पुस्तक अंशः अमेरिका 2020- एक बंटा हुआ देश; भारतीय पत्रकार अविनाश कल्ला की डायरी

दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र होने की दावेदारी करने वाले देश-अमेरिका-के राष्ट्रपति चुनाव का आँखों-देखा हाल बयां करने वाली अविनाश कल्ला की पुस्तक 'अमेरिका 2020: एक बंटा हुआ देश' का सबसे रोचक अंश

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'अमेरिका 2020: एक बंटा हुआ देश पुस्तक का कवर 'अमेरिका 2020: एक बंटा हुआ देश पुस्तक का कवर

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 20 जनवरी 2021,
  • अपडेटेड 11:09 PM IST

दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका सिर्फ वही नहीं है, जैसा मीडिया में दिखाया जाता है. ऐसा बहुत कुछ है जो दुनिया के सबसे विकसित, अमीर और ताकतवर देश की उसकी बहुप्रचारित छवि से मेल नहीं खाता. हमारे सामने अमेरिका की एक चमकती छवि है. हम उसे सुपर पॉवर और सबसे अमीर देश के रूप में जानते हैं. इस रूप में वह भारत समेत तमाम देशों के लोगों के लिए संभावनाओं का देश है, जहाँ पहुँचकर आप अपने सपनों को सच कर सकते हैं. लेकिन यह सिक्के का महज एक पहलू है.

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राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अमेरिका के विभिन्न राज्यों में घूम-घूमकर एक भारतीय पत्रकार अविनाश कल्ला ने जो कुछ देखा, उससे उसकी अलग ही छवि उभरती है. कल्ला ने अपने अनुभव को डायरी की शक्ल में 'अमेरिका 2020- एक बंटा हुआ देश' की मार्फत व्यक्त किया है, जिसे हिंदी में राजकमल के सहयोगी प्रकाशन सार्थक ने छापा है. कल्ला का कहना है कि अमेरिका में मुझे लोगों से यह सुनने को मिला कि वे अमेरिकियों पर विश्वास नहीं करते. यह अविश्वास 6 जनवरी को कैपिटल पर हमले के साथ बिलकुल जाहिर हो गया. अमेरिकी लोगों ने अपनी ही संसद पर हमला कर दिया.

कल्ला ने कहा, इसी कारण मैंने अपनी किताब के शीर्षक में अमेरिका को एक बंटा हुआ देश लिखा. मैं अमेरिकी जनमानस के विभाजन को दिखाना चाहता था. इसको इससे भी समझा जा सकता है कि वाशिंगटन में जितने फौजी हैं उतने तो अफगानिस्तान में नहीं होंगे. लेकिन अमेरिका ने आखिरकार अपने उसूलों के साथ खड़ा होना चुना. अमेरिकी लोकतंत्र से जो चीज सीखी जा सकती है, वह यह कि वहाँ एक पत्रकार राष्ट्रपति के सामने खड़े होकर उससे कह सकता है कि आप झूठ बोल रहे हैं. और उसे शासन फिर भी नहीं रोकता.

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'अमेरिका 2020- एक बँटा हुआ देश' कल्ला की पहली किताब है. कल्ला का जन्म 1 मार्च, 1979 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ. उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग और एमबीए की पढ़ाई के बाद दस वर्षों तक पत्रकारिता की. उसके बाद यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टमिन्स्टर, लंदन से पत्रकारिता में एमए किया. द टाईम्स ऑफ़ इंडिया, मेल टुडे, द हिन्दू, द ट्रिब्यून, डेक्कन हेराल्ड, राजस्थान पत्रिका और गल्फ़ न्यूज़ आदि प्रकाशनों में लिखते रहते हैं और जयपुर में एक अनूठे आयोजन 'टॉक जर्नलिज़्म' के संस्थापक है.

कल्ला ने 'अमेरिका 2020- एक बँटा हुआ देश' पुस्तक का लेखन करने से पहले अमेरिकी चुनाव के दौरान वहां सड़क मार्ग से तकरीबन 18 हजार किलोमीटर की सड़क मार्ग से यात्रा की. इस तरह उन्होंने वहां की सियासत के विभिन्न पहलुओं के साथ साथ आम अमेरिकी लोगों के जीवन-संघर्ष को भी बारीकी से उकेरा है. यह किताब बतलाती है कि व्यापक नागरिक हितों से जुड़े मुद्दों पर व्यावहारिक कदम उठाने के बजाय सियासत का हथियार बनाकर उससे किनारा कर लेने का हुनर अमेरिकी राजनेता भी अच्छे से जानते हैं. ऐसा न होता तो कोविड-19 महामारी वहाँ स्वास्थ्य का मसला बनने की जगह राजनीतिक मुद्दा बनकर न रह जाती. किताब से यह भी पता चलता है कि भारत की तरह अमेरिका में भी ज्यादातर किसान, छात्र, पेंशनर आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं.

