पितृपक्ष अब समाप्ति की ओर है. आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के 15 दिन और भाद्रपद की पूर्णिमा का एक दिन ये मिलाकर 16 दिनों की पितृपूजा का विधान सनातन परंपरा में है. पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक पिंडदान और तर्पण को श्राद्ध कहा जाता है. वेदों में श्राद्ध का जिक्र नहीं मिलता, लेकिन ऋग्वेद जो कि मंत्रों का लिखित साहित्य है और यजुर्वेद, जिसमें यज्ञ के विधान का वर्णन है, इन दोनों में ही पितृयज्ञ का विस्तार से जिक्र आता है.
ऋग्वेद में पितृ यज्ञ का उल्लेख
ऋग्वेद में पितृ-यज्ञ का उल्लेख मिलता है और अलग-अलग देवी-देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में अनेक पितरों और की प्रशंसा गाई गई है. इसी सूक्त में एक जगह पितरों को देवतुल्य बताकर उनसे खेत, वन-संपदा और वर्षा जल और जलाशयों के संरक्षण की प्रार्थना की गई है. जाहिर है कि मनुष्य तबतक समूहों में रहने लगा था.
उसने नदियों के किनारे आसरा बनाया, पेड़ों से फल लिए, भूख मिटाई, वन संपदा ने उसकी रोजमर्रा की जिंदगी को आसान बनाया और जीवन के संघर्ष को कुछ कम किया, लिहाजा मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने माना कि अदृश्य देवताओं की तरह ही वे मानव पूर्वज भी शक्तिशाली हैं जो पहले इसी धरती पर हमारे बीच थे लेकिन अब वह अदृश्य हैं, दिखाई नहीं देते. क्या वह भी देवता हो चुके है?
पितृ सूक्त क्या है?
ऋग्वेद में पूछे गए इसी एक प्रश्न ने पितृ देवता की संकल्पना को साकार किया. उन्होंने पितरों को यानी उन पूर्वजों को जो अब शरीर छोड़ चुके थे उनसे भी वैसी ही प्रार्थनाएं की, जैसी वह इंद्र से करते थे. अग्नि उनकी सभी प्रार्थनाओं का वहन करने वाला और उन्हें ईष्ट तक पहुंचाने वाला देवता सिद्ध हुआ और इस तरह ऋग्वेद में पितृ सूक्त प्रकाश में आया.
ऋग्वेद के दसवें मंडल में एक पितृ सूक्त है, जिससे पितरों का आह्वान किया जाता है, वे वंशजों को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें. ऋग्वेद में एक प्रार्थना मिलती है-‘उदित होती हुई उषा, बहती हुई नदियां, सुस्थिर पर्वत और पितृगण सदैव हमारी रक्षा करें.’ यह प्रार्थना वैदिक संस्कृति में पितरों की भूमिका को सामने रखती है. वैदिक ऋषि अपनी परंपरा में पितरों की उपस्थिति को अनुभव करते हैं, वे बार-बार उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं. वैदिक मान्यता के अनुसार हमारे सामाजिक संस्कार, विचार, मर्यादाएं, भौतिक व आध्यात्मिक उत्तराधिकार पितरों पर ही निर्भर हैं. इसलिए उनसे की गई प्रार्थना हमें विरासत के प्रति जागृत करती है.
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः.
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1
हे सोमरस पीने वाले पितरगण! आप में से जो अधोलोक, मध्यलोक और उच्च लोक में विराजमान हैं, जो सत्यज्ञानी, तेजस्वी और अमर हैं — वे हमारे हवनों में उपस्थित होकर हमारी रक्षा करें.
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः.
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2
अंगिरस, नवग्व, अथर्वा और भृगु आदि पितरों को नमन है. वे सब यज्ञ में विशेष भागीदार रहे हैं. उनकी कृपा से हम भी सौम्यता और भद्र बुद्धि से युक्त हों.
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः.
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3
हमारे पूर्वज पितर जिन्होंने सोमपान किया, जिनमें वसिष्ठ आदि ऋषि सम्मिलित हैं, वे यमराज के साथ हमारे हवन को स्वीकार करें और प्रसन्न हों.
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्.
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4
हे सोमदेव! तुम विवेक से युक्त हो, श्रेष्ठ मार्ग पर ले जाने वाले हो. तुम्हारी प्रेरणा से ही पितरगण देवताओं के बीच दिव्य रत्न और धन के अधिकारी हुए.
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः.
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5
हे सोमदेव! तुम्हारे सहारे ही हमारे पूर्वज पितर महान कार्यों में सफल हुए. वीरों और घोड़ों से सम्पन्न होकर उन्होंने यज्ञ की मर्यादा को स्थिर किया. तुम भी हमारी उन्नति करो.
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ.
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6
हे सोम! तुम पितरों के साथ मिलकर आकाश और पृथ्वी का विस्तार करने वाले हो. हम तुम्हें हवन अर्पित करते हैं और तुम्हारी कृपा से ऐश्वर्य के स्वामी बनें.
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्.
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7
हे बर्हिषद् पितरगण! हम आपको आह्वान करते हैं. आप हमारे हवन को स्वीकार करें और अपने कल्याणकारी आश्रय से हमें सुख और शांति प्रदान करें.
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः.
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8
मैं उन पितरों को जानता हूँ जो ज्ञानसम्पन्न हैं, और विष्णु के नपात व विक्रमण के सहचर हैं. वे पितर जो स्वधा से तृप्त होकर बर्हिष्य पर विराजमान हैं, वे यहाँ पधारें.
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु.
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9
हे सोमपान करने वाले पितरगण! हम आपको आपके प्रिय बर्हिष्य और आसनों पर आमंत्रित करते हैं. आप आएं, हमारे स्तुतिगान को सुनें और हमें आशीर्वाद दें.
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः.
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10..
हे सोमपान पितरगण! हे अग्निष्वात्त पितर! आप देवयान मार्ग से इस यज्ञ में आएं, स्वधा से तृप्त हों और हमारे कल्याण की कामना करें.
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदःसदतसु-प्रणीतयः.
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11
हे अग्निष्वात्त पितरगण! (अग्नि से हवि स्वीकार करने वाले) आप यहां सदनों में पधारें, हमारे अर्पित हवि को स्वीकार करें और हमें ऐश्वर्य तथा वीरसंतान प्रदान करें.
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते.
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12
जो अग्निष्वात्त (अग्नि से हवि स्वीकार करने वाले) और अनग्निष्वात्त पितर (जो अग्नि से अलग विद्या के महारथी) स्वधा से तृप्त होकर दिव्य लोक में स्थित हैं, वे हमें उत्तम नीति और इच्छानुसार उत्तम जीवन प्रदान करें.
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः.
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13
हम अग्निष्वात्त पितरों को आह्वान करते हैं जो सोमरस के भागीदार हैं. वे सुहृदय पितर हमें ऐश्वर्य प्रदान करें और हमें समृद्धि का स्वामी बनाएं.
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे.
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14
हे समस्त पितरगण! दाहिने भाग में आसन ग्रहण करें, इस यज्ञ को स्वीकार करें. हमारी किसी भूल या पाप से हमें कष्ट न दें.
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय.
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15
हे पितरगण! आप सब अरुण लोक में विराजमान होकर हमारे यज्ञ से प्रसन्न हों, हमें और हमारे पुत्रों को धन-धान्य और ऊर्जा प्रदान करें.
विकास पोरवाल