'...नशा उतार दिया और ख़ुमार रहने दिया', मोहब्बत-दिलकशी और एहसास की महक से सजी साहित्य आजतक के मुशायरे की शाम

दिल्ली में आयोजित 'साहित्य आजतक 2025' का अंतिम दिन मुशायरे के लिए खास रहा. मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में शकील आज़मी, अज़हर इक़बाल, शबीना अदीब, शारिक कैफ़ी, ज़ुबैर अली ताबिश और अज़्म शकरी ने अपने हुस्न-ए-क़लाम से महफ़िल को रौशन किया. मोहब्बत और एहसास से भरी ग़ज़लों और शेरों पर दर्शकों ने तालियां बजाईं. महफ़िल ने साहित्य और शायरी का जादू बिखेरा.

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साहित्य आजतक 2025 के मुशायरे के कार्यक्रम में शायरों ने शिरकत की. Photo ITG साहित्य आजतक 2025 के मुशायरे के कार्यक्रम में शायरों ने शिरकत की. Photo ITG

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 11:38 PM IST

मुमकिन है इस साल (2025) के मुशायरे का भी नशा उतर जाएगा, लेकिन ख़ुमार बरक़रार रहेगा. देश की राजधानी दिल्ली में आयोजित ‘साहित्य आजतक 2025’ का तीन दिवसीय महाकुंभ रविवार को अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचा. मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में आयोजित इस साहित्यिक महोत्सव ने कला, साहित्य और संगीत के रंगों से फ़िजा को गुलजार कर दिया. अंतिम दिन का मुख्य आकर्षण रहा मुशायरा, जहां शायरी का जादू और ग़ज़लों का सुकून दर्शकों के दिलों में बस गया. महफ़िल में शकील आज़मी, अज़हर इक़बाल, शबीना अदीब, शारिक कैफ़ी, ज़ुबैर अली ताबिश और अज़्म शकरी ने अपने हुस्न-ए-क़लाम से महफ़िल को रौशन किया.

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मोहब्बत, दिलकशी और एहसास की महक से सजी ग़ज़लें और शेर सुनकर दर्शकों ने खूब तालियां बजाईं. हर शेर में इश्क़, जज़्बात और रूहानियत का समां था, और हर ग़ज़ल में लफ़्ज़ों का वही जादू कि जो दिलों को छू जाए. महफ़िल के रंग और शायरों के हुस्न-ए-कलाम ने साहित्य की बगिया में चार चांद लगा दिए. मुशायरे का माहौल ऐसा था कि हर शेर पर दर्शक 'वाह वाह' कहते, क़लम और कलमकार की इस जोड़ी ने दिलों में यादगार लम्हों का सिलसिला बुन दिया. आइए देखते हैं किस शायर ने कौन सा शेर पढ़ा...

मुशायरे की शुरुआत अज़्म शकरी के शेर से हुई. उन्होंने पहला शेर पढ़ा...

दिल के छालों को हथेली पर सजा लाया हूं
गौर से देख मेरी जान मैं क्या लाया हूं
मैंने शहर हमेशा के लिए छोड़ दिया 
लेकिन उस शहर को आंखो में बसा लाया हूं

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इसके बाद उन्होंने अगला शेर पढ़ा...

सुबह तक कैसे गुजारी है, ये अब पूछती है
रात टूटे हुए तारों का सबब पूछती है
तू अब जाने पर तुला है तो जा
जान भी जिस्म से जाती है तो कब पूछती है

उससे मिलने की जुस्तुजू भी है
और वो मेरे रूबरू भी है
अब नो रोएंगे हम ख़ुशी के लिए
गम ही काफी है जिंदगी के लिए
जो हमें जख्म देकर छोड़ गया
हम तड़पते रहे उसी के लिए
जहर भी लग गया दवा बनकर
हमने खाया था खुदखुशी के लिए
उमर भर जिसका इंतजार किया
वो मिला भी तो दो घड़ी के लिए

अज़्म शकरी ने शेर सुनाया...

दिल में हसरत बची ही नहीं
आग ऐसी लगी बुझी ही नहीं
मैं जिसे अपनी जान समझता था
सच तो ये है कि वो मेरी थी नहीं
मुंतज़िर कबसे चांद बैठा है
कोई खिड़की अभी खुली ही नहीं

साहित्य आजतक में शारिक कैफ़ी ने शमा बांध दिया. उनके शेर पर दर्शकों ने खूब ताली बजाई... 

