बीजेपी के लिए राज ठाकरे की राजनीतिक लाइन को पचा पाना काफी मुश्किल है. करीब करीब वैसे ही जैसे 2015 में लालू यादव ने नीतीश कुमार को महागठबंधन का नेता बनाते वक्त जहर पीने की बात कही थी. फर्क बस इतना ही है कि बीजेपी ये सब कहती नहीं, बल्कि कर लेती है.
सिर्फ मराठी मानुष की राजनीति ही नहीं, पूर्वांचल के लोगों के खिलाफ राज ठाकरे का जो रवैया रहा है, उसके चलते भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नेता को अपना पाना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा.
ये ठीक है कि 2014 के लोक सभा चुनाव में राज ठाकरे ने बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का सपोर्ट किया था, लेकिन पांच साल बाद ही पूरी तरह पलट गये. 2019 के आम चुनाव में राज ठाकरे घूम घूम कर वीडियो दिखाते थे, और एक तरीके से मोदी का खुल कर मजाक उड़ाते थे.
बीजेपी आज मोदी की गारंटी वाली राजनीति के साथ चुनाव लड़ रही है, लेकिन पांच साल पहले यही राज ठाकरे मोदी सरकार पर वादे पूरे न करने का इल्जाम लगा कर बीजेपी के खिलाफ कैंपेन चला रहे थे.
2024 आते आते तमाम पुराने समीकरण टूट चुके हैं, और रोज नये नये समीकरण बन रहे हैं, या बनाये जा रहे हैं. बरसों साथ रहे उद्धव ठाकरे और बीजेपी का नाता पूरी तरह टूट चुका है, हो सकता है, चिराग पासवान का केस देख कर मातोश्री में उम्मीदों भरी कोई अनौपचारिक चर्चा भी हुई हो. वैसे भी जब राज ठाकरे को बीजेपी अपनाने को तैयार हो सकती हो, तो आज नहीं कल उद्धव ठाकरे का भी नंबर आ सकता है. कोई कहता फिरे, कल किसने देखा है, लेकिन राजनीति में तो ऐसा ही होता है.
ये जरूर है कि राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में मस्जिदों से लाउडस्पीकर उतरवाने का कैंपेन चलाकर बीजेपी का गुस्सा कम करने की कोशिश की थी. राज ठाकरे ने मौका भी अच्छा चुना था, जब बीजेपी लोक सभा चुनाव की तैयारी कर रही थी, और उद्धव ठाकरे की अगुवाई में बनी महाविकास आघाड़ी सरकार के खिलाफ मुहिम तेज हो चली थी.
बीजेपी नेता अमित शाह और राज ठाकरे की ताजा मुलाकात से ठीक एक साल पहले मार्च के महीने में ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे मिलने उनके घर गये थे. काफी स्वागत सत्कार भी हुआ था, और राज ठाकरे के गठबंधन सरकार में शामिल होने की भी बात हुई थी, लेकिन बात बन नहीं पाई थी.
ताजा मुलाकात को लेकर कहा जा रहा है कि ये सीधी बातचीत है. मतलब, राज ठाकरे की सीधे बीजेपी नेतृत्व से ही बात हो रही है. मतलब, ताजा मुलाकात में एकनाथ शिंदे और अजित पवार जैसे नेताओं की कोई भूमिका नहीं है - और यही वो बात है जो गठबंधन के पक्के होने की तरफ इशारा कर रहा है.
राज ठाकरे को हजम करना आसान नहीं है
राज ठाकरे जब मुंबई की मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकर के खिलाफ कैंपेन चला रहे थे, तभी उनके अयोध्या जाने का भी कार्यक्रम बना था. ये सुनते ही बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह भड़क गये और जोरदार तरीके से विरोध करने लगे. कहने लगे कि जब तक राज ठाकरे पूर्वांचल के लोगों से माफी नहीं मांगते, तब तक उनको अयोध्या में घुसने नहीं देंगे.
बाद में महिला पहलवानों के यौन शोषण के आरोपों से राजनीतिक तरीके से उबरने की कोशिश कर रहे, बृजभूषण शरण सिंह ने तब सबको चुनौती देते हुए कहा था - अयोध्या नहीं, उत्तर प्रदेश की धरती टच नहीं कर पाएंगे.
नतीजा ये हुआ कि राज ठाकरे को अपना अयोध्या दौरा रद्द करना पड़ा था. राज ठाकरे की मराठी मानुष वाली राजनीति दमदार तो है, लेकिन उत्तर भारतीय लोगों के खिलाफ उनकी हिंसक मुहिम पीछा नहीं छोड़ रही है, और बीजेपी के परहेज की बहुत बड़ी वजह ये भी रही है. बीजेपी को हमेशा ही इस बात की आशंका रही है कि राज ठाकरे को साथ लेने पर कहीं ऐसा न हो कि मुंबई और बाकी हिंदी पट्टी में उसे नुकसान उठाना पड़े.
