मुजफ्फरनगर दंगों का जिन्न एक बार फिर यूपी चुनावों से ठीक पहले बाहर आ चुका है. इस बार वजह है बीजेपी सांसद और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान के गांव से बरी हुए 20 आरोपियों की. इसी हफ्ते जब मुजफ्फरनगर की एक स्थानीय अदालत ने यह फैसला सुनाया तो आजतक की टीम ग्राउंड जीरो पर गई और यह जानने की कोशिश की कि आखिरकार दोनों पक्षों की कहानी क्या है. क्यों अब मुजफ्फरनगर के हाई प्रोफाइल कुतबा और कुतबी गांव में एक भी मुस्लिम नहीं रहते.
अगर 8 सितंबर 2013 को हिंसा और आगजनी हुई तो फिर बरी होने के पीछे की कहानी क्या है. कुतबा और कुतबी गांव के रहने वालों के साथ-साथ वहां से 20 किलोमीटर दूर बुढ़ाना कस्बे में मुस्लिम परिवारों के साथ भी जब बात की, तो कई सारी कहानियां निकल कर सामने आईं.
गांव से विस्थापित मुस्लिम परिवारों के मुताबिक, कुतबा और कुतबी गांव में कभी तकरीबन 500 मुस्लिम परिवार रहते थे. माहौल भाईचारे का था, करीब 5 से 6 पीढ़ियों के इतिहास के साथ. 8 सितंबर को जो कुछ कुतबी गांव में हुआ उसे मुनव्वर धोखा बताते हैं. तकरीबन 40 साल के मुनव्वर 8 साल पहले का मंजर याद करते-करते गुस्से से भर जाते हैं. कहते हैं कि उस रोज वही मारे गए, जिन्होंने गांव वालों पर भरोसा किया. जिन्होंने ये सोचा कि पीढ़ियों की दोस्ती और रिश्तों पर भरोसा किया जा सकता है.
तकरीबन 80 साल के मोहम्मद शफी बताते हैं, ''सुबह 8 बजे चढ़ाई कर दी थी और 8 लोग मारे गए थे.'' लेकिन कोर्ट के फैसले को लेकर मुनव्वर यहीं खामोश नहीं होते, कहते हैं, ''हमारे सुनने में यह आया है कि कई सारे लोगों की रिहाई हुई है. क्यों रिहा किया गया? जबकि हमारे घर के ही 5 लोगों को बेरहमी से काट दिया गया. हम उनकी रिहाई से सहमत नहीं हैं. यह कहां का इंसाफ है? हम इस इंसाफ को नहीं मानते. हम इतने मजबूत तो नहीं हैं कि हथियारों से लड़ाई लड़ें. हम कानून के हिसाब से ही कोर्ट में लड़ाई लड़ेंगे.''
'मेरी पत्नी पर धारदार हथियार से किया गया हमला'
उन्होंने आगे कहा कि मेरे सगे भाई थे, मेरे अब्बू जान थे और साथ ही साथ कई लोग और थे. मेरी वाइफ पर भी धारदार हथियार से हमला किया गया और वह डेढ़ महीने तक कोमा में रही. वहीं, कुछ दूर बैठी कनीज बेगम भी चुपचाप सबकुछ सुनते हुए बोल पड़तीं हैं कि जब उस दिन सुबह हमने दूध निकाल कर रखा और हमारे बच्चे खाना बना रहे थे और तभी हमला हुआ.
उन्हें खाना बनाते हुए छोड़ करके भागना पड़ा ऐसी स्थिति थी उस दिन की. तो कह भी नहीं सकते कि कितनी घबराहट हुई थी उस दिन. हम वहां कैसे चले जाएं हमारा वहां कुछ भी नहीं है क्या रह गया वहां अगर हम वहां पर चले जाएंगे तो हमारे बच्चे फिर काट दिए जाएंगे घर मकान भी हमारा अब नहीं बचा.
