अजय कुमारः समरजी नमस्कार.
समरः नमस्कार, नमस्कार. क्या हालचाल हैं?
अजयः बस लगे हुए हैं समरजी. लगे हुए हैं.
समरः कहीं से कोई दिक्कत परेशानी?
अजयः नहीं, बस आप लोगों का साथ है तो, आप लोगों का इतना प्रभाव है कि आप लोग बोल दीजिएगा तो फिर कोई माई का लाल नहीं रोक सकता है.
समरः पूरा हम लोगों का रिस्पांस मिल रहा है ना अच्छा-खासा?
अजयः अच्छा-खासा मिल रहा है. फिर आप लोगों का इशारा रह जाएगा और वोट 1 तारीख को है...
इस बातचीत में शामिल अजय कुमार झारखंड विकास मोर्चा पार्टी के हैं और अभी हाल ही में झारखंड की जमशेदपुर लोकसभा सीट से सांसद चुने गए हैं, जबकि कहा जाता है कि समरजी प्रतिबंधित सीपीआइ (माओवादी) के झारखंड-बिहार-उड़ीसा सीमाक्षेत्र के जनल सेक्रेटरी हैं.
पुलिस ने यह बातचीत उपचुनाव के पहले मोबाइल कॉल्स की निगरानी के दौरान 26 जून को रिकॉर्ड की थी. झारखंड के भाजपा नेता सरयू राय ने मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा द्वारा खाली की गई जमशेदपुर सीट के लिए मतदान करने से कुछ घंटे पहले 1 जुलाई को यह बात सार्वजनिक की. इस उपचुनाव में हारे भाजपा प्रदेश इकाई के अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी ने चुनाव आयोग में शिकायत की, जिसके आधार पर पुलिस ने अजय कुमार के खिलाफ मामला दर्ज किया.
1996 में भारतीय पुलिस सेवा छोड़ने के बाद कई कंपनियों में काम करने वाले अजय कुमार ने इस बात की पुष्टि की कि सीडी में आवाज उन्हीं की है. यह पूरी बातचीत साफ तौर पर इस बात का उदाहरण लगती है कि मुख्यधारा की एक पार्टी चुनावी सफलता के लिए अतिवादियों के संगठन के साथ साठ-गांठ कर रही है.
लेकिन अजय कुमार साथ ही इस बात पर भी जोर देते हैं कि 'यह व्यक्ति, जिसे समरजी बताया जा रहा है' की भी जांच होनी चाहिए. उन्होंने कहा, ''मेरी छवि बिलकुल बेदाग है. मैंने कभी किसी व्यक्ति या किसी तथाकथित समरजी से चुनावी नतीजों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए नहीं कहा. यह भाजपा का बिछाया गया जाल है.'' इंडिया टुडे के पास सीडी में रिकॉर्ड इस बातचीत की कॉपी है. उसमें झारखंड विकास मोर्चा के नेता प्रभात भुइयां और समरजी के साथ हुई बातचीत भी रिकॉर्ड है.
यह सीडी मतदान के एक दिन पहले जारी हुई और इस तरह झारखंड विकास मोर्चा को सत्तासीन भाजपा के खिलाफ एक हथियार मिल गयाः ''अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने के लिए वे सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं.''
अजय कुमार ने गोस्वामी और राय के खिलाफ काउंटर केस फाइल किया है. अजय कुमार का आरोप है कि ये दोनों उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं. राय के मुताबिक यह मुद्दा बहुत चौंकाने वाला है, क्योंकि इसमें एक पूर्व पुलिस अधिकारी शामिल है.
राय कहते हैं, 'एक पूर्व पुलिस अधिकारी चुनाव में एक नक्सली से मदद मांग रहा है फिर भी पुलिस चुप है. अगर कोई ग्रामीण किसी माओवादी को अपने घर में खाना खिला दे, भले ही ऐसा वह दबाव में आकर कर रहा हो तो आप उसे गिरफ्तार कर लेते हैं. आप ऐसे दोहरे नियमों से काम नहीं कर सकते.''
झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने इंडिया टुडे से बातचीत में माना कि उन्होंने खुद भी समरजी से बात की थी, लेकिन उसके साथ कोई सौदा नहीं हुआ था. ''मैं किसी को फोन पर बातचीत करने से कैसे रोक सकता हूं, और वह भी चुनाव के समय? मुझे अपने कार्यकर्ताओं को भी तो सुरक्षित रखना है. लेकिन मैंने उससे किसी तरह की मदद के लिए नहीं कहा.'' लेकिन यदि फोन पर हुई बातचीत पर भरोसा किया जाए तो अजय कुमार ने साफतौर पर ऐसा किया है. फोन पर बातचीत के दौरान समरजी उनके चुनावी हितों पर बात भी करता है, बावजूद इसके कि माओवादी चुनाव का बहिष्कार कर रहे थे.
