जोर पूरब की ओर

350 अरब डॉलर है चीन का व्यापार आसियान देशों के साथ, भारत के 60 अरब डॉलर के मुकाबले

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नोएल सेलिस/गेट्टी इमेजेज नोएल सेलिस/गेट्टी इमेजेज

अनंत कृष्णन / संध्या द्विवेदी

  • नई दिल्ली,
  • 14 नवंबर 2017,
  • अपडेटेड 4:13 PM IST

यह सोच कि भारत, चीन को चुनौती देने वाले देश की भूमिका निभा सकता है, हमेशा ही जमीनी हकीकत से ज्यादा काल्पनिक रहा है. दीगर है कि आसियान (एएसईएएन) के दस सदस्यों में से बहुत-से देशों का चीन के साथ समुद्री सीमा को लेकर विवाद है, खासकर विएतनाम और फिलीपींस के साथ. लेकिन ये वजहें किसी भी देश को चीन के आर्थिक घेरे में गहराई तक जाने से नहीं रोक पा रही हैं. पिछले साल आसियान देशों के साथ चीन का व्यापार करीब 350 अरब डॉलर था, जबकि भारत का 60 अरब डॉलर से भी कम रहा.

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मनीला और जकार्ता में अधिकारियों के बीच यही आम राय है कि उनके यहां भारत की छवि बहुत अच्छी है—जो ऐसिहासिक और सांस्कृतिक संपर्कों पर आधारित है—लेकिन वह उसका फायदा नहीं उठा पाया है. ईस्ट एशिया समिट और 25वें भारत-आसियान समिट के लिए 12 नवंबर को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मनीला जाएंगे तो इसी पहलू को बदलने की कोशिश करेंगे. मनमोहन सिंह सरकार ने भारत की ''पूरब की ओर देखो" नीति में कुछ हद तक जोश भरा और 2009 में आसियान-भारत मुक्त व्यापार क्षेत्र नामक समझौता किया था. सबसे पहले पी.वी. नरसिंह राव ने 1991 ने इस नीति की पहल की थी.

मोदी सरकार ने बड़े उद्देश्य के लिए इस नीति में सुधार करते हुए इसे ''पूरब में काम करो" में बदल दिया है. प्रधानमंत्री ने आसियान के सभी 10 नेताओं को जनवरी में गणतंत्र दिवस की परेड देखने के लिए आमंत्रित किया है. मोदी सरकार 3,200 किमी लंबे मोरेह से भारत-म्यांमार-थाईलैंड हाइवे के निर्माण पर तेजी से काम कर रही है, जिसकी परिकल्पना साल 2002 में की गई थी. यह आसियान देशों को भारत से और करीब लाएगा. (बीजिंग पहले ही बैंकॉक और सिंगापुर को जोडऩे वाले कुनमिंग से बुलेट ट्रेन चलाने की परियोजना पर काम कर रहा है). सबसे बड़ा बदलाव यह है कि मोदी सरकार ने अकेले ''पूरब में काम करने" की अपनी सीमाओं को समझा. मोदी इस क्षेत्र के साथ अपने रिश्ते बनाने के मामले में टोक्यो और वाशिंगटन की तरफ झुकने में कोई संकोच करते नहीं दिख रहे और चीन की संवेदनाओं को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं.

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यह तर्कपूर्ण भी नजर आ रहा है. जापान और अमेरिका के साथ आसियान के संबंधों को देखा जाए तो यह क्षेत्र चीन पर बहुत कम निर्भर नजर आता है. भारत, जापान (239 अरब डॉलर) और अमेरिका (212 अरब डॉलर) के साथ इस क्षेत्र का कुल व्यापार चीन के साथ कुल व्यापार का डेढ़ गुना है. ट्रंप सरकार ने इस क्षेत्र में भारत को अपना महत्वपूर्ण साझीदार माना और अपनी एशिया नीति को ''एक स्वतंत्र और खुला इंडो-पैसिफिक क्षेत्र" बताया. यह ओबामा प्रशासन की ''एशिया धुरी" नीति के मुकाबले ज्यादा व्यापक नीति है. मनीला में तीन देश और ऑस्ट्रेलिया 2007 के बाद से अपनी पहली बैठक करेंगे. उस समय चीन के कड़े विरोध के कारण चार पक्षीय बातचीत बंद करनी पड़ी थी. अब यह देखने की बात होगी कि यह नजदीकी क्या सुरक्षा सहयोग के मामले तक सीमित रहेगी या चीन का आर्थिक विकल्प बनेगी.

बीजिंग इस बदलाव को गौर से देख रहा है. शी जिनपिंग के पहले कार्यकाल में बीजिंग के सामने कोई प्रतिस्पर्धी नहीं था. उसने तब दक्षिण चीन सागर में ''द्वीप निर्माण" जैसी गतिविधियों के साथ अपनी सैन्य ताकत को मजबूत किया था और अपनी कुशल कूटनीति से आसियान देशों की संयुक्त कोशिश को नाकाम कर दिया था. उसने फिलीपींस के साथ अपने रिश्तों को सुधारा और विएतनाम के साथ पैदा दरार को भी पाटने की दिशा में भी काम किया. साथ ही अपना व्यापार भी बढ़ाता रहा था. इस बीच डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सरकार बनते ही पहले कदम के तौर पर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप समझौते से खुद को अलग कर लिया था. यह समझौता यह चीन के आर्थिक दबदबे का जवाब देने की दिशा में अब तक का सबसे बड़ा प्रयास था.

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बीजिंग में आम राय है कि ट्रंप आखिरकार भारत के गैर-भरोसेमंद साथी साबित होंगे. बीजिंग के प्रमुख रणनीतिकार शेन दिंगली कहते हैं, ''ट्रंप की इंडो-पैसिफिक रणनीति से कोई फायदा नहीं होने वाला है. इंडो-पैसिफिक हमेशा मुक्त और खुला रहा है. समंदरों को बांटा नहीं जा सकता. चीन हिंद महासागर का खिलाड़ी है, और हिंद महासागर किसी का नहीं है, चाहे चीन हो, भारत या अमेरिका. ओबामा के अच्छे कामों को ट्रंप बर्बाद कर देंगे और ट्रंप के कामों को उनके बाद के अमेरिकी राष्ट्रपति. अमेरिका का वक्त, ऊर्जा और संसाधनों को फिजूल खर्च करके वे चीन को सफलतापूर्वक दुनिया के शिखर पर पहुंचा रहे हैं."

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