महान क्रांतिकारी भगत सिंह मात्र 23 साल के थे, जब 1931 में अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी. 90 साल बाद भी वो आज भारत ही नहीं पाकिस्तान में भी गाहे-बगाहे क्रांति की आवाज बन जाते हैं. भारत में तो उनकी विरासत को पाने के लिए होड़ मची रहती है. चाहे जिस किस भी विचारधारा को मानने वाले राजनीतिक दल हों, सभी भगत सिंह को प्रेरणास्रोत बताने में गर्व की अनुभूति करते हैं. अन्ना आंदोलन से लेकर किसानों के विरोध प्रदर्शन तक में उनके नाम का सहारा लिया गया. पीएम मोदी भी 2015 में पंजाब में फिरोजपुर जिले के हुसैनीवाला गए थे, जहां अमर शहीद का 1931 में अंतिम संस्कार किया गया था. चाहे खालिस्तान की मांग करने वाले अलगाववादी हों या दक्षिणपंथी खेमे के लोग सभी के लिए भगत सिंह में आदर्श दिखता रहा है.आम आदमी पार्टी ने तो भगत सिंह की फोटो को अपने पार्टी दफ्तर और सरकारी ऑफिसों में लगाना अनिवार्य कर दिया है. संसद पर हमला करने वाले भी शहीद भगत सिंह का नाम लेकर सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहे हैं.
उनकी शहादत को 90 साल से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन एक बार फिर उनका नाम लोगों की जुबान पर है. पर इस बार भी एक ऐसी वजह से उनका नाम सामने आ रहा है जिसे भगत सिंह अगर जिंदा होते तो शायद ही कभी सपोर्ट करते. पिछले दिनों लोकसभा में कुछ नौजवान इस तरह घुस गए जिसे भविष्य में हमले की योजना का ट्रायल भी कहा जा सकता है. जिस तरह हमला किया गया किसी सांसद का हार्ट अटैक भी हो सकता था. संसद में पटाखे छोड़ने वाले इन नौजवानों का दावा है कि वे शहीद ए आजम के एक फैन क्लब से जुड़े हैं. हमलावरों में से एक सागर शर्मा की मां ने कहा कि वह भगत सिंह के नाम का खून का टीका लगता था. दिक्कत यह हो गई कि राहुल गांधी, मनोज झा, योगेंद्र यादव जैसे देश के तमाम नेता संसद में उत्पात करने वाले युवकों में भगत सिंह ढूँढ रहे हैं. जबकि ये सभी ऐसे दलों के लोग हैं जिन्होंने हमेशा से अन्याय के विरोध के लिए गांधी का मार्ग चुना है.
राहुल गांधी ने संसद पर हमले का कारण बेरोजगारी बताया
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए भी देश में बेरोजगारी और अन्याय का विरोध करने के लिए अब महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने का यकीन नहीं रह गया शायद इसी लिए वो कहते हैं कि संसद पर हमले का कारण देश में बेरोजगारी और महंगाई का बढना है.राहुल गांधी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर पोस्ट किया, 'Jobs कहां हैं? युवा हताश हैं- हमें इस मुद्दे पर फोकस करना है, युवाओं को नौकरी देनी है. सुरक्षा चूक जरूर हुई है, मगर इसके पीछे का कारण है देश का सबसे बड़ा मुद्दा-बेरोज़गारी!
बीजेपी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने कांग्रेस नेता पर पलटवार करते हुए ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘राहुल गांधी और ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं को संसद की सुरक्षा में चूक की घटना में शामिल लोगों के कांग्रेस, टीएमसी और माकपा के साथ घनिष्ठ संबंधों के बारे में बताना चाहिए. राहुल गांधी को, विशेष रूप से उस असीम सरोदे के साथ अपने संबंधों को स्पष्ट करना चाहिए, जो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का हिस्सा थे और संसद में घुसने वालों को कानूनी सहायता प्रदान करने की पेशकश की है.’
गांधी पर क्यों भारी पड़ रहे हैं भगत सिंह
सवाल यह उठता है कि अगर देश में बेरोजगारी इतनी बढ़ गई कि बिना संसद पर हमले के उन बेरोजगार हमलावरों की आवाज नहीं सुनी जा रही थी. देश में पहले जब आवाज दबाने की बात होती थी गांधी प्रतिमा पर नेता या आंदोलनकारी मौन व्रत, आमरण अनशन या धरना प्रदर्शन करते रहे है. क्या ये ट्रेंड बदल रहा है. राष्ट्रपित गांधी पर भगत सिंह क्यों भारी पड़ रहे हैं. क्या राहुल गांधी भी अपनी पार्ट का स्टैंड बदलेंगे. उनकी गांधी की बजाय भगत सिंह की राह पर चलने की सीख क्या यही कहती है?
