियंका ने न सिर्फ प्रचार अभियान बल्कि बैकरूम ऑपरेशन की पूरी कमान संभाल रखी है. प्रियंका के नजदीकी सूत्रों ने इंडिया टुडे से बातचीत में इसकी तस्दीक भी की. एक सहयोगी का कहना था, ''इस परिवार (गांधी) के पास और कोई विकल्प नहीं है.
राहुल के पास सब कुछ देखने का समय नहीं है. एक हफ्ते के भीतर वे देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित सभाओं को संबोधित करने में व्यस्त हो जाएंगे. ऐसे में उसी इनसान को जिम्मेदारी दी जा सकती है जिस पर राहुल पूरी तरह भरोसा कर सकें और जो उनकी गैरहाजिरी में फैसले ले सके.”
इसके बाद भी गांधी परिवार और पार्टी, दोनों ही इसे सार्वजनिक करने या इसके बारे में बातचीत से परहेज कर रहे हैं. इसीलिए अहम कांग्रेसी नेताओं और चुनाव प्रचार से लेकर रणनीति बनाने तक से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों के साथ प्रियंका की बैठकें उनके निवास, 35 लोधी एस्टेट और कांग्रेस कार्यालय, 24 अकबर रोड को छोड़कर विभिन्न जगहों पर हुआ करती हैं.
प्रियंका अकसर एक वरिष्ठ पार्टी नेता से राय-मशविरा करती हैं. इस नेता ने बताया, ''बहुत बार ऐसा होता है कि वे सुबह 10 बजे ही 12 तुगलक लेन (राहुल के सरकारी आवास) पहुंच जाती हैं और आधी रात तक बैठकें करती रहती हैं. पार्टी और अपने भाई की चुनावी संभावनाएं बेहतर करने में वे जी-जान से जुटी हैं. पार्टी के नारे से लेकर किस जनसभा में राहुल किन मुद्दों को उठाएंगे, उनका फैसला अंतिम होता है.”
कभी वे राहुल के सरकारी आवास की बजाए नई दिल्ली के राजेंद्र प्रसाद रोड पर जवाहर भवन में राजीव गांधी फाउंडेशन (आरजीएफ) के दफ्तर या 6 महादेव रोड स्थित ऑफिस में बैठक करती हैं जहां परिवार के निर्वाचन क्षेत्रों अमेठी और रायबरेली के वोटर अपनी चिंताएं लेकर पहुंचते हैं.
उत्तर प्रदेश में 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति के बाद प्रियंका ने छोटा-सा कदम बढ़ाया था जो अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित रहा. वे इन दो लोकसभा क्षेत्रों में नियमित तौर पर जाने लगीं. पिछले छह महीने में उन्होंने अमेठी और रायबरेली में स्थानीय स्तर पर संगठन को पूरी तरह से बदल डाला है. ब्लॉक अध्यक्षों और संयोजकों से बातचीत और निजी तौर पर छानबीन के आधार पर उन्होंने पार्टी पदाधिकारी नियुक्त किए हैं.
अब इन दो लोकसभा क्षेत्रों के दायरे से बाहर निकल वे बड़ी भूमिका में आ गई हैं. एक केंद्रीय मंत्री ने बताया, ''सब कुछ योजना के अनुसार हो, यह सुनिश्चित करने के लिए वे उन राज्यों के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों और प्रदेश पार्टी अध्यक्षों से बातचीत करती हैं जहां राहुल को जाना होता है.” विभिन्न नेताओं से बैठक और बातचीत की व्यवस्था का जिम्मा राहुल के भरोसेमंद सहयोगी कनिष्क सिंह को सौंपा गया है. लोकसभा चुनाव की तैयारियों के विभिन्न चरणों, रणनीति तैयार करने से लेकर उसे जमीन पर उतारने तक प्रियंका पर्दे के पीछे से सशक्त भूमिका निभा रही हैं.
उनके सहयोगी बताते हैं, ''अगर राÞल सबसे ज्यादा किसी की सुनते हैं तो वे प्रियंका हैं.” दिल्ली में 17 जनवरी को एआइसीसी सत्र में राहुल के आक्रामक भाषण के मसौदे की रूपरेखा प्रियंका ने ही तय की थी. प्रियंका, राहुल, सोनिया, अहमद पटेल और कनिष्क ने भाषण को बार-बार पढ़ा और शुरुआती मसौदे में करीब 15 जगह बदलाव किए. सत्र से दो दिन पहले राहुल ने 12-तुगलक लेन में देर रात प्रियंका के सामने भाषण की रिहर्सल की तो प्रियंका ने उन्हें भाषण के समय भावपूर्ण, साथ ही आक्रामक अंदाज रखने का सुझाव भी दिया था. उसके बाद से ही वे ख्याल रखती हैं कि किस जनसभा में कौन से मुद्दे उठाने हैं, इसकी जानकारी राहुल को पहले दे दी जाए.
