साहित्य आजतक- मुशायरा: यहां खादी पहनकर लोग जागीरें बनाते हैं

साहित्य आजतक 2017 के अंतिम दिन सातवें सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया. इस दौरान वसीम बरेलवी, मंजर भोपाली, आलोक श्रीवास्तव, शीन काफ निजाम, कलीम कैसर और शकील आजमी ने अपनी शायरियां पढ़ीं.

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साहित्य आजतक, 2017 साहित्य आजतक, 2017

महेन्द्र गुप्ता

  • नई दिल्ली,
  • 12 नवंबर 2017,
  • अपडेटेड 6:23 PM IST

साहित्य आजतक 2017 के अंतिम दिन सातवें सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया. इस दौरान वसीम बरेलवी, मंजर भोपाली, आलोक श्रीवास्तव, शीन काफ निजाम, कलीम कैसर और शकील आजमी ने अपनी शायरियां पढ़ीं. मंच संचालन आलोक श्रीवास्तव ने किया.

शायर शकील आजमी ने मंच संभालते हुए सबसे पहले आज तक को साहित्य को मंच देने के लिए शुक्र‍िया कहा. उन्होंने अपनी शायरी पढ़ी

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परों को खोल जमाना उड़ान देखता है

जमीं पर बैठकर क्या आसमान देखता है

मिला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफाजत कर

संभलकर चल तुझे सारा जहान देखता है

कनीज हो कोई या कोई शाहजादी हो

जो इश्क करता है कब खानदान देखता है

हार हो जाती है, जब मान लिया जाता है

जीत तब होती है, जब ठान लिया जाता है

 एक झलक देख के जिस शख्स की चाहत हो जाए

उसको परदे में भी पहचान लिया जाता है

 जो रंजिशें थीं उन्हें बरकरार रहने दिया

गले मिले भी तो दिल में गुबार रहने दिया

गली के मोड़ पे आवाज देकर लौट आए

तमाम रात उसे बेकरार रहने दिया

न कोई ख्वाब दिखाया, उन गम दिया उसको

बस उसकी आंखों में एक इंतजार रहने दिया

उसे भुला भी दिया, याद भी रखा उसको

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नशा उतार दिया और खुमार भी रहने दिया

कहानी जिसकी थी, उसके ही जैसा हो गया था मैं

तमाशा करते करते खुद तमाशा हो गया था मैं

बुझा तो खुद में एक चिंगारी भी बाकी नहीं रखी

उसे तारा बनाने में अंधेरा हो गया था मैं

बिता दी उम्र मैंने उसकी एक आवाज सुनने में

उसे जब बोलना आया, तब बहरा हो गया था मैं

हर घड़ी चश्मे खरीदार में रहने के लिए

कुछ हुनर चाहिए बाजार में रहने के लिए

मैंने देखा है, जो मर्दों की तरह रहते थे

मस्खरे बन गए दरबार में रहने के लिए

ऐसी मजबूरी नहीं है कि पैदल चलूं मैं

खुद को गरमाता हूं रफ्तार में रहने के लिए

अब तो बदनामी से शोहरत का वो रिश्ता है के

लोग नंगे हो जाते हैं अखबार में रहने के लिए

आगे शायर कलीम कैसर ने मंच संभालते हुए शायरी पढ़ी

जरूरी है सफर, लेकिन सफर अच्छा नहीं लगता

बहुत दिन घर पर रह जाओ तो घर अच्छा नहीं लगता

मुसाफिर के लिए साथी बदलना भी जरूरी है

हमेशा एक ही हो हमसफर अच्छा नहीं लगता

कोशिश ये ज्यादा से न कुछ कम से हुई है

तामीर ए वतन मैं से नहीं, हम से हुई है

हर हाल में नस्लों को भुगतना ही पड़ेगा

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एक ऐसी खता साहिबे आलम से हुई है

कोई आहट कोई खुशबू भी नहीं आती है

मुंतजर कब से हूं मैं, तू भी नहीं आती है

मैं सलीके से शरारत भी नहीं कर सकता

मुझको तो ठीक से उर्दू भी नहीं आती है.

आगे मंच संभालते हुए मंजर भोपाली ने शायरी पढ़ी,

सब ए गम में सुनहरे दिन से ताबीरें बनाते हैं,

हम जख्मों से मुस्तकबिल की तस्वीरें बनाते हैं

हमारे सिर फिरे जज्बात कैदी बन नहीं सकते

हवाओं के लिए क्यों आज जंजीरें बनाते हैं

हजारों लोग खाली पेट हैं इस शहर में फिर भी

यहां खादी पहनकर लोग जागीरें बनाते हैं

यकीं हैं मुझको बाजी जीतने हैं का फता मेरी है

मैं गुलदस्ते बनाता हूं वो शमशीरें बनाते हैं

आगे शीन कैफ निजाम ने अपनी शायरी पढ़ी,

 खामोश तुम थे और मेरे होंठ भी थे बंद

फिर इतनी देर कौन था जो बोलता रहा

कहानी कोई अनकही भेज दे

अंधेरा हुआ रोशन भेज दे

उदासी अकेले में डर जाएगी

घड़ी दो घड़ी को खुशी भेज दे

 फरिश्ते जमीं पर बहुत आ चुके

कहीं से कोई आदमी भेज दे

जमीं पर हमारी बड़ा शोर है

खला से जरा खामोशी भेज दे

अंत में ख्यात शायर वसीम बरेलवी ने मंच संभाला, उनकी नज्में:

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फूल तो फूल हैं आंखों से घिरे रहते हैं

कांटे बेकार हिफाजत में लगे रहते हैं

उसको फुरसत नहीं मिलती कि पलटकर देखे

हम ही दीवाने हैं दीवाने बने रहते हैं

मुनतजिर मैं ही नहीं रहता किसी आहट

कान दरवाजे पर उसके भी लगे रहते हैं

देखना साथ ही न छूट बुजुर्गों का

पत्ते पेड़ों पर लगे रहते हैं तो हरे रहते हैं

ताज महल पर भी वसीम बरेलवी ने शायरी पढ़ी

प्यार की बात जब आई तो दिखाया मुझको

चाहतें ऐसी कि सरताज बनाया मुझको

कौन दुनिया से नहीं देखने आया मुझको

इसी मिट्टी के तो हाथों से बनाया मुझको

भारती होने का एजाज मेरे काम आया

विश्व के सात अजूबों में मेरा नाम आया

बैठे बैठे ये हुआ क्या कि रुलाते को मुझे

अपने ही देश में परदेस दिखाते हो मुझे

मुझको नजरों से गिराते हो तुम्हें क्या मालूम

अपने ही कद को गिराते हो तुम्हें क्या मालूम

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