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इस किताब से पता चलता है कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव ने रंगभेद, सार्वजनिक स्वास्थ्य, रोजगार, राष्ट्रवाद जैसे अनेक मुद्दों पर अमेरिकी जनमानस में मौजूद विभाजन को सतह पर ला दिया. इसके साथ ही यह अमेरिकी लोकतंत्र की शक्ति को भी रेखांकित करती है, जब निरंकुशता के रास्ते पर बढ़ने की प्रयास कर रहे राष्ट्रपति को सत्ता से बाहर कर दिया गया. साहित्य आजतक पर पढ़िए इस पुस्तक के अंश.

पुस्तक अंशः अमेरिका 2020- एक बंटा हुआ देश  

20 मील प्रति घंटे की गति से शुरुआत करने के कुछ ही देर बाद गाड़ी हवा से बात कर रही थी और द्रोण की उँगलियाँ मोबाइल पर दौड़ रही थीं. रास्ते में फ़िलाडेल्फिया आने वाला था और वह वहाँ से डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार निखिल साँवले से सम्पर्क साधने का प्रयास कर रहा था.

दो घंटे की मशक्कत के बाद निखिल का फ़ोन आया कि हम उनसे 7 से 7:30 के बीच जेफर्सन स्क्वॉयर में मिल सकते हैं. वहाँ पहुँचकर उन्हें फ़ोन किया तो उन्होंने हमें जेफर्सन पार्क में बुलाया और एहतियातन सबसे दो फ़ीट की दूरी पर खड़े होने का अनुरोध किया. उन्होंने माफ़ी भी माँगी और कहा, अभी हालात कुछ ऐसे ही हैं कि जितनी दूरी बनी रहे उतना बेहतर. हमारे लिए भी यह एक चेतावनी थी कि आगे आने वाले दिनों में किस तरह के व्यवहार की उम्मीद की जाएगी.
अभी बात शुरू ही हुई थी कि इन्द्रदेव मेहरबान हो गए. ऐसे में िसर छुपाने के लिए हम सब पेड़ के नीचे पहुँचे. बात सीधे चुनावी सरगर्मियों से शुरू हुई. 2016 के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से ट्रम्प ने डेमोक्रेट्स की नीली दीवार में सबसे पहले यहीं सेंध मारी थी. पिछली बार के तीन स्विंग स्टेट (जहाँ का परिणाम अपने मूल स्वरूप से पलट आता है) में फ़िलाडेल्फिया भी शामिल था.
“ऐसा क्यों हुआ?” मैंने जिज्ञासा की.
“यहाँ के लोगों को हिलरी क्लिंटन पसन्द नहीं आईं. उन्होंने भी इस जगह को अपना परम्परागत वोट बैंक समझकर नज़रअन्दाज़ ही किया और बहुत देर से प्रचार करने आईं.” निखिल ने जवाब दिया.
वे बताने लगे, पेंसिलवेनिया की 40 प्रतिशत आबादी फ़िलाडेल्फिया में रहती है. यहाँ पिछली बार के मुक़ाबले डेमोक्रेटिक सपोर्ट ज़्यादा है. अभी यहाँ बाइडन आगे हैं, अगर यह लीड बरकरार रहती है तो ट्रम्प के लिए मुश्किल होगा.
निखिल भारतीय मूल के हैं, उनके माता-पिता बैंगलुरु से फ़िलाडेल्फिया साठ के दशक में आ गए थे. इस सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए मैंने उनसे पूछा कि भारतीय मूल के वोटर क्या इस बार राष्ट्रपति ट्रम्प को वोट करेंगे?
“पिछले चुनाव में उन्हें भारतीय मूल के लगभग 20 प्रतिशत वाेटरों के वोट मिले थे. इसको देखते हुए, ट्रम्प फ़रवरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के न्योते पर भारत गए थे और अहमदाबाद (गुजरात) में क़रीब एक लाख लोगों से भरे मोटेरा स्टेडियम में कार्यक्रम किया था.”
“इसका कितना असर पड़ेगा?”
सनद रहे कि पिछले दिसम्बर में ब्रिटेन के चुनाव में दक्षिणपंथी विचारधारा वाले भारतीय समूहों ने और ‘ओवरसीज़ फ़्रेंड्स ऑफ़ भाजपा’ ने 23 सीटों पर प्रचार किया और 17 सीटों पर उनके द्वारा समर्थित उम्मीदवार विजयी हुए.
“यहाँ हिन्दू अमेरिकन फ़ाउंडेशन काफ़ी सक्रिय है. उसमें कई बुज़ुर्ग हैं जो फ़ेसबुक और व्हाट्सएप्प पर अपने लोगों के बीच काफ़ी सक्रिय हैं. इस कारण उन्हें लगता है, माहौल उनके अनुकूल है पर ऐसा नहीं है. अगर आप युवाओं से बात करेंगे तो आपको पता चलेगा कि हालात कैसी है.” यह सोचना है निखिल का. उन्होंने कहा, “भारतीय लोग सम्पन्न हैं, पैसा भी ख़र्च करते हैं, पर वोटों के मामले में उनकी संख्या इतनी नहीं है कि वे चुनाव के परिणाम बदल सकें.”
“तो क्या मोदी फ़ैक्टर यहाँ काम नहीं करेगा?”
निखिल का आकलन है, “मोदी भारतीय समाज में कुछ वोटों को प्रभावित करने में सफल भी हो जाएँ तो भी रिपब्लिकन्स को भारतीय वोटरों के 30 प्रतिशत से अधिक मत नहीं दिला पाएँगे.”
पेंसिलवेनिया में चुनाव का परिणाम मूलत: इस बात पर निर्भर करेगा कि ट्रम्प से असन्तुष्ट कितने लोग वोट देने के लिए बाहर निकले.
यहाँ के पश्चिमी क्षेत्र में, जहाँ कभी कारख़ाने हुआ करते थे, वहाँ के लोग मानते हैं कि ट्रम्प अभी भी वहाँ ब्लू कॉलर जाॅब (वे नौकरियाँ जिनमें शैक्षिक योग्यता की ज़रूरत नहीं होती) ले आएँगे. पर ट्रम्प फ़िलाडेल्फ़िया के साथ-साथ पिट्सबर्ग में भी कमज़ाेर हैं. हमें उम्मीद है वो यहाँ बेहतर नहीं कर पाएँगे.
एक डेमोक्रेट होने के नाते उनका यह कहना स्वाभाविक है. पर जब निखिल से पूछा कि क्या बाइडन एक दमदार उम्मीदवार हैं, क्या कमला हैरिस अपना जादू चला पाएँगी तो उनका जवाब था, “देखिए, मैंने बर्नी सैंडर्ज़ के लिए प्रचार किया था, मुझे लगता है वे काफ़ी दमदार कैंडिडेट होते. एलिज़ाबेथ वॉरन भी अच्छी पसन्द होतीं. पर ये पुरानी बातें हैं, अब हम सब बाइडन को जिताने के लिए काम कर रहे हैं.”
“पर बाइडन के कैम्पेन में आपको अभी क्या कमी लग रही है?”
“देखिए, जो का राजनीतिक जीवन 48 वर्षों का है, इतने सालों में आपके कामकाज को बड़ी बारीक़ी से परखा जाता है. कुछ निर्णय ऐसे हो सकते हैं जो जनता को पसन्द ना आएँ.”
“आप उनके लिए वोट कैसे माँग रहे हैं?”
“इन दिनों पूरा-पूरा दिन लैपटॉप के सामने निकल जाता है. फ़ोन, ज़ूम कॉल्स और मैसेज में दिन कब समाप्त हो जाता है, पता ही नहीं चलता.”
“क्या आप डोर नाॅकिंग नहीं कर रहे?”
“अभी नहीं. पर लगता है हम अन्तिम दिनों में ऐसा करेंगे. जब डिलीवरी वाले खाना पहुँचा सकते हैं तो हम वोटर तक क्यों नहीं पहुँच सकते.”
हमने निखिल को अपना समय देने के लिए धन्यवाद दिया और अलविदा कहा.

