सांसद आदर्श ग्राम योजनाः बीच राह में बदली मंजिल

प्रधानमंत्री की घोषणा से ऐसा लगा था जैसे आदर्श ग्राम योजना से विकास की बयार आ जाएगी, लेकिन अब तक गांवों में विकास का चूल्हा ठंडा है.

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aajtak.in

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  • 20 अप्रैल 2015,
  • अपडेटेड 5:25 PM IST

अगर यही काम भारत सरकार को करना हो तो कैबिनेट नोट बनेगा. फिर डिपार्टमेंट्स के कमेंट मांगे जाएंगे. उसके बाद उसे कैबिनेट पास करेगी. टेंडर निकलेगा. उसके बाद क्या होगा? सबको पता है. फिर छह महीने बाद अखबार में खबर आएगी कि यह हुआ. (तालियों की गडग़ड़ाहट)'' 11 अक्तूबर, 2014 को लोकनायक जय प्रकाश नारायण की जयंती पर सांसद आदर्श ग्राम योजना (एसएजीवाइ) को लॉन्च करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 28 मिनट के ओजस्वी भाषण में यह बात कही. दरअसल प्रधानमंत्री मिसाल दे रहे थे कि अगर किसी गांव में 25 गर्भवती महिलाओं के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करनी हो तो सरकारी ढर्रे से काम करने पर इतना समय लगता है, जबकि एसएजीवाइ के तहत जब गांव वाले खुद फैसला करेंगे, तो यही काम बड़ी आसानी से हो जाएगा. जाहिर है, श्रोताओं की तालियों में यही हर्षध्वनि छिपी थी कि आखिरकार देश के 5,000 से अधिक गांवों का दौरा करने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री ने ग्रामीण भारत के लिए लालफीताशाही से मुक्त एक अभिनव योजना का खाका पेश कर दिया है.

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और संयोग देखिए कि प्रधानमंत्री के इस भाषण के ठीक छह महीने बाद जब यह खबर लिखी जा रही है तो एसएजीवाइ ठीक उसी सरकारी प्रक्रिया की ठोकरें खा रही है, जिस पर मोदी ने कटाक्ष किया था. योजना का संचालन करने वाले ग्रामीण विकास मंत्रालय में एसएजीवाइ के डायरेक्टर डॉ. कुशल पाठक ने इंडिया टुडे को जो बताया, उससे परियोजना की सुस्त चाल खुद-ब-खुद साफ होती है,  ''एसएजीवाइ में अभी ग्राम विकास योजना (वीडीपी) बनाने का काम चल रहा है. गांवों में विकास के कार्य तो अगस्त 2015 से शुरू होंगे. यह काम 2016 के अंत तक पूरे किए जाएंगे.'' (देखिए बातचीत) इसी भाषण में प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि अगर सांसदों की तर्ज पर राज्य सरकारें भी विधायक आदर्श ग्राम योजना तैयार कर लें तो देश में हर साल 7,000 से 8,000 ऐसे आदर्श गांव तैयार हो जाएंगे जो अपने पड़ोस के गांवों के लिए मिसाल होंगे. इस तरह देश में आदर्श गांवों की बयार आ जाएगी. लेकिन एसएजीवाइ की वेबसाइट पर प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक काम होना तो दूर अभी तक सभी सांसदों ने अपने आदर्श गांव का चयन भी नहीं किया है.

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 ऐसे सांसदों में लोकसभा के 55 और राज्यसभा के 62 सांसद शामिल हैं. जिन सांसदों ने गांव का चयन कर लिया है, उनका रिश्ता भी अपने गांव के साथ बराए नाम का है. इस खबर में आदर्श गांवों के रिपोर्ट कार्ड से जाहिर है कि बीजेपी के कलराज मिश्र जैसे मंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सांसद पुत्र दुष्यंत सिंह तो आज तक गांव गए ही नहीं है. राजनाथ सिंह और जनरल वी.के. सिंह जैसे मंत्री एक बार ग्राम दर्शन की औपचारिकता निभा चुके हैं. दरअसल, सांसदों की समस्या यह है कि योजना के लिए अलग से कोई पैसा नहीं दिया गया है. योजना को लागू करने की गाइडलाइंस भी मार्च में जाकर पूरी हुई हैं. दूसरी ओर गांव वालों को यह लग रहा है कि इतने बड़े मंत्री ने गांव गोद ले लिया है तो अब तो चारों तरफ खुशहाली होगी. ऐसे में सांसद के पास ले-देकर अपनी सांसद निधि बचती है, अगर वह इसे एक गांव पर खर्च कर देगा तो संसदीय क्षेत्र के बाकी के 1,000 गांव और दर्जनभर कस्बों में वह क्या खर्च करेगा.

उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने तो इसकी काट यह निकाली कि उन्होंने हरदोई में सदई बेहटा नाम के जिस गांव को गोद लिया था, उसे वापस ही कर दिया. अग्रवाल की दो टूक सुनिए, ''ये योजना तो गांवों में झगड़ा करा देगी. विकास होना है, तो सब गांवों का हो. दूसरे, योजना में पैसा तो है नहीं, विकास कहां से होगा.'' धुर विपक्षी दल के होने के कारण अग्रवाल तो आदर्श गांव से पिंड छुड़ा सकते हैं, लेकिन जो नमो-नमो का जाप करके चुनाव जीते हैं, उन्हें यह सुविधा हासिल नहीं है. ऐसे में गिरिराज सिंह और उमा भारती जैसे मंत्रियों ने यह काट निकाली है कि पहले से अच्छी हालत वाले गांव को चुन लिया जाए, ताकि थोड़े गुड़ में ही खूब मीठा हो जाए. हां, कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह जैसे सांसदों ने बदहाल गांव गोद लिया है और वहां काम भी शुरू करा दिए हैं. और रही बात प्रधानमंत्री के गांव की तो वहां विकास के कार्य निजी कंपनियों की दरियादिली से धड़ाधड़ चल रहे हैं. 

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बाकी सांसद तय सरकारी प्रक्रिया से कदम-दर-कदम विकास की बात कह रहे हैं. और उनका सोचना गलत भी नहीं है. एसएजीवाइ के पास अपना पैसा तो है नहीं, ऐसे में सरकार ने व्यवस्था की है कि विभिन्न मंत्रालयों की पहले से चली आ रही एक दर्जन से अधिक योजनाओं में से कुछ हिस्सा आदर्श गांव के लिए सुनिश्चित कर दिया जाए.

इनमें से तकरीबन सभी योजनाएं यूपीए सरकार के जमाने की हैं. हां, कुछ पुरानी योजनाओं के नए नाम जरूर रखे गए हैं. जैसे राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण मिशन को अब दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना कहा जाता है. ग्रामीण विकास मंत्रालय ने दिसंबर, 2014 से मार्च, 2015 के बीच इन योजनाओं की गाइडलाइन्स में बदलाव कर इन्हें एसएजीवाइ से जोड़ा है. यानी असल में योजना की रूपरेखा बनाने का काम ही मार्च के मध्य तक चलता रहा. इसीलिए अपने संसदीय क्षेत्र गुना में आदर्श ग्राम गोद लेने के बावजूद कांग्रेस नेता और यूपीए सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनौती देते हैं, ''हां, मैंने गांव का चयन कर लिया है. अब विकास मोदीजी कराएं. बिना पैसे की योजना सिर्फ मोदीजी ही चला सकते हैं. ये सांसद आदर्श ग्राम योजना नहीं है, आदर्श फ्रॉड योजना है.'' सिंधिया का दावा है कि भले ही सरकार विभिन्न योजनाओं से इस योजना को जोडऩे की बात कहे, लेकिन असल में सरकार हर योजना का पैसा सिर्फ काट ही रही है.