हुआ भी इश्क भी तो हमको बहुत दुश्वार वाला
उसे कुछ रोज वाला है हमें एक बार वाला
हमारा काम तो बस सिर्फ खबरें बेचना है
कहां अख़बार पढता है ओई अख़बार वाला
छिड़ी जब गुफ्तगू तो रात तक चलती रही फिर
न वो इतवार वाला था न मैं इतवार वाला

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सफर हालांकि तेरे साथ अच्छा चल रहा है
बराबर से मगर एक रास्ता चल रहा है
जबानी खेल बनकर रह गया है इश्क अपना
जहां वादे के बदले सिर्फ वादा चल रहा है
हमें ये बीच झगड़े में अचानक याद आया
तो इसके साथ तो झगड़ा हमारा चल रहा है
जवां लोगों की महफ़िल में कहां ले आए मुझको
जिधर देखो उधर कोई इशारा चल रहा है
गलत क्या है जो मेरे हाल पर हंसती है दुनिया
बुढ़ापे आ गया और इश्क पहला चल रहा है

उन्होंने अगला शेर पढ़ा...

रोना हो आसान हमारा
इतना कर नुकसान हमारा
बात नहीं करनी तो मत कर
चेहरा तो पहचान हमारा
खुशफहमी हो जाएगी हमको
मत रख इतना ध्यान हमारा
पहली चोट में जान गए हम
इश्क नहीं मैदान हमारा
जीत गया तेरा भोलापन
हार गया शैतान हमारा
मौत ने आकर बांध लिया था
पहले ही सामान हमारा
रोना हो आसान हमारा
इतना कर नुकसान हमारा

शकील आज़मी के शेर पर तो दर्शक सीट से उठकर झुमने लगे. उनके शेर खासकर युवाओं के लिए थे. उन्होंने शेर सुनाया...   

दिल बसे थे मगर उजड़ रहे थे
हम मोहब्बा की जंग लड़ रहे थे
इश्क के हाथ बुन रहे थे हमें
शक के हाथों से हम उधड़ रहे थे
बात ऐसी कि कोई बात न थी
हम उसी बात पर झगड़ रहे थे
एक ही दिन में सब नहीं हुआ खत्म
हम कई रोज से बिछड़ रहे थे
गांव में बारिशों का मौसम था
और हम मछलियां पकड़ रहे थे
तेरह चौदह वर्ष की उम्र थी वह
हम उसी उम्र में बिगड़ रहे थे

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जो रंजिशें थी उन्हें बरकरार रहने दिया
गले मिले भी तो दिल में गुबार रहने दिया
उसे भुला भी दिया, याद भी रखा उसको, 
नशा उतार दिया और ख़ुमार रहने दिया

फूल का शाख पर आना भी बुरा लगता है
तू नहीं तो जमाना भी बुरा लगता है

ज़रा सा साथ चल के रास्ते में छोड़ देती है
मोहब्बत दिल बनाती है मगर फिर तोड़ देती है
कहानी में मिरी इक छोटा सा किरदार है उसका
मगर वो जब भी आती है कहानी मोड़ देती है

निगाह देर से उलझी हुई किवाड़ में है
वो जा चुकी है मगर थोड़ी सी दरार में है
किसे हटाऊं कोई उसके आस पास नहीं
छुपी हुई वो खुद अपने बदन की आड़ में है

करीब आते हुए इतने पास हो गए थे
कि फिर बिछड़ते हुए हम उदास हो गए थे
हवस को इश्क में शामिल नहीं किया हमने
वो जब भी जिस्म बना हम लिबास हो गए थे

हाल दिल का उसे सुनाते हुए
रो पड़ा था मैं मुस्कुराते हुए
आग मेरी थी न धुंआ मेरा
मैं जला था उसे बुझाते हुए
भीगती जा रही थी एक लड़की
बारिशों में नशा मिलाते हुए

हार हो जाती है जब मान लिया जाता है
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है
एक झलक देख के जिस शख्स की चाहत हो जाए
उसको परदे में भी पहचान लिया जाता है

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परों को खोल जमाना उड़ान देखता है
जमीं पर बैठकर क्या आसमान देखता है

अज़हर इक़बाल ने भी मोहब्बत को समर्पित कई शेर पढ़े. उन्होंने पहला शेर सुनाया...