मरांडी के अनुसार पलटवार करना सबसे बेहतरीन बचाव है. ''आप पूरी प्रक्रिया निभाए बिना किसी का फोन हैक करने की इजाजत कैसे दे सकते हैं? क्या झारखंड के गृह सचिव ने फोन टैप किए जाने की इजाजत दी थी? सरकार हमसे जवाब मांग रही है.
हम न्यायिक जांच की मांग करते हैं.'' वैसे खुद को माओवादियों से अलग बताने के मरांडी के तमाम प्रयासों के बावजूद अब जिस तरह से उन्होंने सियासी पाला बदला है, उससे यह बिल्कुल जाहिर हो गया है. कट्टर नक्सल विरोधी होने और अपने ऊपर हुए जानलेवा हमलों के बावजूद बच निकलने वाले मरांडी का रुख अब थोड़ा नरम हुआ है और उन्होंने बीच का रास्ता अपना लिया है.
जमशेदपुर में चुनाव के एक सप्ताह पहले मरांडी ने 2007 में चिलखारी में हुए नरसंहार, जिसमें 20 ग्रामीण और उनका 22 वर्षीय बेटा अनूप भी मारा गया था, के लिए पकड़े गए चार नक्सलियों को माफी देने की अपील भी की है. उनके विरोधी इसे स्पष्ट संकेत मानते हैं कि झारखंड विकास मोर्चा प्रमुख जमशेदपुर चुनाव से पहले से माओवादियों को मरहम लगा रहे थे. राय कहते हैं, ''इसके बाद हुई अजय की बातचीत तो माओवादियों के साथ मिलीभगत के मरांडी के प्रयासों का ही विस्तार है.''
माओवादियों को शांत और खुश करने वाले मरांडी अकेले नेता नहीं है. झारखंड के राजनैतिक तंत्र को अपने कब्जे में लेने के लिए माओवादी दब्बू और डरपोक किस्म के बहुत से नेताओं का इस्तेमाल करते रहे हैं. यह बात पुलिस के पास उपलब्ध कुछ जानकारियों से स्पष्ट होती है. राज्य का एक बहुत बड़ा हिस्सा और बहुत-से नेता नक्सलियों के नियंत्रण में हैं.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो, भाकपा (मा-ले) के विधायक महेंद्र सिंह और जनता दल (यू) के मंत्री रमेश सिंह मुंडा नक्सलियों की बंदूकों का शिकार हुए हैं. ऐसे में कई नेताओं को अपराधियों के साथ हाथ मिलाने में ही समझ्दारी नजर आई है. झारखंड के पुलिस महानिदेशक जी.एस. रथ कहते हैं, ''कुछ राजनेता, नौकरशाह, पुलिस, व्यापारी और यहां तक कि पत्रकार भी माओवादियों के साथ शामिल हैं, लेकिन कार्रवाई करने के लिए ठोस प्रमाण चाहिए.''
झारखंड विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और सांसद इंदर सिंह नामधारी इस बात से सहमत हैं कि झारखंड के राजनेता माओवादियों के आगे घुटने टेकते रहे हैं. वे कहते हैं, ''मैं लोकसभा चुनाव हार गया था क्योंकि मैंने विद्रोहियों को पैसे देने से इनकार कर दिया. फिर उन्होंने मेरे कार्यकर्ताओं को चुनाव प्रचार ही नहीं करने दिया.''
पूर्व सांसद खीरू महतो का तो कहना है, ''माओवादी विधायकों पर दबाव डालते हैं कि वे विधानसभा में 'वाजिब सवाल' उठाएं और विधायकों को उनके तानाशाहीपूर्ण आदेश का पालन करना ही पड़ता है.'' नाम जाहिर न किए जाने की शर्त पर झारखंड के एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी का कहना है, ''चुनावी नतीजों पर निश्चित तौर पर नक्सलियों का प्रभाव होता है.
वे कुछ चुनिंदा इलाकों में जबरदस्ती चुनाव का बहिष्कार करते हैं और अपने उम्मीदवार के प्रतिद्वंद्वी को निशाना बनाते हैं. उन्हें हमेशा इसका लाभ भी मिलता है.''
गृह मंत्रालय के विभाग ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने हाल ही में 'अतिवाद प्रभावित क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक गतिशीलता' नामक एक सर्वेक्षण करवाया. इसके मुताबिक नेताओं और अतिवादियों के बीच साठ-गांठ है. झारखंड में 61 फीसदी आम आदमी और 86 फीसदी नौकरीपेशा लोग मानते हैं कि अतिवाद का सियासत पर गहरा प्रभाव है.
उधर माओवादियों को भी भरोसा है कि वे चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं. उन्हीं लोगों में से एक कामेश्वर बइठा, के खिलाफ 46 मुकदमे दर्ज हैं, वह राजनीति में आया और अब पलामू से झारखंड मुक्ति मोर्चा का सांसद है. और अतिवादी अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. साफ है कि झारखंड में राजनीतिकों और अतिवादी अपराधियों के बीच की विभाजन रेखा धुंधली होती जा रही है.
अमिताभ श्रीवास्तव