बिजागोस आइलैंड. एक ऐसा द्वीप, जिसे जुलाई 2025 में ही यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज साइट यानी विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया. आज यही गंभीर खतरे में है. सफेद रेतीले समुद्र तटों, समृद्ध जैव विविधता और गहरी सांस्कृतिक परंपराओं के लिए मशहूर यह द्वीपसमूह अब ग्लोबल वार्मिंग के बदलते मिजाज के कारण गंभीर संकट का सामना कर रहा है. समुद्र का पानी धीरे-धीरे इन द्वीपों को निगलता जा रहा है.
यह द्वीपसमूह समुद्री कछुओं, दरियाई घोड़ों, करीब साढ़े आठ लाख प्रवासी पक्षियों और मैनाटी जैसी दुर्लभ प्रजातियों के साथ-साथ लगभग 25,000 लोगों का घर है. लेकिन अब इस पर खतरा मंडरा रहा है. पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाऊ के अंटलांटिक तट के पास स्थित इस द्वीप की कहानी पहले ऐसी नहीं थी. गिनी बिसाऊ प्रशासन का कहना है कि 50 साल पहले इस द्वीप का समुद्र तट बहुत चौड़ा हुआ करता था. अब टूटी हुई नावों और ढहती दीवारों से भरा पड़ा है. समुद्री तट अब यहां रहने वाले लोगों के घरों और बुनियादी ढांचे में सेंध लगा रही है. समुद्र हर साल लगातार आगे बढ़ता जा रहा है.
बिजागोस द्वीपसमूह के सबसे अधिक आबादी वाले द्वीपों में से एक बुबाके है. यहां तकरीबन 5,000 लोग रहते हैं और पर्यावरण संकट का सबसे बड़ा दंश झेल रहे हैं. समुद्र किनारे टूरिस्ट कैंप चलाने वाले स्थानील लोगों का कहना है कि अपनी संपत्ति को बचाने के लिए टायरों से बना करीब 10 मीटर ऊंचा बैरिकेड खड़ा करना पड़ा है. फिर भी उन्हें अपने कारोबार के भविष्य को लेकर गहरी चिंता है. उन्हें डर है कि लगातार बढ़ता समुद्र एक दिन उनकी संपत्ति को पूरी तरह निगल सकता है. 2025 की एक रिपोर्ट के अनुसार, तटरेखा हर साल 7 मीटर तक पीछे खिसक रही है.
इससे पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है. इसमें मैंग्रोव वनों का नुकसान और प्राकृतिक आवासों का विनाश शामिल है. इन अहम पारिस्थितिकी तंत्रों के नष्ट होने से द्वीपों की संवेदनशीलता और बढ़ जाती है, जिससे मानव और वन्य जीव दोनों के लिए स्थिति और भी अधिक खतरनाक हो जाती है.
रिपोर्ट के अनुसार, इस पूरी समस्या का बड़ा कारण क्लाइमेट चेंज है. इसके चलते समुद्र का जलस्तर अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़ रहा है. हालांकि, इंसानी गतिविधियों ने भी इस समस्या को और गंभीर बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है. शहरीकरण, समुद्र तटों पर कचरा फेंकना और प्राकृतिक वनस्पतियों का विनाश इन सभी वजहों ने द्वीपों की तटरेखा को कमजोर किया है. इससे वह कटाव के प्रति बेहद संवेदनशील हो गई हैं. जैसे-जैसे द्वीप इन कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, स्थानीय समुदायों और व्यवसायों पर दबाव बढ़ता जा रहा है. इसके उलट समस्या की गंभीरता से निपटने के लिए सरकार या वैश्विक संगठनों से समर्थन बहुत कम मिल रहा है. अंतरराष्ट्रीय संगठनों से मिलने वाली वित्तीय और लॉजिस्टिक सहायता पर्याप्त नहीं है.
खतरा सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं
बात सिर्फ यूनेस्को के सिर्फ इसी हेरिटेज साइट की नहीं है. द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना हो, जॉर्डन की पेट्रा, भारत की एलोरा गुफाएं या फिर तुर्की के पारंपरिक ऑटोमन हाउसेज, अगर इन विश्व-प्रसिद्ध ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान पहुंचता है, तो इन्हें आसानी से बदला नहीं जा सकता. हालिया, वैश्विक आकलन से पता चला है कि यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल लगभग 80% स्थल पहले से ही क्लाइमेट चेंज के खतरों का सामना कर रहे हैं.
इनमें से लगभग हर पांचवां स्थल (19%) पत्थर और लकड़ी जैसी सामग्रियों से बना है, जिन्हें मौजूदा क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग की वजह बड़ा खतरा है. एक स्टडी के मुताबिक, अगर दुनिया 'लो कार्बन एमिशन' यानी 'कम-उत्सर्जन' के उपायों को अपनाती है, तो खतरे में पड़े लगभग 40 फीसदी धरोहर स्थलों की रक्षा की जा सकती है. लेकिन, इसके लिए प्रदूषण कम करने, क्लाइमेट चेंज को सीमित करने के लिए वैश्विक स्तर पर ठोस कार्रवाई जरूरी है. साथ ही, यह भी कि औद्योगीकरण से पहले के स्तरों की तुलना में वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जाए. हालांकि, ग्लोबल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ रहा है. मौजूदा रुझान के मुताबिक, साल 2100 तक वैश्विक तापमान बढ़ोतरी की दर लगभग 2.5 से 3 डिग्री सेल्सियस तक होने की आशंका है. अगर ऐसा ही जारी रहा, तो इन हालातों में बहुत कम स्थलों को ही बचाया जा सकेगा.
चंदन मिश्रा