मेरे मिट्टी का बदन जबसे छुआ है उसने
उठ रही है मेरे मिट्टी से बदन की खुशबू

दिल ये कहता है अगर आप हमारे होते
अब भी प्यारे हैं मगर और भी प्यार होते
मेरी आंखों में चमकते हुए कतरे देखो
अगर ये अश्क न होते तो सितारे होते
देखकर उसको हमेशा ये ख्याल आता है
काश शादी न हुई होती कंवारे होते

परिंदों को शजर अच्छा लगा है
बहुत दिन बाद घर अच्छा लगा है
गले में है तेरी बाहों का घेरा
ये बाइक का सफर अच्छा लगा है

देह को प्रेम का आधार समझ लेते हैं
लोग इस पार को उस पार समझ लेते हैं
एक ही वक़्त में दो लोगों को हो जाये अगर
हम उसे प्रेम का विस्तार समझ लेते हैं

जो पत्थर थी कभी अब फूल होती जा रही है
वो लड़की प्रेम के अनुकूल होते जा रही है
वो जब कॉलेज में आई तो बहुत शालीन सी थी
हमारे साथ रहते हुए कूल होते जा रही है

ये शाम साथ में व्यतीत करके देखते हैं
जो वेदना है उसे गीत करके देखते हैं
हमारे सामने आती है जब वो मृगनैनी
हम उसको और भी भयभीत करके देखते हैं  

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इतना संगीन पाप कौन करे 
मेरे दुख पर विलाप कौन करे
चेतना मर चुकी है लोगों की
पाप पर पश्चाताप कौन करे

शबीना अदीब ने अपने कई शेर तरन्नुम में पढ़े. उनका मशहूर शेर ...तुम्हारी दौलत नई नई है...इसे दर्शकों ने खूब प्यार दिया. शबीना ने शेर की शुरुआत में पढ़ा...

अपना गम इस तरह थोड़ा कम कीजिए
दूसरों के लिए आंख नम कीजिए
कुछ गरीबों के दिल भी संवर जाएंगे
आप अपनी जरूरत को कम कीजिए

इश्क को भी लोग सियासत की तरह करते हैं
हम यही काम इबादत की तरह करते हैं
जिनको दौलत से ज्यादा नहीं प्यारा कुछ भी
वो मोहब्बत भी तिजारत की तरह करते हैं 

ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फ़त नई नई है
अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तुगू में अभी मोहब्बत नई नई है

अभी न आएगी नींद तुम को अभी न हम को सुकूँ मिलेगा
अभी तो धड़केगा दिल ज़ियादा अभी ये चाहत नई नई है

बहार का आज पहला दिन है चलो चमन में टहल के आएँ
फ़ज़ा में ख़ुशबू नई नई है गुलों में रंगत नई नई है

जो ख़ानदानी रईस हैं वो मिज़ाज रखते हैं नर्म अपना
तुम्हारा लहजा बता रहा है तुम्हारी दौलत नई नई है

ज़रा सा क़ुदरत ने क्या नवाज़ा कि आ के बैठे हो पहली सफ़ में
अभी से उड़ने लगे हवा में अभी तो शोहरत नई नई है

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हमेशा इक दूसरे के हक में दुआ करेंगे, ये तय हुआ था
मिले कि बिछड़े मगर तुम्ही से वफा करेंगे, ये तय हुआ था
कहीं रहो तुम कहीं रहें हम, मगर मुहब्बत रहेगी कायम
जो ये खता है तो उम्र भर ये खता करेंगे, ये तय हुआ था

साहित्य प्रेमियों के लिए कार्यक्रम के आखिरी दिन ज़ुबैर अली ताबिश ने कई ऐसे शेर पढ़े जिसे सुनकर दर्शकों ने खूब तालियां बजाईं. उन्होंने शेर सुनाया...

कुछ बोलो तो लहजा समझूं
ख़ामोशी को मैं क्या समझूं
तुम भी कच्चे, मैं भी कच्चा
तो मैं क्या रिश्ता पक्का समझूं

---- समाप्त ----

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