जब सिर्फ मोगली के लिए धड़कता था बच्चों का दिल

यहां बात है दिल की, यहा बात है इतवार की, यहां बात है हमारे अल्हड़पन और बेतकल्लुफी की. यहां बात है बचपन की. इन सब को मिला कर कहें तो यहां बात है मोगली की...

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स्नेहा

  • नई दिल्ली,
  • 07 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 6:15 PM IST

सप्ताह में एक दिन आता है इतवार और इसी इतवार को आता था मोगली. सप्ताह में 6 दिन स्कूल व ट्यूशन आने-जाने के बाद आता था इतवार, और हम इस दिन भी अपनी महबूबा नींद से दूरी बना लेते थे. वजह हुआ करता था मोगली  जिसकी तरह चड्ढी पहन कर हम सिर्फ अपने ही नहीं बल्कि पड़ोसियों के आंगन में भी राउंड मारा करते थे. चड्ढी तो आज भी पहनते हैं, मगर अब राउंड नहीं मारते. अब वो बेफिक्री नहीं है. तब सपनों में भी फ्रिसबी ही आता था, कभी नारियल तो कभी दुश्मनों की नाक तोड़ता हुआ. हवा में लहराता हुआ और दूसरों को जलाता हुआ.

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हम साइकिल पर भी बैठ के ऐसे लहरियाते जैसे बघीरा पर बैठे हों. रजाई को फोल्ड करके उस पर ऐसे बैठते जैसे बल्लू पर बैठे हों. दादाजी कपड़े पहनने को कहते और हम उनसे रंग-बिरंगी चड्ढियों की डिमांड करते. कुछ भी खाने को मिलता तो सोचते जैसे हम जंगल में दरबार लगाए बैठे हों और सारे दोस्त हमें जंगल बुक के कैरेक्टर्स ही नजर आते.

पहला प्यार भी शांति से ही हुआ था. शांति की आवाज और उसका जादू तो जैसे सिर चढ़ कर बोलता था. सोते-जागते उसी के सपने आते थे. सपने में भी यदि कोई उसे नुकसान पहुंचाता दिखता तो उसकी जम कर क्लास लगाई जाती थी. बल्लू की भारी आवाज को कॉपी करना और उसकी तरह ही बोलने की प्रैक्टिस करना पसंदीदा शगल हुआ करता था. इसके अलावा अगर कहीं पेड़ दिख जाएं तो उन पर कुछ यूं लटकते, कूदते-फांदते कि जैसे हम ही असली मोगली हों और रूडयार्ड किपलिंग ने हमें देख कर ही जंगल बुक लिखी हो.

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मोगली देखने की शर्त पर कुछ भी कुर्बान किया जा सकता था. चाहे वो हमारा गोली-कंचों वाला डिब्बा हो या फिर हमारा पूरा राज-पाट. वो दूरदर्शन का दौर था और तब मोहल्ले-कॉलोनी में ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन का होना भी स्टेटस सिंबल का पैमाना हुआ करता था. न रंगीन टेलीविजन की भरमार और न ही रिमोट और चैनल बदलने के झगड़े थे. तब मोगली आने से पहले टीवी एंटिना को ठोक-बजा कर चेक कर लिया जाता था. शहर के पावर हाउस वाले को पहले ही संदेश( अल्टीमेटम)  पठा दिया जाता था कि भैया चाहे दिन भर लाइट काट लेना मगर मोगली के टाइम पर लाइट काटी तो फिर अच्छा नहीं होगा.  

गुलजार पहली बार मोगली और जंगल बुक के माध्यम से जुबान पर चढ़े थे. एक वो दिन था और एक आज का दिन है. गुलजार आज भी फेवरेट हैं और जंगल बुक फिर से फिल्म के तौर पर पूरी दुनिया में रिलीज होने वाली है. जंगल बुक का टाइटल गीत आज भी शरीर के सारे रोंगटे खड़ा कर देता है और इस गीत को सुनते हुए लगता है कि बढ़ती उम्र ने हमसे न जाने क्या-क्या छीन लिया? बेतकल्लुफ हंसी और मुस्कान उनमें से अव्वल हैं...

 

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