सन् 1895 में ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल होने के समय से लेकर 1960 के दशक में सेल्फ लोडिंग राइफल आने तक .303 ली-एनफील्ड राइफल एक असाधारण हथियार हुआ करती थी. लेकिन आज यह पुरानी राइफल, जिसे दागने के लिए हर बार उसमें हाथ से गोली भरनी पड़ती है, भारतीय पुलिस और आतंकवादियों के बीच गैर-बराबरी भरी जंग का प्रतीक बन गई है. पुलिस को इस पुराने, प्रचलन से बाहर हो चुके हथियार से आतंकवादियों से मुकाबला करना होता है, जो एके-47 से लैस होते हैं जिससे एक बार में 30 गोलियां बरसाई जा सकती हैं.
भारतीय विकास के रथ के पहिये माने जाने वाले छह महानगर आर्थिक निवेश के मुख्य केंद्र हैं और आतंकवादी हमलों के मुख्य निशाने भी. पिछले कुछ वर्षों में विकास के कारण सुरक्षा के बुनियादी क्षेत्रों में निवेश कम हो गया है, पुलिस बल भ्रष्टाचार और व्यवस्थागत अनदेखी की वजह से कमजोर हो गया है. हाल में मुंबई पर हुए हमले जैसे गंभीर खतरे से सामना होने पर यह बल कमजोर दिखने लगता है.
देश के पुलिस बल में कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है. देश की जनसंख्या के मुकाबले पुलिस कर्मचारियों के अनुपात को देखें तो पता चलेगा कि भारत में यह अनुपात तमाम देशों के मुकाबले सबसे कम है. भारत में यह अनुपात प्रति एक लाख आबादी पर मात्र 142 का है, जबकि पश्चिमी देशों में प्रति एक लाख आबादी पर 250 पुलिसवाले हैं. मिसाल के तौर पर 40,000 जवानों वाली मुंबई पुलिस के पास कर्मचारियों की 15 फीसदी कमी है और जाहिर है कि उस पर काफी बोझ है. अधिकांश महानगरों में भी यही स्थिति है.
इन बलों के पास संचार के आधुनिक उपकरण नहीं हैं, बुलेटप्रूफ जैकेट और हेलमेट जैसे निजी रक्षा के खास सामान नहीं है. और इससे भी बदतर यह कि भारी हमलों से निबटने के लिए कोई विशेष दस्ते नहीं हैं. यहां तक कि बम निष्क्रिय करने वाले दस्तों के पास भी कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या नहीं है और उनके पास पर्याप्त साजोसामान नहीं है.
तकनीक और आतंकवाद से निबटने के मामले में केंद्र और राज्यों के बीच भी गैर-बराबरी दिखती है. इसका सरोकार 1980 के दशक की उस विरासत से है, जब आतंकवाद मुख्यतः उत्तर भारत-पंजाब, जम्मू और कश्मीर तथा नई दिल्ली- तक सीमित हुआ करता था. गृह मंत्रालय ने विमान अपहरण, बम के खतरों और शहर में हमलों से निबटने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) का गठन किया. दूरदराज के इलाकों में आतंकवाद के पैर पसारने और आत्मघाती हमलों के भय के मद्देनजर महानगरों की पुलिस की तैयारी अधूरी दिखी.{mospagebreak}महानगर अब पूरी तरह दूरदराज स्थित एनएसजी जैसे बल पर निर्भर हैं. वे न केवल विशेष बल के जवानों के लिए उस पर निर्भर हैं बल्कि बम निष्क्रिय करने वाले दस्तों और विस्फोट के बाद फॉरेंसिक जांच के लिए भी उन्हीं पर आश्रित हैं. आवंटित पैसे का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता. मिसाल के तौर पर 2006-07 में राज्यों ने केंद्र से मिले अनुदानों का करीब 60 फीसदी ही इस्तेमाल किया और बाकी रकम वापस कर दी जबकि एक्स-रे मशीनों, आधुनिक उपकरणों और संचार के उपकरणों की जरूरत जस की तस बनी रही.
पुलिस बल में सुधार की जरूरत के बारे में ऐसा कुछ खास नहीं बचा है जिसके बारे में पहले नहीं कहा गया हो. 1998 में जूलियो रिबेरो, न्यायमूर्ति मालिमत, पद्मनाभैया, सोली सोराबजी और वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाली कम से कम पांच पुलिस सुधार समितियों ने बार-बार एक ही बात दोहराई. सन् 2000 में पद्मनाभैया समिति ने दूरंदेशी दिखाते हुए कहा, ''नीति नियंताओं के लिए यह महसूस करना बेहतर होगा कि आंतरिक सुरक्षा को मौजूदा चुनौती, खासकर पाकिस्तान की आइएसआइ और माओवादी-मार्क्सवादी अतिवादी समूहों की साजिशें ऐसी हैं कि उनसे कारगर ढंग से निबटने के लिए देश को बेहद उत्साही, पेशेवराना मामले में कुशल, बुनियादी ढांचे में आत्मनिर्भर और बेहद परिष्कृत ढंग से प्रशिक्षित पुलिस बल की जरूरत है.'' दो साल पहले मोइली के नेतृत्व में द्वितीय प्रशासनिक आयोग ने कानूनी ढांचे में कोई एक दर्जन खामियां गिनाईं जिनमें पुलिस के लिए अपर्याप्त प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की कमी भी शामिल है.