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डिबेट से ठीक पाँच मिनट पहले हमने चेक इन किया, बड़बोले राष्ट्रपति ट्रम्प और शान्त व सौम्य बाइडन के बीच मुक़ाबला रोचक होना चाहिए. टीवी शुरू करने तक डिबेट के पहले पाँच मिनट निकल चुके थे. न्यूज़ शुरू होते ही देखा, मॉडरेटर फ़ॉक्स न्यूज़ के क्रिस वाॅलेस राष्ट्रपति ट्रम्प को टोक रहे थे : “श्रीमान आप वाइस प्रेसिडेंट बाइडन को बोलने दें, आप उनकी बात बीच में नहीं काट सकते हैं.” वॉलेस को बोलते सुन अचरज हुआ. ऐसा आमतौर पर होता नहीं है, पर यह शायद शुरुआत भर थी.

फिर कुछ पल रुकने के बाद कपिल ने कहा, “अमेरिका की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही की इतनी बड़ी महामारी यहाँ राजनीतिक लड़ाई बन गई. ट्रम्प की राह पर रिपब्लिकन्स ने बिज़नेस को आगे रखते हुए, लॉकडाउन लगाने में देरी की और उतनी सख़्ती नहीं बरती. जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी ने लॉकडाउन को सख़्ती से बरता. फिर क्या था, चुनावी साल होने के कारण कोई पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ. इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते लोगों को बड़ा नुक़सान हुआ.”
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पुस्तकः अमेरिका 2020: एक बंटा हुआ देश
लेखक: अविनाश कल्ला
प्रकाशकः सार्थक, राजकमल प्रकाशन उपक्रम
भाषा: हिंदी
विधाः डायरी/ लेख
पृष्ठः 244
मूल्यः 250/ पेपरबैक
प्रकाशन वर्षः 2021

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