'एक सिगरेट है तू...पिए जाता हूं', साहित्य आजतक के मंच पर कवियों ने जमाई महफिल

साहित्य आजतक 2025 का तीसरा और अंतिम दिन है. कार्यक्रम के एक सत्र में कवि और लेखक प्रोफेसर संगीत रागी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक, कवि और आलोचक ओम निश्चल, और IAS अधिकारी नीतीश्वर कुमार ने अपनी कविताओं से दर्शकों का मनोरंजन किया.

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साहित्य आजतक के मंच पर जाने-माने कवि और लेखक साहित्य आजतक के मंच पर जाने-माने कवि और लेखक

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 3:04 PM IST

Sahitya Aajtak 2025: साहित्य आजतक का आज तीसरा और आखिरी दिन है. दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में आयोजित इस कार्यक्रम में साहित्य और संगीत प्रेमियों का जमावड़ा लगा हुआ है. साहित्य आजतक के सत्र 'गीत गाता हूं मैं, गुनगुनाता हूं मैं' में कवि और लेखक प्रोफेसर संगीत रागी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, कवि और लेखक माधव कौशिक, कवि और आलोचक ओम निश्चल, IAS अधिकारी और कवि नीतीश्वर कुमार ने अपनी कविताओं से दर्शकों का खूब मनोरंजन किया.

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सत्र की शुरुआत में प्रो. संगीत रागी ने अपनी कविता सुनाई-

बिना प्रेम की गहराई में उतरे तुम क्या जानोगे?
रात-रात जागे रहना और बिना आंसू निकले रोना!

पूछने वाले हाल पूछते, यह सब क्या है तुम्हें हुआ?
जी करता है उन्हें झिड़क दूं, क्या तुमको लेना-देना.

तुम जीत गए मैं हार गया

बाजी मैं समझ नहीं पाया, अपनों से उलझ नहीं पाया, 
जीते-जीते यह मार गया, तुम जीत गए मैं हार गया.

सब ध्वस्त हुए सपने अनंत, बंजर बन गया सारा बसंत
चंचल नदी का जो धार गया, तुम जीत गए मैं हार गया.

तेरा मिलना और चुप रहना, आंसू का आंखों में सिंकना
भीतर-भीतर यह मार गया, तुम जीत गए मैं हार गया.

रिश्तों का ऐसे बिखड़ जाना, चलते-चलते बिछड़ जाना, 
जैसे कोई लौट बहार गया, तुम जीत गए मैं हार गया.

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नीतीश्वर कुमार की कविता

नीतीश्वर कुमार ने सत्र के दौरान कहा, 'जब प्रेम की शुरुआत होती है तो दिल हमेशा बच्चा होता है. प्रेम जब शुरू होता है तो गहरा नहीं होता ज्यादा लेकिन धीरे-धीरे जब प्रेम का समय बीतता जाता है और समर्पण बढ़ता जाता है तो हम रहस्यवाद की तरफ जाते हैं. वही बाद में चलकर सूफिज्म हो जाता है जो भक्ति कहलाता है.'

उन्होंने अपनी कविता सुनाई जो इस प्रकार है-

एक सिगरेट है तू, तुझको जीए जाता हूं
तेरी सांसों को समंदर सा पिए जाता हूं,
कश-पे-कश होठ पे धरके उंगलियां चलती हैं
धुआं है... धोखा है... भाई, ये सोचकर डर जाता हूं.


बर्फ सी छूती है मुझे और फिसल जाती है
थोड़ी ही देर सही, सिहरन तू दे जाती है
फिर से पाने को तुझे कश में निगल जाता हूं
सांस मेरी है मगर तुझमें बिखर जाता हूं.

कवि ओम निश्चल की कविता

कवि ओम निश्चल ने अपनी शानदार गजल सुनाई जो इस प्रकार है-

मुझमें नादानियां बची हैं अभी
कुछ तो किलकारियां बची हैं अभी.

फूल होंगे तुम्हारे गमले में
मुझमें भी क्यारियां बची हैं अभी.

ऐ दरख्तों, सुनो न सोना अभी
कहते हैं आरियां बची हैं अभी.

भीड़ से वो घिरा तो है लेकिन
उसमें तनहाइयां बची हैं अभी.

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तुम उसकी सादगी पर मत जाना
उसमें खुद्दारियां बची हैं अभी.

राख जनता तो मत समझ लेना
उसमें चिंगारियां बची हैं अभी.

माधव कौशिक की कविता

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, कवि और लेखक माधव कौशिक ने अपनी कविता सुनाई जिसे सुन दर्शकों ने खूब तालियां बजाई. उन्होंने कहा-

लहू को और भी ज्यादा सियाह मत करना
शहर के वास्ते कस्बे तबाह मत करना

मुसाफिरों के मुकद्दर में राहतें कैसी?
किसी भी मोड़ पर मंजिल की चाह मत करना.

नहीं तो वक्त भी समझेगा आपको बुजदिल,
जलेगा जिस्म मगर मुंह से आह मत करना

कलम हो सर या जुबां को तराश दे दुनिया
किसी भी हाल में नीची निगाह मत करना.

जला सको तो जला दो चिराग आंधी में
जरा सी बात पर सपनों का दाह मत करना.

जमाने वाले मोहब्बत को जो कहे, सो कहे
इसे गुनाह समझकर गुनाह मत करना.

उजाला भीख में मिलता तो सब ले आते
अंधेरी रात से झूठा निबाह मत करना. 

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