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मंत्रियों के आदर्श ग्राम में अभी खाका ही हो रहा तैयार
योजना की बदहाली देखने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है. राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद संसदीय क्षेत्र के मीरपुर हिंदू गांव की कहानी कुछ ऐसी ही है. यह विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के. सिंह का आदर्श गांव है. गांव के सरकारी उप-स्वास्थ्य केंद्र और पंचायत भवन में भैंसें बंधी हैं. उप-स्वास्थ्य केंद्र में इतने वर्षों से कोई डॉक्टर नहीं आया तो एक बेघर मुस्लिम ने परिवार इसे अपना स्थायी आशियाना बना लिया. गांव के लोगों से जब विकास की बात करो तो उनका पहला सवाल होता है, ''हमारी पहली और आखिरी मांग है कि गांव में प्रस्तावित लैंड फिल (कचरा फेंकने वाले स्थान) की योजना को रद्द कराया जाए.''  एसएजीवाइ में महिला सशक्तिकरण की खूब बातें कही गई हैं, लेकिन गांव की प्रधान रेखा बंसल की जगह उनके ससुर और पूर्व प्रधान शीशपाल बंसल ही बात करते हैं. उनका कहना है, ''मंत्रीजी के आदर्श गांव को गोद लेने के बाद हम इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि जो काम इस योजना में हों, उन्हीं के साथ हम पंचायत की योजनाओं को जोड़ दें. फिलहाल इंतजार जारी है.'' मंत्री के प्रेस सलाहकार एस.पी. सिंह ने बताया, ''गांव के मास्टर प्लान पर काम चल रहा है. शौचालयों का निर्माण शुरू करा दिया गया है. पीने के पानी और 24 घंटे बिजली के लिए सोलर प्लांट काम जल्द शुरू होगा.'' गांव वाले इस बात की तस्दीक करते हैं कि गांव अब भी उसी सूरत में है, जिसमें गोद लेने से पहले था. उन्हें इस बात की टीस जरूर है कि ओलावृष्टि में गांव में बड़े पैमाने पर फसल बरबाद होने के बावजूद सरकारी रिकॉर्ड में गांव में फसल बरबाद होना नहीं दिखाया गया है. ऐसे सेनापति का क्या फायदा जो बरबाद किसानों की फरियाद ही ऊपर तक न पहुंचा सके.

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उधर, गृह मंत्री राजनाथ सिंह अपने संसदीय क्षेत्र लखनऊ के बेंती गांव में अब तक बैंक की एक शाखा, छोटा डाकघर और कुछ घरों में शौचालय बनवा पाए हैं. गांव अब भी स्वास्थ्य और शिक्षा की बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहा है. उधर, एमएसएमई मंत्री कलराज मिश्र ने देवरिया संसदीय क्षेत्र में पयासी गांव को गोद लिया है. इस गांव के बारे में कहावत है- सौ बार काशी और एक बार पयासी. फिर भी मंत्रीजी एक भी बार गांव नहीं आए हैं और न ही जमीनी स्तर पर कोई काम अब तक हुआ है. हालांकि, मिश्र के सांसद प्रतिनिधि विजय कुमार दुबे कहते हैं, ''अब तक 40 विभागों के अधिकारी बैठक कर चुके हैं. गांव में 567 शौचालयों को मंजूरी मिल चुकी है और 273 महिलाओं को स्फूर्ति योजना में चुना गया है.'' उधर आगरा से सांसद और केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री रामशंकर कठेरिया अपने आदर्श गांव पिलखतरा में अब तक सिर्फ पांच सबमर्सिबल पंप लगवा सके हैं. कठेरिया कहते हैं, ''गांव में एक इंटर कॉलेज, एक अस्पताल और हर घर में शौचालय बनाने की योजना है.''

निजी कंपनियों ने चमकाया मोदी का जयापुर
ये तो रही बात बाकी सांसद और मंत्रियों की लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के आदर्श ग्राम जयापुर की बात अलग है. तारीख 13 अप्रैल है और दोपहर के तीन बजे हैं. जयापुर में सड़क के किनारे खाली पड़ी बेंच पर नरेंद्र मोदी की कही सूक्ति लिखी है,  'सपने, ' जो सोने नहीं देते.'' इन्हीं बेंच के ठीक पीछे जमीन पर बिछी टाट-पट्टी पर बैठे नौनिहाल अपनी किताब-कॉपी संभाले अपने सुनहरे भविष्य के सपने बुनने में तल्लीन थे. बदहाल सरकारी शिक्षा व्यवस्था के शिकार नर्सरी से पहली कक्षा तक पढ़ने वाले ये बच्चे गांव में चलने वाले एक निजी कोचिंग सेंटर में अपनी बुनियादी शिक्षा का ककहरा सीख रहे थे. कैसी विडंबना है कि गुजरात की एक कंपनी ने जयापुर में सौ से ज्यादा बेंच तो लगा दीं लेकिन बच्चों के भाग्य में एक अदद कुर्सी-मेज तक न आई.

