प्राण की संवाद अदायगी को आज भी नहीं भूले हैं लोग

12 फरवरी को जन्मदिन पर विशेषहिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता प्राण का जिक्र आते ही आंखों के सामने एक ऐसा भावप्रवण चेहरा आ जाता है जो अपने हर किरदार में जान डालते हुए यह अहसास करा जाता है कि उसके बिना यह किरदार अर्थहीन हो जाता.

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भाषा

  • नई दिल्‍ली,
  • 12 फरवरी 2011,
  • अपडेटेड 10:53 AM IST

12 फरवरी को जन्मदिन पर विशेष
हिन्दी फिल्मों के जाने माने अभिनेता प्राण का जिक्र आते ही आंखों के सामने एक ऐसा भावप्रवण चेहरा आ जाता है जो अपने हर किरदार में जान डालते हुए यह अहसास करा जाता है कि उसके बिना यह किरदार अर्थहीन हो जाता. हिन्दी फिल्मों के एक लोकप्रिय खलनायक और शानदार चरित्र अभिनेता प्राण की संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली आज भी लोग नहीं भूले हैं.

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प्रख्यात फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध शर्मा कहते हैं ‘प्राण की शुरूआती फिल्में देखें या बाद की फिल्में, उनकी अदाकारी में दोहराव कहीं नजर नहीं आता. उनके मुंह से निकलने वाले संवाद दर्शक को गहरे तक प्रभावित करते हैं. भूमिका चाहे मामूली लुटेरे की हो या किसी बड़े गिरोह के मुखिया की हो या फिर कोई लाचार पिता हो, प्राण ने सभी के साथ न्याय किया है.’

फिल्म आलोचक मनस्विनी देशपांडे कहती हैं कि वर्ष 1956 में फिल्म हलाकू मुख्य भूमिका निभाने वाले प्राण ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में राका डाकू बने और अपनी आंखों से केवल क्रूरता जाहिर की. लेकिन 1973 में ‘जंजीर’ फिल्म में अमिताभ बच्चन के मित्र शेरखान के रूप में उन्होंने अपनी आंखों से ही दोस्ती का भरपूर संदेश दिया.

वह कहती हैं ‘उनकी संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली लोग अभी तक नहीं भूले हैं. कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जिनमें नायक पर खलनायक प्राण भारी पड़ गए. चरित्र भूमिकाओं में भी उन्होंने अमिट छाप छोड़ी है.’

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शर्मा कहते हैं कि प्राण ने कभी अभिनय का प्रशिक्षण नहीं लिया. वह उस दौर के कलाकार हैं जब अभिनय प्रशिक्षण केंद्रों का देश में नामोनिशान नहीं था. लेकिन उन्हें अभिनय की चलती फिरती पाठशाला कहा जा सकता है. पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में 12 फरवरी 1920 को जन्मे प्राण का पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद है. पिता की तबादले वाली नौकरी के चलते प्राण कई शहरों में रहे. लाहौर में गणित विषय के मेधावी छात्र रहे प्राण की अभिनय यात्रा 1940 में पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ से शुरू हुई. यह फिल्म उस साल की सुपरहिट फिल्म रही. इसके बाद प्राण ने ‘चौधरी’ और फिर ‘खजांची’ में काम किया.

जल्द ही प्राण लाहौर फिल्म उद्योग में खलनायक के तौर पर स्थापित हो गए. यह वह दौर था जब फिल्म जगत में अजित, के एन सिंह जैसे खलनायक मौजूद थे.

प्राण 1942 में बनी ‘खानदान’ में नायक बन कर आए और नायिका थीं नूरजहां. 1947 में भारत आजाद हुआ और विभाजित भी. प्राण लाहौर से मुंबई आ गए. यहां करीब एक साल के संघर्ष के बाद उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जिद्दी’ मिली. अभिनय का सफर फिर चलने लगा.

पत्थर के सनम, तुमसा नहीं देखा, बड़ी बहन, मुनीम जी, गंवार, गोपी, हमजोली, दस नंबरी, अमर अकबर एंथनी, दोस्ताना, कर्ज, अंधा कानून, पाप की दुनिया, मृत्युदाता.. करीब 350 से अधिक फिल्मों में अभिनय के अलग अलग रंग बिखेरने वाले प्राण कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हैं और उनकी अपनी एक फुटबॉल टीम ‘बॉम्बे डायनेमस फुटबॉल क्लब’ भी है.

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हिंदी सिनेमा को उनके योगदान के लिए 2001 में उन्हें भारत सरकार के पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया.

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