प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे से पुलिस बल में क्या फर्क पड़ता है, यह देखने के लिए छत्तीसगढ़ के कांकेर में स्थित काउंटर टेररिज्म ऐंड जंगल वारफेयर स्कूल को देखने की जरूरत है, जहां राज्य की पुलिस को छह महीने का प्रशिक्षण दिया जाता है. आधुनिक हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने के अलावा उन्हें शारीरिक रूप से चुस्त बनाया जाता है, उनकी प्रतिक्रिया क्षमता तेज की जाती है और हमले की घड़ी में पहल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. इसके नतीजे देखे जा सकते हैं. पिछले तीन साल में जहां पांच पुलिसवालों पर एक नक्सली मारा जाता था, वहीं अब पांच नक्सलियों पर एक पुलिसवाला शहीद होता है. देश भर में इस तरह के 20 स्कूल बनाने की गृह मंत्रालय की योजना इसकी उपयोगिता की तस्दीक करती है.{mospagebreak}पुलिस बल को बदलने की शुरुआत करने के लिए सबसे आदर्श स्थल पुलिस नियंत्रण कक्ष होगा, जो संभवतः महानगरीय पुलिस व्यवस्था का सबसे ज्यादा नजरअंदाज किया गया पहलू है. सैन्य रणनीति और कार्रवाई की भाषा में एक जुमला है-ऑब्जर्व-ओरिएंट-डिसाइड-एक्ट (ऊडा) (नजर रखो-तैयारी करो-फैसला करो-कार्रवाई करो). इसके बारे में कहा जाता है कि यह तेजी से बदलने वाली स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. पुलिस नियंत्रण कक्ष को फौरन सेना के कमान और कम्युनिकेशन केंद्र के रूप में आधुनिक बनाए जाने की जरूरत है. उसमें अलग से कम्युनिकेशन लाइंस, फोन, फैक्स और इंटरनेट की व्यवस्था होनी चाहिए. उन्हें दूसरे सशस्त्र बलों, खुफिया एजेंसियों से जोड़ा जाना चाहिए और शहर के विभिन्न इलाकों से सीसीटीवी के जरिए स्थिति पर नजर रखने की व्यवस्था होनी चाहिए. इन नियंत्रण कक्षों में चौबीसों घंटे ऐसे युवा, मेधावी और ऊर्जावान अधिकारी होने चाहिए जो झटपट फैसला कर सकें. इन नियंत्रण कक्षों में शहर के गूगल अर्थ जैसे बड़े हो सकने वाले डिजिटल नक्शे होने चाहिए और उनके पास ऐसी तेज कारों का बेड़ा होना चाहिए जिनसे शहर के किसी भी हिस्से में पांच मिनट के भीतर पहुंचा जा सके.
सभी प्रमुख महानगरों में चौबीसों घंटे आपात स्थिति से निबटने के लिए 100 जवानों की स्पेशल 'वीपंस ऐंड टैक्टिक्स' (स्वैट) टीम तैयार की जानी चाहिए जिसके पास विशेष हथियार, कम्युनिकेशन उपकरण, बख्तरबंद गाड़ियां और हेलिकॉप्टर हों. चेहरे की पहचान करने वाले फेशियल रिकग्निशन सॉफ्टवेयर और डे-नाइट सीसीटीवी कैमरे जैसी नई तकनीक अपनाने की जरूरत है.
पुलिस बल के लिए कम्युनिकेशन उपकरण और हथियार खरीदना चुनौती का एक हिस्सा है. समय रहते हुए नौकरशाही के अड़ंगे को पार कर पैसा खर्च करना सबसे बड़ी चुनौती है.
पुलिस के जवानों को आधुनिक हथियारों के इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित करना भी एक चुनौती है, क्योंकि अप्रशिक्षित पुलिसकर्मी के पास हेकलर और कोच एमपी-5 सब-मशीनगन जैसे परिष्कृत हथियार होना उसके निहत्थे होने के बराबर है. एक और उपाय प्रमुख स्थानों की सुरक्षा और वहां आतंकवाद विरोधी कसरत करना है. पुलिस के पास होटल, आइटी पार्क, मॉल और बड़े दफ्तरों समेत सभी प्रमुख स्थानों के नक्शे होने चाहिए ताकि उन्हें बंधक संकट जैसी स्थितियों से निबटने की योजना बनाने में आसानी हो. पुलिसवालों को संकट की घड़ी में वार्ताकार की भूमिका निभाने का प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए.{mospagebreak}खुफिया शाखाओं में कॅरियर अधिकारियों को नियुक्त करने की जरूरत है. साथ ही खुफिया सूचना विश्लेषक इकाइयां बनाने की जरूरत है ताकि वे राज्य और केंद्र से मिली सूचनाओं का विश्लेषण कर सकें. निगरानी व्यवस्था के मामले में चौकस न होने का मतलब आतंकवादियों को विकास के इंजनों पर हमले को न्यौता देना है.
|
कार्य योजना जवानों वाली स्वैट टीम का गठन होना चाहिए. जाए. प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. विकसित की जाए. |
इंडिया टुडे