उन्होंने बताया कि अब लगभग 5-7 परिवार बुढ़ाना के इस कस्बे में आ गए हैं. कुछ ने घर बेच दिया तो कुछ के घर अब भी कुतबी गांव में ही खाली पड़े हैं. कई विस्तापित मुस्लिम परिवार मुजफ्फरनगर के ही शाहपुर और पलड़ा गांव के आस-पास भी रहते हैं. लेकिन बुढ़ाना से 20 किलोमीटर दूर कुतबा और कुतबी की कहानी इससे बिलकुल अलग है.
इसी हफ्ते 20 लोग दंगे के आरोपों से बरी हुए हैं. उनका भी कहना है कि उन्हें दंगों के मामले में जबरदस्ती फंसाया गया. कइयों ने आजतक से अपनी आपबीती भी सुनाई. निखिल कहते हैं कि जब मुझे आरोपी बनाया गया, तो मेरे पास नौकरी के लिए ज्वाइनिंग की चिट्ठी थी. नौकरी तो गई ही साथ ही 8 साल में उम्र भी निकल गई. पास में ही बैठे दीपक जो कि अभी थोड़ी देर पहले ही भैसों को चारा लगा रहे थे, आजतक से बात करते हुए कहते हैं, ''इसमें हमारा कोई लेना-देना नहीं था हम निर्दोष है निर्दोष ही रहे.
मुस्लिम परिवार क्यों नहीं लौट रहे गांव? सबकी दलीलें अलग
युवाओं के साथ ही कुछ अधेड़ उम्र के गांव वाले और साथ कुछ उम्रदराज़ लोग भी दंगों के आरोपी बनाए गए. 20 लोगों के बरी होने के बाद सब खुश तो हैं लेकिन मुस्लिम परिवार अब भी क्यों नहीं गांव में वापस लौट रहे उसपर सबकी दलील अलग-अलग है. गांव में रहने वाले बबलू बताते हैं कि लौटने को वह कहां तैयार होंगे जो भी हुआ जिसने भी किया, चाहे बाहर वालों ने किया, लेकिन डर का माहौल तो उनके अंदर में बन ही गया तो वह कैसे आएंगे. हमारे बड़े बुजुर्गों ने कहा भी उन्हें आने के लिए दुकान खुलवाएंगे, हाथ भी जोड़ा, पंचायत भी करवाई कि उन्हें आना चाहिए हमने पैसा देने के लिए भी कहा था लेकिन उनमें कुछ हैं, मैं नाम लेना नहीं चाहता जो नहीं आना चाहते हैं.
वहीं, रामपाल सिंह भी अब 60 की उम्र पार कर चुके हैं, लेकिन दंगे के मामले में वो भी नामजद किए गए. एसआईटी की जांच के बाद उनका नाम हटाया गया. आजतक ने जब रामपाल से बात की तो उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि इस गांव में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की कभी कमी नहीं रही. रामपाल कहते हैं “जो मुसलमान है वह भी हमारे भाई हैं और आज भी आना जाना है, पहले भी आना जाना था. लड़कियां भी हमारे यहां आती हैं और शादियों में भी आना जाना है. उन्होंने हमारा नाम ले लिया अब पता नहीं उन्होंने मुकदमे क्या में क्या कहा क्या नहीं कहा तो हमें बरी कर दिया गया. सरकार की वजह से वो डरे हुए हैं इसीलिए उन्हें घर बेचना पड़ा. किसी ने उनके घर पर कब्जा नहीं किया किसी ने परेशान नहीं किया वह अपने मन से मकान छोड़ कर चले गए, अब वह परेशान है और वह यहां आना चाहते हैं. यहां पर कोई रोक नहीं रहा अगर आना चाहते हैं तो उनका स्वागत है. जब से गांव बसा तब से हमारी बुजुर्ग भी साथ रहते थे और उनके बुजुर्ग भी. किसी ने कभी उन्हें नहीं धमकाया.
कुमार कुणाल