शिक्षाविदों का कहना है कि भगत सिंह के बारे में सोशल मीडिया पर होने वाली बहसें आमतौर पर सिंह बनाम गांधी के लेवल पर चली जाती हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे एक लेख में इतिहासकार अपर्णा वैदिक कहती हैं, ‘जब हम गांधी बनाम भगत सिंह की बहस के बारे में बात करते हैं तो आमतौर पर यही सोचते हैं कि यह हिंसा अनाम अहिंसा की बहस है, लेकिन यह दरअसल ओल्ड वर्सेज यंग की बहस भी है.’ अभिनेता आलोक पाराशर कहते हैं, ‘दुख की बात यह है कि आजकल भगत सिंह के बारे में अधिकतर बातचीत उन्हें गांधी के खिलाफ रखने के लिए होती है. लोग कहते हैं कि गांधी एक मर्सी अपील दाखिल कर सकते थे, लोग भूल जाते हैं कि जब भगत सिंह के पिता ने मर्सी के लिए आवेदन देने की कोशिश की थी, तो भगत सिंह ने एक पत्र में ऐसा करने के लिए अपने पिता को ही कायर कह दिया था. हमें यह याद रखना चाहिए कि कुछ बातों पर दो महान लोगों के विचार अलग हो सकते हैं, भले ही उनके लक्ष्य एक ही हों.’
गांधी या भगत ऐसी स्थित में क्या करते?
सवाल यह उठता है कि महात्मा गांधी या भगत सिंह जिंदा होते तो संसद पर हमला करने वालों के साथ क्या करते? गांधी जी ने तो अपने जिंदा रहते लाहौर बम केस में भगत सिंह का साथ नहीं दिया. उन्हें उस जमाने में भी यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई थी कि अपनी आवाज सरकार तक पहुंचाने के लिए किसी तरह की हिंसा की जाए. चाहे वे असली बम की जगह कागज के ही बम क्यों न रहे हों.रही बात सरदार भगत सिंह की जिन्होंने खुद बहरी अंग्रेज सरकार तक आवाज पहुंचाने के लिए कागज के बम फेंके थे वो भी आज के दौर में होते तो शायद ये कृत्य नहीं करते. भगत सिंह को लोकतंत्र में यकीन था. जब जनता चुनकर अपने प्रतिनिधि संसद में भेज रही है तो वो अपनी बात निश्चित ही लोकतांत्रिक तरीके से ही रखते.आखिर किसान आंदोलन करने वालों की बात इसी सरकार ने सुनी थी और तीन कानूनों को रद्द किया गया था. कोई भी समाज नियम कानूनों से चलता है . अगर हर युवा देश में अपनी समस्याओं का समाधान इसी तरह से करने लगे तो व्यवस्था कहां और कैसे रहेगी. ऐसे गुमराह युवाओं का समर्थन करने वाले नेताओं को यह समझना होगा किस तरह का भारत चाहते हैं? क्या भारत को सीरिया बनाने चाहते हैं जहां कोई नियम कानून नाम की चीज नहीं रह गई है.
बेरोजगारी का रोना कितना सही
कहा जा रहा है कि संसद पर हमला करने के आरोपी युवाओं में सभी सरकारी नौकरी न पाने से निराश थे और अपनी बात देश के सामने रखने के लिए उन्होंने ये रास्ता चुना.आंकड़ों की बात करें तो देश में रोजगार की स्थित पहले से बेहतर हो रही है. एक सरकारी सर्वेक्षण में यह तथ्य निकल कर आया है कि देश में जुलाई 2022 से जून 2023 के बीच 15 वर्ष और उससे अधिक आयु की बेरोजगारी दर छह साल के निचले स्तर, 3.2 प्रतिशत पर रही.राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की ओर से जारी किए गए वार्षिक रिपोर्ट 2022-2023 के अनुसार जुलाई 2022 से जून 2023 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों के लिए सामान्य स्थिति में बेरोजगारी दर 2021-22 में 4.1 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में 3.2 प्रतिशत हो गई. यह बेरोजगारी की दर साल 2020-21 में 4.2 फीसदी, 2019-20 में 4.8 फीसदी, 2018-19 में 5.8 फीसदी और साल 2017-18 में छह फीसदी थी.
मान लेते हैं कि सरकारी आंकड़े झूठ हो सकते हैं . पर अपने अगल बगल नजर दौड़ाइये और देखिए बेरोजगार कौन है. पिछले पांच सालों में देश का कोई शहर ऐसा नहीं होगा जहां रेस्त्रां-बार और कैफे की बाढ न आ गई हो. कंस्ट्रक्शन वर्क रेल, सड़क और बिल्डिंगें बनने की रफ्तार पर गौर फरमाइये और पिछले 40 सालों से तुलना करिए कि इतना काम कभी होते देखा था? पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि सत्तर और अस्सी के दशक में न प्राइवेट नौकरियां थी और न सरकारी नौकरियां. गाहे-बगाहे कभी वेकेंसी आती थी उसमें मुट्ठी भर नौकरियां ही होती थीं. प्राइवेट सेक्टर था ही नहीं. बिजनेस का ये हाल था कि कुछ बुनियादी उद्योग धंधों को छोड़कर दूसरे बिजनेस की कल्पना नहीं की जा सकती थी. आज बेरोजगार केवल वही है जो सरकार नौकरी पाने की जिद में कोई दूसरा काम नहीं करना चाहता है.
संयम श्रीवास्तव