भारतीय राजनीति में स्‍त्रियों का साम्राज्‍य

लोकतंत्र अंततः लोगों तक पहुंच गया है. सोनिया गांधी, जयललिता, ममता बनर्जी और मायावती आज जिस मुकाम पर हैं, वहां गैर जज्‍बाती मतदाताओं की सामूहिक इच्छा से पहुंची हैं.

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aajtak.in

  • नई दिल्‍ली,
  • 30 अप्रैल 2011,
  • अपडेटेड 7:33 PM IST

इस लेख की शुरुआत अच्छी खबर से करते हैं. अगर जनमत सर्वेक्षण सही है तो मध्य मई से 60 फीसदी भारत पर दमदार महिलाएं शासन करेंगी.

सोनिया गांधी, मायावती, जयललिता और ममता बनर्जी दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, बंगाल और उत्तर प्रदेश के साथ ही जम्मू कश्मीर तथा पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों पर राज करेंगी.

इसके अलावा, यह भी जोड़ लीजिए कि भाजपा ने विपक्ष की नेता के रूप में सुषमा स्वराज को चुना है, तो आप पाएंगे कि भारत में महिला शक्ति का ऐसा उफान है कि जो 13वीं सदी में दिल्ली की गद्दी पर रजिया सुल्तान के बैठने के बाद से नहीं देखा गया.

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नासमझ स्तंभकार ऐसी जगहों पर पहुंच जाते हैं जहां फरिश्ते जाने से कतराते हैं. समझ्दार फरिश्ते चुनावी भविष्यवाणियां नहीं करते. अफसोस, पत्रकारों, जो कोई फरिश्ता नहीं होते,के लिए यह रोजीरोटी का सवाल होता है. ममता बनर्जी भले ही उतनी दमदार नहीं हों जितनी वे लगती हैं, पर 13 मई को नतीजे की घोषणा के बाद राइटर्स बिल्डिंग में पहुंच सकती हैं; शायद वे इतने आराम से न पहुंचें जितनी उन्होंने उम्मीद की है, फिर भी वे वहां पहुंच जाएंगी.

कोलकाता में जगहजगह ऐसे बिलबोर्ड लग गए हैं जिनमें उन्होंने पहले ही मोटे फ्रेम वाला चश्मा पहन रखा है; अगर आप पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनना चाहती हैं तो बुद्धिजीवी दिखने से मदद मिलती है. तमिलनाडु में मतदान हो चुका है. जयललिता छुट्टी मनाने चली गई हैं और करुणानिधि का खानदान फिर से पारिवारिक झ्गड़े में उलझ गया है. कोई भी तमिलनाडु के नतीजों के बारे में यकीनी तौर पर नहीं बता सकता पर विधानसभा चुनाव की इस सीरीज का थीम स्पष्ट होने लगा हैः अगर आपकी सरकार है तो आप संकट में हैं.

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बंगाल में वामपंथी चट्टान सेंधा नमक की चट्टान जैसी लगने लगी है; जबकि द्रमुक कई कई घावों की टीस महसूस कर रहा है. इस अभियान की शुरुआत खुशगवार मूड में करने वाली असम कांग्रेस अब सत्ता गंवाने की आशंका से परेशान लग रही है. हर रोज मीडिया में सीरियल की तरह प्रसारित हो रहे 'क्राइम ओपेरा' की वजह से कांग्रेस का वोट 2009 के स्तर से काफी नीचे आ गया है.

लेकिन केरल में एक दिलचस्प विसंगति पैदा हो गई है. वामपंथियों ने इस चुनाव को दो प्रतिष्ठानों-स्थानीय वाम बनाम राष्ट्रीय कांग्रेस-के बीच बना दिया है और सवाल 'कौन बेहतर है?' से बदलकर 'कौन बदतर है?' कर दिया है. लेकिन इससे कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को शायद ही रोका जा सकता है.

पुरुष महिलाओं के ऊपर होने के ख्याल से ही मानसिक रूप से अस्थिर हो जाते हैं. पूरे इतिहास में, विभिन्न राष्ट्रों और संस्कृतियों में प्रभावशाली बनने की आकांक्षा पालने वाली महिलाओं के प्रति पुरुषों की घृणा करीने से दर्ज है. उन्होंने ''अबला'' को अपनी जगह पर रखने के लिए बारबार सिद्धांत और तलवार का इस्तेमाल किया.

