यूपी में योगी आदित्यनाथ के वंदे मातरम् के मंत्र के कई सियासी मायने निकाले जा रहे हैं. विरोधियों का आरोप है कि ये बीजेपी के भगवा एजेंडे का ही एक औजार है. लेकिन इतिहास को खंगालें तो पता चलता है कि कांग्रेस ने परहेज किया तो बीजेपी ने वंदे मातरम लपक लिया.
ऐसे माहौल में जब वंदे मातरम् गाना जरूरी हो या नहीं इस पर बहस छिड़ी है तो ये जानना भी बेहद अहम है कि वंदे मातरम् को लेकर महात्मा गांधी की क्या सोच थी. आजादी से ठीक पहले गुवाहाटी में एक प्रार्थना सभा के दौरान महात्मा गांधी ने वंदे मातरम् को क्या अहमियत दी थी.
दरअसल जो वंदे मातरम् आजादी की लड़ाई में देशभक्ति का पावर बैंक हुआ करता था, वही वंदे मातरम् आजादी के बाद बदले वक्त में एक अलग ही राजनीतिक राग का प्रतीक बन गया. आलम ये रहा कि संविधान में वंदे मातरम् को राष्ट्रगान जैसा सम्मान और दर्जा दिए जाने के प्रावधान के बावजूद देश का राष्ट्रगीत ही देश की संसद से दूर हो गया.
बीजेपी और शिवसेना जैसी पार्टियों ने जब वंदे मातरम् को अपने तरकश की तीर बनाया, तब इसकी बाकी सियासी विचारधाराओं से दूरी और भी बढ़ गई. राजनीति का रंग ऐसा घुला कि हिंदू राष्ट्रवाद की बात करने वालों के लिए तो वंदे मातरम् ब्ह्मवाक्य बन गया. लेकिन बाकी लोगों के लिए इसे अपनाना उतना ही मुश्किल हो गया.
दूसरी ओर आजादी की लड़ाई के वक्त उठे विवाद ने वंदे मातरम् का पीछा आजादी के बाद भी नहीं छोड़ा. इस्लाम ईश्वर के अलावा किसी और के सामने सिर झुकाने की मनाही जैसी बातें तब भी थी और आज भी उतनी ही शिद्दत से सामने खड़ी हैं.
राममंदिर और यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात करते-करते बीजेपी ने जब लंबे अरसे बाद देश के सबसे बड़े सूबे में प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई तो विरोधियों की नजर में वंदे मातरम् के मायने भी उतने ही प्रचंड हो गए.
कुछ लोगों को अंदेशा है कि वंदे मातरम् के जरिए प्रदेश और देश का तानाबाना बदलने की कोशिश की जा रही है. लेकिन वंदे मातरम् के इन सियासी मायनों के खिलाफ बीजेपी के अंदर से ही आवाज उठने लगी है. जाहिर है कि महात्मा गांधी के वंदे मातरम् के बोल आज भी वही हैं. लेकिन इसके मायने वक्त और सियासत के साथ बदलते जा रहे हैं.
पंकज खेळकर