मृदुला सिन्हा की 'राजधर्म और लोकधर्म' पुस्तक समय समय पर लिखे उनके आलेखों का संग्रह हैं. इस किताब में शामिल अपने लेखों के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज की राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक वस्तुस्थिति का चित्रण किया हैं. गौरतलब है कि मृदुला सिन्हा हिंदी की ‘पांचवां स्तंभ’ नामक मासिक पत्रिका के संपादकीय दायित्व का र्निवहन करते हुए जिन संपादकीय को लिखा था, उन्हीं में से चुनिंदा लेखों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है.
मृदुला सिन्हा हिंदी साहित्य का जाना-पहचाना नाम हैं. वह साहित्य के साथ-साथ जन सरोकार और राजनीतिक जीवन में बेहद व्यस्त रहीं, फिर भी हिंदी साहित्य की सेवा के लिए समय निकाल ही लिया. मृदुला सिन्हा ने अपने जीवन के शुरुआती दिनों से साहित्य और राजनीति के बीच जो समन्वय स्थापित किया, वह आज तक जारी. वर्तमान में वह गोवा की राज्यपाल हैं. याद रहे कि उनकी पुस्तक 'एक थी रानी ऐसी भी' की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर राजमाता विजया राजे सिन्धिया पर एक फिल्म भी बनी थी. उनकी कहानियों, उपन्यासों और लेखों के विषय अधिकतर सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, स्त्रियाँ, बच्चे और ग्रामीण-जन ही होते हैं.
'राजधर्म और लोकधर्म' में कुल 31, लेख हैं, जो लेखिका के विचार और ऐतिहासिक घटनाओं को हमारे सामने रखते हैं. यह किताब 'पांच वर्ष- पचासों कोस' से शुरू होती है और 'स्वभाषा और शिक्षा' के साथ आखिरी लेख पर समाप्त होती है. कहते हैं लेखक अपने समय का गवाह तो होता ही है, उसकी वैचारिक क्षमता उसे भविष्य का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम बना देती हैं. इस अर्थ में ये लेख एक नई समग्रता की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं, इनमें बहुलताओं का कोलाज़ साफ दिखता है. ये लेख पाठक को बांधने के साथ - साथ पाठक के अन्तःकरण में सीधे प्रवेश करते हैं. इन लेखों में जीवन के प्रत्येक पहलू का वर्णन वास्तविक लगता है.
मृदुला सिन्हा के ये लेख प्रासंगिक होने के साथ-साथ आज के परिवेश और वस्तुस्थिति को भी बखूबी प्रकट करते हैं. ऐसी रचना समाज को प्रेरणा देने के साथ-साथ समाज की दिशा और दशा भी तय करती है. पाठक जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वह भारतीय सभ्यता, समाज, संस्कृति और राजनीति से रूबरू होता जाता है, और 'राजधर्म और लोकधर्म' की यही खासियत उसे सामान्य श्रेणी की किताबों से अलग करती है.
पुस्तक के कुछ अंशों में हम यों इन्हें पढ़ सकते हैँ -
राजधर्म और लोकधर्म में विशेष अंतर नही है, राजधर्म के चूक जाने या भूल जाने पर लोक का जागृत होना आवश्यक है...
भारतीय समाज के लिए भी प्रसन्नता की बात है कि हर काल में कुछ लोग परिस्थितियों और चलन के विपरीत संस्कृति सूत्रों को जीवित रखने के उपाय बोलते और लिखते रहते हैं. वे चावल से कंकड़ निकालने का काम करते रहते हैं. कभी-कभी कंकड़ की मात्रा अधिक हो जाती है, वे उसमें से भी चावल निकाल लेते हैं.
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महिलाएं विकास तो कर रही हैं, पर घर, दफ्तर और बाजारों में सुरक्षित नहीं, भयभीत हैं. उनके जीने और विकास के लिए हमने अब तक सुरक्षित वातावरण का निर्माण नहीं किया है-न घर, न बाहर.
इतना स्पष्ट है कि महिलाओं के अंकुरों को ही सींचना है, इनके व्यक्तित्व का विकास करना है. इसलिए भी कि नारी, मात्र व्यक्ति नहीं, परिवार होती है.
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जनतंत्र के पांचों स्तंभों की कार्यप्रणाली को देखकर कहना होगा कि अपना दायरा और दायित्व भूलने में 'को बड़ छोट कहत अपराधु'.
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‘लोक’ ही हमारा लक्ष्य है. आपातकाल में अपने-अपने ढ़ंग से लोकतंकत्र के पांचों स्तंभ प्रभावित हुए थे. लोक की प्रताड़ना कम भीषण नहीं थी. 1977 का लोकसभा चुनाव परिणाम जिसका साक्ष्य है.
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जीवन के हर क्षेत्र में ‘पुरानी नींव नया निर्माण’ का लक्ष्य होना चाहिए. यह बड़ा भूभाग जिसे हम भारतवर्ष कहते हैं, इसके अंदर एक नहीं, कई भारत हैं.
स्पष्ट है, मृदुला सिन्हा की यह पुस्तक भारत की ऐतिहासिक परम्परा का ठोस साक्ष्य भी उपलब्ध कराती है और यह प्रमाणित करने का प्रयास करती है कि वर्तमान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जड़ें प्राचीन व्यवस्था में उसी रूप में विद्यमान थीं. महत्वपूर्ण बात यह है कि 'राजधर्म' और 'लोकधर्म' इन दोनों विषयों पर अलग-अलग किताबें तो खूब लिखी गईं हैं, लेकिन दोनों के अंतर्संबंधों को उजागर करती हुई, हिंदी की संभवतः यह पहली किताब है. लेखिका मृदुला सिन्हा कलम की महारथी हैं और निरंतर नया खोजने और लिखने के लिए लालायित रहती हैं. मौजूदा भारतीय धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक परिवेश के पीछे की कड़ियों और खासतौर पर सांस्कृतिक मूल्यों से इसके संबंधों की पड़ताल इसमें की गई है.
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पुस्तकः राजधर्म और लोकधर्म
लेखकः मृदुला सिन्हा
विधाः लेख संग्रह
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस
पृष्ठ संख्याः 180
मूल्यः 160/ रुपए
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