ये 32 धानमंडी है. कोई साधारण मकान नहीं, बल्कि बांग्लादेश के इतिहास का वह पन्ना है जो बार-बार फाड़ा गया. फिर भी पढ़ा जाता रहा. ढाका के दिल में खड़ा यह घर ईंट-पत्थर से बना जरूर है, लेकिन इसकी दीवारों में बांग्लादेश की धड़कनें बसती हैं. जिसने इसे देखा, उसने राजनीति को किताबों में नहीं, जिंदगी में चलते हुए देखा.
यहीं शेख मुजीबुर्रहमान रहा करते थे. सुबह की हलचल, नेताओं की आवाजाही, देर रात तक जलती बत्तियां. सब कुछ इस घर ने देखा. 1960 का दशक आते-आते ये 32 धानमंडी पूर्वी पाकिस्तान की राजनीति का केंद्र बन चुका था. मोहम्मद अली जिन्ना ने जब ढाका में एलान किया कि उर्दू ही पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की एकमात्र आधिकारिक भाषा होगी तो 32 धानमंडी से आवाज आई कि 'ऐसा नहीं हो सकता'. शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग के आंदोलन की योजनाएं, बंगाली भाषा के सम्मान की लड़ाई, छात्र नेताओं की बेचैनी, और जनता की उम्मीदें, सब यहीं आकार लेती थीं. बाहर से यह एक साधारण आवास लगता था, भीतर यह एक राष्ट्र का ड्राफ्ट तैयार कर रहा था.
1971 का मार्च इस घर के लिए निर्णायक साबित हुआ. 7 मार्च के ऐतिहासिक भाषण से पहले की बेचैनी, रणनीतियों की गूंज, और 25 मार्च की काली रात, सब कुछ इसी छत ने झेला. ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू होते ही तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के सैनिक आए, और शेख मुजीबुर्रहमान यहीं से गिरफ्तार किए गए. उस रात यह घर समझ गया था कि अब पीछे लौटने का रास्ता नहीं. आजादी का रास्ता खून से होकर जाएगा, और उसकी गवाही इसे ही देनी होगी.
आजादी के बाद 1972 से 1975 तक, यही 32 धानमंडी नए बांग्लादेश की उम्मीदों का घर बना. संविधान, पुनर्निर्माण, विदेश नीति, देश के बड़े फैसले इसी पते से निकलते थे. शेख मुजीबुर्रहमान 'बंगबंधु' कहलाए. राष्ट्रपिता की तरह. लेकिन इस घर ने उन्हें परिवार के बीच इंसान की तरह भी देखा. बच्चों की हंसी, घरेलू बातचीत के बीच यह किसी आम परिवार के आशियाने की तरह भी रहा. सादगी सत्ता के शोर के बीच यह घर मानवीय बना रहा. यहीं पर मुजीब अपनी बेगम फजीलतुन्निसा, बेटे कमाल, जमाल और रसेल, बेटियों हसीना और रेहाना के साथ रहते थे.
फिर आई 15 अगस्त 1975 की वह रात, जिसने इस पते को हमेशा के लिए बदल दिया. गोलियों की आवाजें, चीखें, भागते कदम और फिर सन्नाटा. इसी घर में शेख मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की हत्या कर दी गई. यह सिर्फ एक राजनीतिक हत्या नहीं थी. यह बांग्लादेश की आत्मा पर हमला था. उस रात 32 धानमंडी केवल मकान नहीं रहा, वह शोक बन गया. उसके बाद ताले लगे, खामोशी छाई, और इतिहास को जैसे कोठरी में बंद कर दिया गया.
सालों बाद बांग्लादेश में समय बदला. शेख मुजीबुर्रहमान की एकमात्र सलामत बची बेटी शेख हसीना के हाथ सत्ता आई. और यह घर फिर खुला. बंगबंधु स्मृति संग्रहालय का रूप लेकर. लोग आए, बच्चों ने किताबों से बाहर इतिहास को अपनी आंखों से देखा. तस्वीरें, दस्तावेज, यादें, सब सहेजे गए. लगा कि शायद अब यह घर केवल स्मृति रहेगा, निशाना नहीं.
लेकिन राजनीति ने इसे फिर वहीं खींच लिया. 1975 वाला स्याह साया फिर इस पते पर छा गया. शेख हसीना के निर्वासन के बाद 32 धानमंडी एक बार फिर गुस्से का शिकार बना. अगस्त 2024 में भीड़ आई, नारे लगे, पत्थर चले. कहीं आग लगी, कहीं हथौड़े चले. बार-बार यह कहा गया कि यह घर एक सोच का प्रतीक है, इसलिए इसे तोड़ा जाना चाहिए. हमलों की हर लहर के साथ दीवारें झुलसीं, खिड़कियां टूटीं, और संग्रहालय की स्मृतियां राख होती गईं.
यह घर सवाल पूछता है क्या इतिहास अपराध है? क्या स्मृतियां सत्ता बदलने के साथ दोषी हो जाती हैं? 32 धानमंडी ने किसी के लिए नफरत नहीं फैलाई. उसने तो बस समय को अपने भीतर दर्ज किया. उसने आजादी का सपना देखा, बांग्लादेश को आजाद देश की पहचान दिलाई. फिर तानाशाही का खौफ देखा, लोकतंत्र की बातें सुनी और बंदूकों की भाषा भी झेली.
आज 32 धानमंडी खंडहर है. कुछ लोग चाहते हैं कि यह पता ही मिट जाए, ताकि बीता कल भी मिट जाए. लेकिन, ऐसा कभी होता नहीं. लोगों की जुबान से इस घर के पते का नाम मिटाने की बहुत कोशिशें हुई हैं. इस ऐतिहासिक घर के पते ' हाऊस नंबर- 677, धानमंडी 32' को सरकारी रिकॉर्ड में हाऊस नंबर 10 बना दिया गया है, और उस गली का नंबर कर दिया गया है 11. लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि इतिहास यूं ही नहीं मिटता. दीवारें गिर सकती हैं, पर कहानियां नहीं.
ये 32 धानमंडी है, जिसने बंगबंधु को चलते-फिरते देखा, उनकी हत्या की गवाही दी, और उनकी बेटी के निर्वासन के बाद की हिंसा भी झेली. इसे पूरी तरह ढहा भी दिया गया है, तब भी यह लोगों की ज़ुबान पर जिंदा रहेगा. क्योंकि यह सिर्फ एक घर नहीं बांग्लादेश की स्मृति है. और स्मृतियां, चाहे कितनी बार जलें, राख से फिर उठ खड़ी होती हैं.
धीरेंद्र राय