अमित शाह से मुलाकात के दौरान राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे भी साथ थे, और एमएनएस की तरफ से बताया भी गया है कि दोनों पक्षों में लोकसभा चुनावों को लेकर बात हुई है. सुनने में आ रहा है कि चुनावी गठबंधन होने की सूरत में राज ठाकरे को मुंबई में एक लोकसभा सीट दी जा सकती है, खासतौर पर वो जहां उद्धव ठाकरे का सबसे ज्यादा प्रभाव माना जाता हो. ध्यान रहे बर्बाद गुलिस्तां वाले दिनों में उद्धव ठाकरे मुंबई की एक विधानसभा का उपचुनाव भी जीत चुके हैं, हालांकि परिस्थितियां भी बेहद खास थीं.
ये भी खबर आई है कि राज ठाकरे, दक्षिण मुंबई के साथ साथ शिरडी लोकसभा सीट भी चाहते हैं. और इसके पीछे उनकी एमएनएस को राज्य स्तर की पार्टी का दर्जा बचाये रखने की कोशिश बताई जा रही है.
दक्षिण मुंबई सीट को लेकर एक और पेच बताया जा रहा है. बताते हैं कि राज ठाकरे वहां से अपने भरोसेमंद नेता बाला नंदगांवकर को चुनाव लड़ाना चाहते हैं, जबकि बीजेपी की सलाह है कि दक्षिण मुंबई सीट पर अमित ठाकरे यानी उनके बेटे को उम्मीदवार बनाया जाये. ऐसा करके बीजेपी उद्धव ठाकरे का प्रभाव खत्म करना चाहती है, क्योंकि उद्धव ठाकरे के साथ बने हुए मौजूदा सांसद अरविंद सावंत का वो चुनाव क्षेत्र है.
राज ठाकरे को साथ लेने से बीजेपी को क्या हासिल होगा?
1. राज ठाकरे और अमित शाह की मुलाकात की तस्वीर महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी के पांव जमाने की कहानी की दूसरी किस्त का दस्तावेज है. ऐसी मुलाकातें अक्सर होती रहती हैं, लेकिन चीजें सामने तभी लाई जाती हैं, जब मामला ऑफिशियल हो जाता है.
2. बीजेपी के मिशन महाराष्ट्र का ये दूसरा पार्ट है, पहला पार्ट एकनाथ शिंदे के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन की सरकार बनाना था - और ऐसे मामलों में बीजेपी कुर्बानी देने में भी कोई संकोच नहीं करती.
3. कुर्बानी की पहली मिसाल थी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस को डिप्टी सीएम बना दिया जाना - और दूसरी कुर्बानी है, 2019 में घूम घूम कर, वीडियो दिखाकर मोदी का मजाक उड़ाने वाले राज ठाकरे को आगे बढ़ कर गले लगा लेना. वरना, एक बार आंख दिखाने पर उद्धव ठाकरे को बर्बाद कर देने वाला बीजेपी नेतृत्व राज ठाकरे को ऐसे अपनाने के बारे में कभी नहीं सोचता.
4. असल बात ये है कि बीजेपी महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत के साथ होने का संदेश देना चाहती है. ये काम एकनाथ शिंदे को साथ लेकर आगे बढ़ाया गया, और अब राज ठाकरे को साथ लेकर अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश होगी.
5. उद्धव ठाकरे के खिलाफ एकनाथ शिंदे खुद को बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत का असली हकदार बताते हैं, और राज ठाकरे के तेवर में भी शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे वाला ही तेवर देखा जाता रहा है.
बीजेपी से गठबंधन तोड़ कर, शुरू से सियासी दुश्मन रहे कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिलाने का फैसला उद्धव ठाकरे का फैसला उनके खिलाफ हथियार बन गया. जो शिवसेना हिंदुत्व की राजनीति के लिए ही जानी जाती रही, उसी के नेता उद्धव ठाकरे को हिंदुत्व विरोधी बता कर हमला बोल दिया गया.
बीजेपी के हमले की इसी धार को एकनाथ शिंदे ने तेज कर दिया - और अब राज ठाकरे उसी चीज को अपने तेवर में आगे बढ़ाएंगे, बीजेपी की ऐसी ही अपेक्षा होगी. कुल मिलाकर बीजेपी महाराष्ट्र में यही साबित करने की कोशिश कर रही है कि बाल ठाकरे के असली राजनीतिक वारिस, एकनाथ शिंदे और राज ठाकरे उसके साथ हैं, और शिवसेना संस्थापक के संपत्ति के वारिस उद्धव ठाकरे का दायरा सिर्फ मातोश्री तक सीमित है - हालांकि, ये फॉर्मूला बिहार में मिसफिट हो जाता है, क्योंकि वहां बीजेपी की बदौलत ही रामविलास पासवान के संपत्ति के वारिस चिराग पासवान को ही अब राजनीतिक विरासत भी मिल गई है. राजनीति तो ऐसी ही चलती है - और इस पैमाने पर बिहार और महाराष्ट्र की राजनीति में अक्सर कॉमन चीजों की बाढ़ दिखाई देती है.
मृगांक शेखर