आज फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय गेम माना जाता है. लेकिन जब भारत में फुटबॉल की बात करें, तो आप कितने गर्व से कहेंगे कि हम भी इसमें कम नहीं? लेकिन अगर बात 1950-1960 के दशक की करें, तो उस वक्त हर भारतीय गर्व से इस बात को कह रहा था. जब भारतीय टीम पर खुद भारतीयों का भरोसा डगमगा गया, तब उनके कोच सैयद अब्दुल रहीम इस भरोसे के पिलर बनकर खड़े रहे.
हालात बद से बदतर हुए, उन्हें कैंसर तक हो गया, मगर वो आखिरी सांस तक भारतीय फुटबॉल को अव्वल स्थान पर लाने का सपने देखना जारी रखे हुए थे, और उन्होंने ऐसा करके भी दिखाया. उनकी कहानी को फिल्म 'मैदान' के जरिए दर्शकों तक पहुंचाया गया है. ये फिल्म ईद के मौके पर कल यानी 10 अप्रैल को रिलीज हो रही है. फिल्म में अजय देवगन का किरदार इतना दमदार है कि फिल्म शुरू से आखिर तक लोगों को बांधे रखती है. उन्होंने जाने माने फुटबॉल कोच सैय्यद अब्दुल रहीम का किरदार निभाया है.
तो चलिए वक्त के पीछे चलते हैं और फिल्म की कहानी जान लेते हैं. इस फिल्म की कहानी 1950-1960 के दशक के इर्द-गिर्द घूमती है. ये वो दौर था, जब भारत में क्रिकेट से ज्यादा लोकप्रियता हॉकी और फुटबॉल को मिला करती थी. जहां मेजर ध्यानचंद हॉकी के भगवान कहे जाते थे, तो वहीं भारतीय फुटबॉल को ऊंचाई पर पहुंचाने के पीछे सैय्यद अब्दुल रहीम की कड़ी मेहनत थी. आज उनकी जिंदगी की कहानी पर एक नजर डाल लेते हैं.
'रहीम साब' कहकर बुलाते थे लोग
सैय्यद अब्दुल रहीम को लोग प्यार से 'रहीम साब' कहकर बुलाते थे. उनका जन्म 17 अगस्त, साल 1909 को हैदराबाद में हुआ था. उन्हें बचपन से ही फुटबॉल खेलना काफी अच्छा लगता था. तमाम चुनौतियों से जूझने के बावजूद उन्होंने मेहनत करना जारी रखा और इस खेल में महारथ हासिल कर ली. उनका सपना था कि भारत को फुटबॉल में गोल्ड मेडल मिले. हालांकि तब देश के आर्थित हालात ठीक नहीं थे. वो अंग्रेजों की गुलामी के दंश को झेल रहा था. जिसके चलते रहीम लाख कोशिश करके भी कुछ कर नहीं पा रहे थे. उनका ये सपना... सपना ही रह गया.
देश के युवाओं को जोड़कर बनाई टीम
उनकी पत्नी ने उनका पूरा साथ दिया. साथ ही इस सपने को पूरा करने की हिम्मत भी दी. 15 अगस्त, 1947 को देश की आजादी के बाद इस सपने को पूरा करने के लिए सैय्यद अब्दुल रहीम ने युवाओं के साथ एक नई फुटबॉल टीम बनाई. उन्होंने टीम को कड़ी ट्रेनिंग दी. उनकी हर खामी को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत की. इसका फल भी मिला. साल 1951 में दिल्ली में एशियन गेम्स का आयोजन हुआ और भारत ने पहली बार गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रचा.
भारत को कहा गया 'एशिया का ब्राजील'
अब वो वक्त आया, जब भारत को बड़े-बड़े देशों की टीम को हराना था. जिनके पास संसाधन भी कहीं अधिक थे. ऐसे में भारतीय खिलाड़ियों को न केवल हौसले की बल्कि विदेशी रणनीति की भी जरूरत थी. इसी आधार पर रहीम ने खिलाड़ियों को ट्रेनिंग दी. जिसका असर ये हुआ कि भारत ने समर ओलंपिक में सभी बड़ी टीमों को हराकर सेमीफाइनल में अपनी जगह बना ली. भारतीय टीम बेशक समर ओलंपिक में जीत नहीं पाई थी. लेकिन विदेशी जमीन पर शानदार प्रदर्शन के कारण भारत को 'एशिया के ब्राजील' की उपाधि जरूर मिल गई.
दूसरे गोल्ड पर थी भारत की नजर
भारतीय फुटबॉल के लिए 1950 का दशक गोल्डन पीरियड माना जाता है. इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में एशियन गेम्स शुरू होने वाले थे. तभी सैय्यद अब्दुल रहीम को कैंसर हो गया. मगर तब भी उन्होंने आराम करने से ज्यादा तवज्जो देश के फुटबॉल को दी. उन्होंने इन सब मुश्किलों के बावजूद भारत की फुटबॉल टीम को कड़ी ट्रेनिंग दी. फिर एशियन गेम्स में 1962 में भारत ने दोबारा गोल्ड मेडल जीत लिया.
भारत के लिए ये फुटबॉल में काफी बड़ी जीत मानी गई. क्योंकि टीम ने दक्षिण कोरिया और जापान समेत कई टीमों को हरा दिया था. 11 जून, 1963 में सैय्यद अब्दुल रहीम का निधन हो गया. लेकिन उनका नाम भारतीय फुटबॉल के इतिहास में अमर हो गया.
Shilpa