उनकी राय में महिलाओं का आदर्श स्थान तकिए तक सीमित है, उनके प्रभाव की कानाफूसी होती है, या उसे विस्तारित कर फरेब बना दिया जाता है. उनकी यह छवि कायनात जितनी पुरानीहै. हौवा ने जन्नत में अपने सेब से आदम को ''उकसाने'' का काम किया, और उस वर्जित फल को चखने पर जब उन्हें ईश्वर ने जन्नत से निकाला तब आदम ने दुनिया की गद्दी संभाल ली.

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इस भूमिका में बदलाव लंबे अरसे से प्रतीक्षित था, लेकिन इसके लिए वयस्कों के मतदान अधिकार में निहित स्त्री पुरुष समानता का इंतजार करना था. मतदान का अधिकार देने की यह प्रक्रिया 20वीं सदी में लड़खड़ाते हुए शुरू हुई.

महिला सबलीकरण का पहला चरण संयोग, अवसर और व्यक्तिगत क्षमता के बूते आया. इंदिरा गांधी, मार्गरेट थैचर और गोल्डा मायर को (पुरुषों ने) सफल घोषित किया क्योंकि उन्हें मर्दाना मान लिया गया, जिसे कैबिनेटमेंइकलौतामर्द सिंड्रोम कह सकते हैं.

जब तीनों ने युद्ध में शांत निर्ममता के साथ अपने दुश्मनों को साफ कर दिया तो मर्दों ने उन्हें अपना मानकर उनकी हौसला अफजाई की और संकेत दिया कि उनकी कामयाबी के पीछे नाकाम महिला डीएनए में सक्रिय पुरुष जीन है. इस लैंगिक भेदभाव पर एक जेंडर ने ध्यान नहीं दिया, और दूसरे ने उसे नजरअंदाज कर दिया.

लोकतंत्र अंततः लोगों तक पहुंच गया है. सोनिया गांधी, मायावती, जयललिता और ममता बनर्जी-या फिर एंजेला मर्केल-आज जिस मुकाम पर हैं वहां अपने जीन की वजह से नहीं बल्कि गैरजज्‍बाती मतदाताओं की सामूहिक इच्छा की वजह से पहुंची हैं. भारत में यह असली बदलाव को कितना परिलक्षित करेगा?

यह बताना नासमझी भरा और सभी मौजूद सबूतों के विपरीत होगा कि सत्ता में महिलाएं कम भ्रष्ट होंगी. यहां तक कि ममता बनर्जी, जिन्होंने यह बताते हुए कई दशक गुजार दिए कि पैसा उनकी सेहत को गंभीर रूप से बिगाड़ सकता है, ने भी ढोंग छोड़ दिया है और नए जमाने की बंगाल अर्थव्यवस्था के लिए उत्तर भारतीय धनाढ्‌यों को हर मर्ज की दवा के रूप में बढ़ावा दे रही हैं.

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इस तरह की महिलाएं निजता की रक्षा के मद्देनजर निस्संदेह रूप से दलील देंगी कि उन्हें ऐसे शत्रुतापूर्ण माहौल में जवाबी हमले के लिए पैसे की जरूरत है, जिसमें महिलाओं के साथ भेदभाव के कारण उन्हें संसाधनों से वंचित कर दिया जाता है. लिहाजा, हम यहां एक माकूल उपमा इस्तेमाल करते हुए सवाल करते हैं कि क्या वे महज बनावटी होंगी?

यह इस पर निर्भर करेगा कि क्या येमहिलाएं नकली पुरुष जैसे व्यवहार करेंगी या फिर अपनी प्राकृतिक सहज प्रवृत्ति की मानेंगी. किसी महिला को मां बनने के लिए बच्चे जनने की जरूरत नहीं है. पुरुष उपलब्धियों पर गर्व करते हैं; महिलाएं परिवार का पेट पालने पर गर्वित होती हैं.

परिवार का हर सदस्य उपलब्धि हासिल नहीं करता, और वह घर में समान रूप से योगदान नहीं कर पाता, लेकिन सबको बराबर खाना खिलाना होता है. संह्नेप में कहें तो विशिष्ट और समावेशी विकास में यही अंतर है. पुरुषों ने हमें विशिष्ट विकास दिया. महिलाओं से हमें समावेशी विकास की उम्मीद है.

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