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गांव में नरेंद्र मोदी की तस्वीरों से पटा और भगवा रंग में रंगा चमचमाता बस स्टॉप बन गया है. एक छोटी बस भी मुख्य सड़क तक जाने लगी है. गांव में सोलर लैंप आ गए हैं. लेकिन इनमें से कोई भी काम सरकार का नहीं बल्कि गुजरात की निजी कंपनियों का है. पिछले वर्ष जयापुर को गोद लेने के बाद पहली बार 7 नवंबर को यहां पहुंच विकास की औपचारिक शुरुआत करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गांव में निजी कंपनियों ने अपने खैरातों की झड़ी लगा दी है. खास बात तो यह है कि इनमें ज्यादातर कंपनियां किसी न किसी रूप से गुजरात से जुड़ी हैं.

गुजरात के नवसारी से सांसद और जयापुर में मोदी के प्रतिनिधि चंद्रकांत रघुनाथ पाटिल कहते हैं, ''गुजरात में यूपी की तुलना में आधे से कम दाम में सामान मिल जाता है तो वहां की कंपनियों की मदद लेने में कोई हर्ज नहीं है. केवल गुजरात की कंपनी ही नहीं, वाराणसी में रोहनियां की एक कंपनी ने भी जयापुर में रोजगारपरक कार्यक्रम शुरू करने की पेशकश की है.'' गांव के पश्चिमी छोर पर एक निजी कंपनी ने सभी 14 मुसहर परिवारों के लिए मकान बनवाए हैं. अहमदाबाद की एक कंपनी ने गांव में 450 शौचालय तैयार करने का बीड़ा उठाया है. गांव में बने बस स्टैंड के ठीक पीछे अत्याधुनिक सोलर पंप बनकर तैयार हैं जिसे 5,000 लीटर पानी की क्षमता वाली टंकी से जोड़ा गया है. जल्द ही एक निजी कंपनी जयापुर में दो लाख लीटर क्षमता की पानी की टंकी बनाने के साथ-साथ पाइप के जरिए गांव के सभी घरों में मुफ्त पानी पहुंचाने की व्यवस्था भी करेगी. जयापुर में निजी कंपनियों की लगातार बढ़ रही सक्रियता के बीच सरकारी क्षेत्र में एक नया बदलाव नए बैंकों की आमद से हुआ है.

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पिछले छह महीनों में इस गांव में यूनियन बैंक, सिंडीकेट बैंक और स्टेट बैंक की शाखाएं खुली हैं. जयापुर में खुले सिंडिकेट बैंक के सहायक प्रबंधक ओम प्रकाश कहते हैं ग्रामीणों की दिलचस्पी जनधन योजना के तहत खाता खुलवाने को लेकर ही है.'' अगर सरकारी काम की बात करें तो ''भारत सरकार वस्त्र मंत्रालय'' की ''कालीन निर्यात संवर्धन परिषद'' ने जयापुर के एक खाली पड़े भवन में महिलाओं के लिए हथकरघा कालीन प्रशिक्षण केंद्र खोला है. जयापुर में बदहाल पड़े इकलौते सरकारी प्राइमरी विद्यालय की किसी ने अब तक सुध नहीं ली है. गांव की प्रधान दुर्गावती प्रदेश की सपा सरकार को दोष देती हैं, ''डीएम कई बार गांव आए लेकिन उन्होंने अब तक किसी भी सरकारी योजना की शुरुआत गांव में नहीं करवाई है.'' हालांकि, वाराणसी के जिलाधिकारी प्रांजल यादव कहते हैं, ''जिले के किसी भी गांव या क्षेत्र से कोई भी भेदभाव नहीं है.''

वैसे मोदी ने भी 11 अक्तूबर के भाषण में कहा था, ''एक गांव को आदर्श बनाने की प्रक्रिया में सांसदों को पता चलेगा कि सरकारी योजनाओं में क्या खामियां हैं और ये कैसे दूर हो सकती हैं. जब वे सांसद संसद में इन समस्याओं को उठाएंगे तो कितने भी बहुमत की सरकार हो उसे उनकी बात सुननी होगी. इससे गांवों के विकास की और बेहतर योजनाएं बनेंगी .'' अब खुद प्रधानमंत्री ने तो निजी कंपनियों की मदद से अपने गांव को चमका लिया है, लेकिन बाकी सांसद योजनाओं की भूल-भुलैया में चक्कर लगा रहे हैं. लोगों को न योजना के बारीक ब्योरे से मतलब है और न बजट प्रावधानों से उन्हें तो आदर्श गांव चाहिए, जिसके लिए अभी इंतजार है.

(साथ में कुमार हर्ष, सिराज कुरैशी, समीर गर्ग, महेश शर्मा,  अशोक कुमार प्रियदर्शी और पीयूष पाचक)

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