भाषा, भोजन और सोच पर हावी अंग्रेजियत की कलई खोलती है किताब 'वो हिंदी मीडियम वाला'

अमिताभ सत्यम की किताब 'वो हिंदी मीडियम वाला' में अंग्रेजी भाषा के औपनिवेशिक प्रभाव और हिंदी भाषी समाज की मानसिकता पर गहरा विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है. लेखक इंग्लिश-मीडियम शिक्षा के दबाव और स्थानीय भाषाओं की उपेक्षा को उजागर करते हैं.

Advertisement
किताब 'वो हिंदी मीडियम वाला' हिंदी भाषियों पर हावी औपनिवेशिक असर की बात करती है किताब 'वो हिंदी मीडियम वाला' हिंदी भाषियों पर हावी औपनिवेशिक असर की बात करती है

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 24 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 3:16 PM IST

आपने वो इंग्लिश में कहावत तो सुनी होगी- 'An apple a day keeps the doctor away', हिंदी तर्जुमा है कि एक सेब रोज खाएं और डॉक्टर से दूर रहें, कहने का मतलब कि आप स्वस्थ रहेंगे.

लेकिन क्या आप मानते हैं कि ऐसा वास्तव में है? भारत... जो भाषा, बोली, पहनावा, पर्यावरण और खान-पान के साथ फलों के भी मामलों में विविध और समृद्ध है, वहां सिर्फ एक सेब की ही इतनी अनिवार्यता क्यों? कहीं ये हमारे जेहन में बसी चुकी और घर बना चुकी गुलाम मानसिकता की बानगी तो नहीं?

Advertisement

ऐसे ही दिलचस्प सवालों का जवाब लेखक अमिताभ सत्यम् अपनी किताब 'वो हिंदी मीडियम वाला', (THE HINDI MEDIUM TYPES) में देते हैं. वह लिखते हैं कि अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति ने सेब जैसे महंगे फल को ऐसा अनिवार्य बनाया है ,जबकि इसके बजाय अधिक सस्ते और स्थानीय-मौसमी फल कई बार उससे कहीं अधिक लाभदायक साबित होते हैं. वे तर्क देते हैं-अगर आपने इंग्लिश-मीडियम से पढ़़ाई की है तो आप भी यही मानते होंगे कि रोज एक सेब खाने से ही आप स्वस्थ रहेंगे. जबकि अमरूद सेब से कहीं अधिक फायदेमंद है और इसे ग्रामीण भारत में तो गरीबों का सेब भी कहते हैं. इस तरह इंग्लिश की इस कहावत को भारत में बोलना चाहिए कि 'एक अमरूद रोज खाइये, डॉक्टर भगाइये. सेब नहीं'

किताब 'वो हिंदी मीडियम वाला' हमारे सामने परत-दर-परत उन दबाव वाले अहसासों को उधेड़-उधेड़ कर सामने रखती है, जो एक आम हिंदी भाषी, बेवजह ही इंग्लिश बोलने वालों के बीच महसूस करता है. साथ ही डरता भी है कि कहीं वह अयोग्य न समझ लिया जाए. जबकि अपने काम में वह किसी और से अधिक ही दक्ष और योग्य होता है, लेकिन मात खा जाता है उस जगह जहां एक 'अंग्रेज भीड़' का डर दिल-दिमाग पर हावी हो जाता है.  

Advertisement

लेखक ऐसे कई उदाहरणों के जरिए यह सामने रखते हैं कि, औपनिवेशिक गुलामी का दौर अभी मन से निकला नहीं है. पूरी किताब इस बात को बहुत ठोस तरीके से सामने रखती है. विदेशों की अपनी यात्रा के जिक्र के जरिए लेखक यह भी बताते हैं कि कैसे भारतीय आविष्कारों और संस्कृति को भी हड़प लिया गया है. आजादी के बाद भारत कैसे वैश्विक स्तर पर अपनी संस्कृति को प्रोजेक्ट कर पाने में कामयाब नहीं हो पाया.

अमिताभ लिखते हैं कि आजकल तो कोई सोचता भी नहीं कि अंग्रेजी उन विदेशियों की भाषा है जिन्होंने हम पर बलपूर्वक शासन किया और हमारा खूब शोषण किया. करोड़ों भारतीयों को जो कभी विज्ञान, अभियांत्रिकी, साहित्य, चिकित्सा, दर्शन और कला में अग्रणी थे-एक ही झटके में अशिक्षित घोषित कर दिया गया. अंग्रेजी बोलने वालों के निर्णयानुसार, भारत की महानता को एक सिरे से खारिज कर अंग्रेजों की भाषा और संस्कृति को ही श्रेष्ठ बताकर जनमानस पर रोप दिया गया. नौकरी उन्हीं को मिलती थी जो अंग्रेजों की भाषा बोलें और उनका अनुसरण करें. शासन तो उनके हाथ में ही था.

आज हम इस अंग्रेजियत के शिकार सिर्फ भाषा के तौर पर ही नहीं हैं, बल्कि खान-पान और रहन-सहन से भी हैं. अमिताभ अपने पढ़ाई के दिनों का एक वाकया दर्ज करते हैं. वह लिखते हैं कि आई.आई.टी. कानपुर में जब वह एक बार बीमार पड़े तब हॉस्टल से उनके लिए ब्रेड-मक्खन आता था. वह लिखते हैं कि 'ब्रेड-मक्खन हमारे सामान्य भात, दाल, रोटी, तरकारी की तुलना में हानिकारक है. अंग्रेज लोग बीमार होने पर ब्रेड खाते हैं क्योंकि बीफ आदि की तुलना में ब्रेड हल्का आहार है; हमारा तो सामान्य भोजन भी अंगरेजों के इस ‘बीमारों के भोजन’ की तुलना में ज्यादा हल्का है, लेकिन हम उनकी नकल के चक्कर में बीमार लोगों को और भी गरिष्ठ खाना खिला देते हैं.

Advertisement

9 अध्यायों की यह किताब भारत के भाषा विवाद को भी सामने रखती है और उनके जीवित रहने की जरूरत भी बताती है. कई ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जो पाठक को भारतीयता पर पश्चिमी प्रभाव के बारे में सोचने पर मजबूर करते हैं. किताब नाम भले ही 'वो हिंदी मीडियम वाला' हो पर यह देश की हर स्थानीय भाषा की स्थिति पर चर्चा करती है. लेखक का पूरा नजरिया ही किसी भाषा से न जुड़ा होकर ‘देसी सोच बनाम विदेशी सोच’ का है.

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement