25 साल पहले 19 जनवरी ही वह तारीख थी, जब कश्मीरी हिंदुओं को कश्मीर घाटी छोड़नी पड़ी और अपने ही देश में वे शरणार्थी बना दिए गए. यह कविता उन बेघर लोगों को समर्पित जिन्हें यादों के घरों का सहारा है.
सदियों से रहे साथ जहां
मां-बाप दादा-दादी नाना-नानी के
पुरखों पितरों की यादों के
मंदिरों के घंटे, मज़ारों की चादर के
बाज़ारों की रौनक, डल में मचलते बादलों के
सैलानियों के मन में धंसे अरमानों के
वितस्ता और नुंद ऋषि को साक्षी रख
हर दिन स्कूल में गाया-
'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी...'
फिर...
एक दिन चुपचाप दबेपांव
अपनी यादों को समेट
दीवार पर टंगी
बाप दादों की तस्वीरें सीने में छिपाए
चल पड़े 'हिन्दुस्तान' जहां-
न गुरु तेगबहादुर थे न ही बापू
जो सुन पाते
'नादिम' का आर्तनाद
मैं नहीं गाऊंगा आज...
तुम दिल्ली की
यादें घाटी की
और
हंसी होंठों की--
कैसे पाटती ये दूरियां
झेलम और यमुना-गंगा की?
(डॉ. चंद्रकांत प्रसाद सिंह के ब्लॉग U & ME से साभार)
डॉ. सीपी सिंह