ऐसे भी मौके आए जब कांग्रेस का अंदरूनी राज खुल सकता था, जैसे 7 जनवरी को. प्रियंका ने राहुल की गैरहाजिरी में उनके घर पर पार्टी नेताओं के साथ बैठक की. मौजूद नेताओं में अहमद पटेल, मिस्त्री, जनार्दन द्विवेदी, अजय माकन और आरजीएफ के मोहन गोपाल थे. सूत्रों के मुताबिक, 8 दिसंबर को हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी को मिली शिकस्त के बाद प्रस्तावित बदलावों को दरकिनार करने की राहुल की योजना पर कुछ ''वरिष्ठ पार्टी नेताओं ने गंभीर आपत्ति जताई थी” और इसी वजह से यूरोप गए राहुल ने वापसी की तारीख आगे खिसका दी.
अब वरिष्ठ नेताओं और राहुल के बीच मतभेदों को दूर करने का काम प्रियंका पर छोड़ दिया गया. असहमति के बीच सहमति बनाने में प्रियंका को कहीं अधिक परिपक्व माना जाता है. फिर भी, इस बैठक की खबर बाहर फैलने से कांग्रेस के होश उड़ गए और पार्टी में अफरातफरी का माहौल बन गया. कांग्रेस के एक नेता और केंद्रीय मंत्री कहते हैं, ''पार्टी में प्रियंका के लिए एक स्वाभाविक सहमति का माहौल है. अगर पार्टी मामलों में उनकी बढ़ती सक्रियता की बात लीक होती है तो उनके लिए बड़ी भूमिका की मांग खड़ी हो सकती है जो राहुल के लिहाज से ठीक नहीं होगा.”
इससे पहले उस बैठक में शामिल होने से जनार्दन द्विवेदी सिरे से इनकार कर चुके थे. जब उन्हें पता चला कि टीवी कैमरों ने उन्हें 12-तुगलक लेन से निकलते समय कैद कर लिया है, तो उन्हें बयान जारी करना पड़ा कि ''प्रियंका कांग्रेस की सक्रिय राजनैतिक कार्यकर्ता हैं और वे लंबे समय से पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलती रही हैं. अगर वे पार्टी नेताओं से मिलती हैं तो इसमें चौंकने वाली बात क्या है?” द्विवेदी के बयान का मर्म पार्टी के भीतर प्रियंका के बढ़े कद की ही पुष्टि है.
पार्टी की चुनावी रणनीति से जुड़े नौजवान नेता प्रियंका की सक्रियता के बारे में कहीं खुलकर बातें करते हैं. प्रियंका की नई भूमिका के बारे में पूछने पर पार्टी के मुख्य चुनावी रणनीतिकार जयराम रमेश ने कहा, ''वे कोई संन्यासिन नहीं हैं. उनके पास तेज राजनैतिक दिमाग है. विचार और जानकारी के मामले में हमारे लिए अहम स्रोत हैं. उनके कई सुझाव मान लिए जाते हैं.”
2004 से लेकर तीन लोकसभा चुनावों में अहम भूमिका निभा चुके रमेश कहते हैं कि चुनावों में तो प्रियंका हमेशा से सक्रिय रही हैं, लेकिन इस बार का मुकाबला सबसे मुश्किल है. वे कहते हैं, ''इस बार की चुनौती ज्यादा बड़ी है. हमारा मुकाबला 10 साल की सत्ताविरोधी भावना और एक आक्रामक विपक्ष से है.”
इस मुश्किल चुनाव के वक्त प्रियंका के साथ ने राहुल का आत्मविश्वास बढ़ाया है. राहुल के भाषणों को अंतिम रूप देने से लेकर प्रचार अभियान और प्रचार सामग्री के अलावा प्रियंका टीवी चर्चाओं में पार्टी प्रवक्ताओं के प्रदर्शन पर भी नजर रखती हैं. प्रियंका की फीडबैक में न सिर्फ प्रवक्ताओं के बोलचाल के तरीकों बल्कि उनके पहनावे और हाव-भाव का भी बारीक हिसाब-किताब होता है. हाल ही में एक प्रवक्ता टी-शर्ट पहनकर प्राइम टाइम टीवी समाचार के दौरान चर्चा में भाग ले रहे थे.
