गुरु पूर्णिमा: व्यक्तिपरक विकास के प्रति प्रतिबद्धता

गुरु पूर्णिमा व्यक्तिपरक विकास, मोक्ष और मुक्ति की संभावना का उत्सव है. यह सिर्फ उत्सव नहीं है, यह प्रतिबद्धता है कि 'हम विकसित होंगे'. गुरु होना सत्ता का कोई उच्च पद नहीं है, बल्कि प्रतिबद्धता और त्याग का है. आदियोगी ने अपनी आजादी, आनंद और परमानंद का त्याग किया और उनके भीतर जो कुछ भी हो रहा था, उसका संचार करने के लिए प्रतिबद्ध हुए.

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Sadhguru on Guru Purnima Sadhguru on Guru Purnima

सद्गुरु

  • नई दिल्ली,
  • 07 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 7:57 PM IST

कुछ साल पहले, जब एक अमेरिकी पत्रिका ने मेरा साक्षात्कार लिया था, तो मुझसे एक सवाल पूछा था, ‘मानव चेतना के लिए काम करने वाला पश्चिम का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन है?’ बिना किसी हिचक के मैंने कहा, ‘चार्ल्स डार्विन’. उन्होंने कहा, ‘लेकिन चार्ल्स डार्विन एक जीवविज्ञानी हैं’. हां, लेकिन वह पश्चिम के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने लोगों को बताया कि विकास करना संभव है; आप अभी जो हैं, उससे कुछ अधिक बनना संभव है.

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'विकास' शब्द का अर्थ है कोई ऐसी चीज जो धीरे-धीरे खुद को एक उच्च संभावना में रूपांतरित कर रही है. चार्ल्स डार्विन ने आपको बताया कि आप सभी बंदर थे, और फिर आपकी पूंछ गिर गई और आप इंसान बन गए- आपको कहानी पता है. जब आप बंदर थे, तो आपने मनुष्य बनना नहीं चुना था. प्रकृति ने आपको बस आगे धकेला. जब आप पशु प्रकृति में होते हैं, तो विकास वैसे भी होता है- आपको इसमें भाग लेने की वाकई जरूरत नहीं होती. लेकिन एक बार जब आप मनुष्य बन जाते हैं, एक बार जब चेतना का एक खास स्तर आ जाता है, फिर आपका कोई अचेतन विकास नहीं होता. अगर आप सचेतन रूप से खोज करेंगे, सिर्फ तभी विकास होगा.

योग विज्ञान का जन्म

डार्विन ने लगभग दो सौ साल पहले जैविक विकास की बात की थी. आदियोगी शिव, या पहले योगी ने पंद्रह हजार साल से भी पहले आध्यात्मिक विकास की बात की थी. गुरु पूर्णिमा मानवता के जीवन में सबसे महान क्षणों में से एक है. इसी दिन आदियोगी आदि गुरु या पहले गुरु में रूपांतरित हुए थे. उनकी शिक्षा का सार यह है कि इस अस्तित्व में हर परमाणु की- जिसमें सूर्य और ग्रह भी शामिल हैं- अपनी चेतना है; लेकिन इनमें विवेकशील मन नहीं है. एक बार जब विवेकशील मन में चेतना पैदा होती है, तो वह सबसे शक्तिशाली संभावना होती है. यही चीज है जो मानव जीवन को इतना अनोखा बनाती है.

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गुरु पूर्णिमा के दिन, आदियोगी ने अपने पहले सात शिष्यों, सप्तर्षियों को योग विज्ञान का संचार शुरू किया था, और इस अभूतपूर्व संभावना को खोला: कि कोई मनुष्य, अगर वह प्रयास करने के लिए तैयार हो, तो अपनी शारीरिक प्रकृति के द्वारा निर्धारित सारी सीमाओं से परे विकसित हो सकता है. जब हम 'योग' कहते हैं, तो हम आपके शरीर को मोड़ने या आपकी सांस को रोकने की बात नहीं कर रहे हैं. हम जीवन की मूल यांत्रिकी के बारे में बात कर रहे हैं और इस सृष्टि के इस अंश को- आपको- उसकी चरम संभावना तक कैसे ले जाएं. मानव चेतना का यह अभूतपूर्व आयाम, या व्यक्ति के सार्वभौमिक की खिड़की बनने की संभावना, इस दिन उजागर की गई थी.

आदियोगी द्वारा सप्तर्षियों को सब कुछ समझाने वाली वास्तविक शिक्षा कितनी लंबी थी? संख्याएं शायद तथ्यात्मक से अधिक रूपक हैं. शायद इसमें बारह महीने या बारह साल या एक सौ चवालीस साल लगे. हमें नहीं पता. लेकिन जो कुछ भी खोजा जा सकता था, उसे इन सात लोगों के साथ खोजा गया. आदियोगी का संचार पूरा होने के बाद, सात ऋषियों ने योग विज्ञान को दुनिया भर में फैलाने के लिए कदम बढ़ाया. 

हजारों सालों के बाद, आदियोगी द्वारा निर्मित ज्ञान की रीढ़ आज भी लगभग हर उस चीज का स्रोत है जिसे आप धरती पर आध्यात्मिक कह सकते हैं. आज, दुनिया भर में लगभग 2 अरब लोग किसी न किसी रूप में योग का अभ्यास कर रहे हैं. इन सभी वर्षों में, कोई अभियान, पोपतंत्र या बल प्रयोग नहीं हुआ. दूसरी शिक्षाएं और विश्वास प्रणालियां लोगों पर थोपी गई हैं. लेकिन किसी ने किसी के गले पर तलवार नहीं रखी और कहा, 'तुम्हें योग करना ही होगा!' यह अपने विशुद्ध प्रभाव के कारण ही 15 सहस्राब्दियों से अधिक समय से जीवित रहा है.

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प्रतिबद्धता का समय

गुरु पूर्णिमा व्यक्तिपरक विकास, मोक्ष और मुक्ति की संभावना का उत्सव है. यह सिर्फ उत्सव नहीं है, यह प्रतिबद्धता है कि 'हम विकसित होंगे'. गुरु होना सत्ता का कोई उच्च पद नहीं है, बल्कि प्रतिबद्धता और त्याग का है. आदियोगी ने अपनी आजादी, आनंद और परमानंद का त्याग किया और उनके भीतर जो कुछ भी हो रहा था, उसका संचार करने के लिए प्रतिबद्ध हुए. इन हजारों सालों में कई दूसरे शानदार प्राणियों ने इस मार्ग पर खुद को प्रतिबद्ध किया- उस प्रतिबद्धता को बर्बाद न करें. अब समय आ गया है कि आप प्रतिबद्ध हों, अगर हर किसी की खुशहाली के लिए नहीं, तो कम से कम अपनी खुशहाली के लिए, कि इसे जरूर होना चाहिए.

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