आज निराला जी की जयंती है. उनके जीवन में घटनाओं की भरमार है. इतने किस्से इतनी जगहों पर छपे हैं कि पूछिए मत. पर भले ही आपने पढ़ा-सुना हो, पर उन्हें याद करने का यह अवसर इस वाकिये को बार बार जीवंत करता है. बात उनके हिंदी प्रेम को लेकर भी है. इस घटना के दो किरदार हैं. बापू व निराला.
हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए महात्मा गांधी का प्रेम जगजाहिर है, पर क्या आपको यह पता है कि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से हिंदी की अस्मिता को लेकर बापू की भिड़ंत हो गई थी, और निराला जी ने अपनी खिन्नता को इतना विस्तार से लिखा कि बापू के आलोचक आजतक इसका इस्तेमाल करते हैं.
हुआ यह कि महात्मा गांधी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति के रूप में एक वक्तव्य दिया कि ‘इस मौके पर अपने दुख की भी कुछ कहानी कह दूं. हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा बने या न बने, मैं उसे छोड़ नहीं सकता. तुलसीदास का पुजारी होने के कारण हिंदी पर मेरा मोह रहेगा ही. लेकिन हिंदी बोलने वालों में रवीन्द्रनाथ कहां हैं? प्रफुल्लचन्द्र राय कहां हैं? जगदीश बोस कहां हैं? ऐसे और भी नाम मैं बता सकता हूं. मैं जानता हूं कि मेरी अथवा मेरे जैसे हजारों की इच्छा मात्र से ऐसे व्यक्ति थोड़े ही पैदा होने वाले हैं. लेकिन जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना है, उसमें ऐसे महान व्यक्तियों के होने की आशा रखी ही जायेगी.”
बस फिर क्या था, बापू के इस बयान के बाद ‘निराला’ जी भड़क गए और उन्होंोने गांधीजी से मिलकर अपने मन की बात रखने की अनुमति चाही. काफी कोशिशों के बाद निरालाजी को गांधीजी से मिलने का समय मिल गया, वह भी सिर्फ 20 मिनट के लिए. निराला जी ने अपनी इस मुलाकात का विवरण स्वयं इन शब्दों में लिखाः
मैंने (गांधीजी से) कहा- ”आपके सभापति के अभिभाषण में हिंदी के साहित्य और साहित्यिकों के संबंध में, जहां तक मुझे स्मरण है, आपने एकाधिक बार पं बनारसीदास चतुर्वेदी का नाम सिर्फ़ लिया है. इसका हिंदी के साहित्यिकों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, क्या आपने सोचा था?”
महात्माजी- ”मैं तो हिंदी कुछ भी नहीं जानता।”
निराला- ”तो आपको क्या अधिकार है कि आप कहें कि हिंदी में रवींद्रनाथ ठाकुर कौन हैं?
महात्माजी- “मेरे कहने का मतलब कुछ और था.”
निराला- ”यानी आप रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसा साहित्यिक हिंदी में नहीं देखना चाहते, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का नाती या नोबल-पुरस्कार प्राप्त मनुष्य देखना चाहते हैं, यह?”
यह संवाद सुन वहां मौजूद सभी लोग सन्न रह गए. लोग ताज्जुब से निराला की तरफ़ देखने लगे. निराला जी ने आगे लिखा है कि-
मैंने स्वस्थ-चित्त हो महात्माजी से कहा- ”बंगला मेरी वैसी ही मात्र-भाषा है, जैसे हिंदी. रवींद्रनाथ का पूरा साहित्य मैंने पढ़ा है. मैं आपसे आधा घंटा समय चाहता हूं. कुछ चीजें चुनी हुई रवींद्रनाथ की सुनाऊंगा, उनकी कला का विवेचन करूंगा, साथ कुछ हिंदी की चीजें सुनाऊंगा.”
महात्माजी- ”मेरे पास समय नहीं है.”
निरालाजी ने लिखा- ‘’मैं हैरान होकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को देखता रहा, जो राजनीतिक रूप से देश के नेताओं को रास्ता बतलाता है, बेमतलब पहरों तकली चलाता है, प्रार्थना में मुर्दे गाने सुनता है, हिंदी-साहित्य-सम्मेलन का सभापति है, लेकिन हिंदी के कवि को आधा घंटा वक्त नहीं देता- अपरिणामदर्शी की तरह जो जी में आता है, खुली सभा में कह जाता है, सामने बगलें झांकता है!’’
खैर, इस बहुत ही संक्षिप्त मुलाकात में, गांधीजी के सामने अपनी बात रखने गए निराला, बड़े खिन्नन मन से वहां से लौटे. लौटने के बाद उन्होंाने बापू के नाम यह कविता लिखी-
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या भजते होते तुमको
ऐरे-गैरे नत्थू खैरे;
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता,
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
लखते हिंदुस्तानी की छवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या अवतार हुये होते
कुल-के-कुल कायथ बनियों के?
दुनिया के सबसे बड़े पुरुष
आदम-भेड़ों के होते भी!
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,
तो क्या पटेल, राजन, टण्डन,
गोपालाचारी भी भजते?-
भजता होता तुमको मैं औ’
मेरी प्यारी अल्लारक्खी,
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
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