प्रियंका ने कनिष्क सिंह को यह बात बताई और इस तरह फीडबैक संचार विभाग तक पहुंच गया. राहुल के करीबी कनिष्क, कौशल विद्यार्थी, अलंकार सवाई और बी. बीजू वैसे तो प्रियंका को रिपोर्ट नहीं करते, लेकिन राहुल से जुड़ी एक-एक बात से उन्हें अवगत कराते रहते हैं. अकसर प्रियंका इनमें से किसी को भी फोन करके जानकारी लेती रहती हैं. रणनीति से जुड़े मसलों पर वे कई बार जरूरी सुझाव भी देती हैं. वे उन्हीं नेताओं से बात करती या मिलती हैं जिनसे मिलना जरूरी समझती हैं. सूत्र कहते हैं कि अगर बात चुनाव अभियान से जुड़ी न हो, तो प्रियंका पार्टी के रोजमर्रा के कामकाज से खुद को अलग ही रखती हैं.
राहुल बदलाव का पैरोकारपार्टी की चुनावी रणनीति बनाने और राहुल की छवि निखारने में प्रियंका अगर मुख्य भूमिका निभा रही हैं तो इसके कारणों को समझना मुश्किल नहीं है. कांग्रेस के सामने जहां चुनावी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं वहीं वोटरों को रिझाने में गांधी परिवार की अपनी योग्यता भी सवालों के घेरे में है. चुनावी मुकाबलों में राहुल को बार-बार मिल रही असफलताएं और परिदृश्य से उनकी लंबी अनुपस्थिति की वजह से पार्टी कार्यकर्ता संशय में हैं. सोनिया ने उन्हें काफी खुला मैदान दिया है.
राहुल उस मैदान में उतरने से हिचकते रहे हैं. उधर कई मोर्चों पर सरकार की असफलताओं ने पहले ही पार्टी का पतन तेज कर दिया है. सोनिया ने करिश्माई व्यक्तित्व की धनी प्रियंका को आगे बढऩे से रोका हुआ है. उन्हें डर है कि प्रियंका का व्यक्तित्व अपने भाई पर भारी पड़ जाएगा. पार्टी में लोगों का मानना है कि राहुल ने जिन बदलावों का वादा किया था, उनका असर दिखने में न सिर्फ देरी हो रही है बल्कि उनके कारण ढेरों समस्याएं पैदा होने का भी खतरा पैदा हो गया है.
लेकिन सबको साथ लेकर चलने की अपनी कार्यशैली की वजह से प्रियंका अपने भाई राहुल और उन नेताओं के बीच पुल का काम कर रही हैं, जिन्हें राहुल पसंद नहीं करते. गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले एक नेता कहते हैं, ''कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रियंका को शामिल करने का फैसला करने में बहुत देर कर दी.” उनकी बात से पता चलता है कि इस चुनाव में पार्टी को उबारने में अब देर हो चुकी है. लेकिन भविष्य में उम्मीद की जा सकती है.”
विधानसभा चुनाव के नतीजे गांधी परिवार के लिए चेतावनी थे. पिछले साल के शुरू तक पार्टी के आंतरिक सर्वे में पता चला था कि कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ेगा. लेकिन उसे करीब 150 सीटें मिलने का अनुमान था. फिर जनवरी, 2014 में किए गए आंतरिक सर्वे में पता चला कि उसे सिर्फ 75 सीटें ही मिल रही हैं. राहुल हालांकि लगातार पार्टी में व्यवस्थागत परिवर्तन लाने और उसे चुस्त-दुरुस्त करने की कोशिश में जुटे रहे, लेकिन विधानसभा के नतीजों ने साफ कर दिया कि इस समय पार्टी के पतन को रोकना तात्कालिक चुनौती है.
सोनिया और प्रियंका ने काफी देर से कदम रखा है, उन्हें अब यही सोचना है कि इस नुकसान को कितना कम कर सकते हैं. पार्टी को न सिर्फ 10 साल की सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना करना है, बल्कि उसे पार्टी में गिरते मनोबल को भी बचाना है. अगर राहुल सफल होते हैं तो वे एक नई व्यवस्था लाएंगे जिसमें पार्टी के कई नेताओं को लगता है कि उनके लिए कोई जगह नहीं होगी.
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