"घर की बुनियादें दीवारें बामोदर थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाले एक हुनर थे बाबूजी"
इन लाइनों में बाबूजी यानि पिता के न रहने का जो दर्द है, वो जंतर-मंतर पहुंचे उन बच्चों की आंखों में भी दिखा जिन्होंने कर्ज से दबे अपने किसान पिता को खो दिया है. जंतर-मंतर पर किसानों के ऐसे चालीस बच्चे जुटे जिनके पिता अलग-अलग वक्त पर महाराष्ट्र में खुदकुशी कर चुके हैं क्योंकि खेती में नुकसान होने की वजह से वो कर्ज नहीं चुका पा रहे थे और परेशान होकर उन्होंने मौत को गले लगाने का रास्ता चुना. पिता का साया सिर से उठने के बाद परिवार की वो परेशानी तो खत्म हुई ही नहीं जिसकी वजह से उसके मुखिया ने मौत का गले लगाया था, बल्कि उन पर मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ा. इन बच्चों के पास अपनी एक से बढ़कर एक दर्दनाक कहानी है जिसे सुनाने के लिए वो जंतर-मंतर पर बैठी किसान संसद में बताने के लिए आए. इन बच्चों ने धरना आंदोलन कर रहे किसानों से गुजारिश की कि वो किसी भी हाल में मौत का रास्ता न अपनाएं क्योंकि इससे समस्या खत्म नहीं होती बल्कि किसानों के परिवारों के लिए, उनके बच्चों के लिए अभिशाप बन जाती है.
इन चालीस बच्चों में शामिल 15 साल के अशोक पाटिल के पिता विदर्भ में किसान थे. लेकिन उन्होंने कर्ज में दबकर आत्महत्या कर ली. अशोक की उम्र तब महज साढ़े चार साल थी. मां की हालत ऐसी नहीं थी कि वो पूरा परिवार चला सके. इसीलिए अशोक को नासिक के आश्रम में छोड़ दिया और खुद को जैसे-तैसे खेती संभालनी पड़ी. पल्लवी भी नासिक के आश्रम में रहती है और यहीं पढ़ाई कर रही है क्योंकि उसके पिता ने फसल खराब होने के बाद परेशान होकर मौत को पांच साल पहले गले लगा लिया था. लेकिन इससे उससे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ खड़ा हो गया. मां को मजदूरी करनी पड़ती है. घर के हालात ऐसे हैं कि खाने के भी लाले पड़े रहते हैं.
पल्लवी और अशोक राव जैसे कई बच्चे हैं जिनकी जिंदगी में एक चीज ऐसी है जिसने उनके जिंदगी को दुश्वार बना दिया. पिता ने किसानी में नुकसान हुआ तो मौत का गले लगा लिया और इन बच्चों के सिर से पिता का साया उठ गया. परिवार ने मुखिया खो दिया, बचा तो सिर्फ पिता का सूनापन और मुसीबतों का लंबा सिलसिला. ऐसे में बिन पिता के इन बच्चों के लिए जिंदगी आसान नहीं रह जाती.
नासिक में बच्चों के लिए आश्रम चलाने वाले त्र्यंबक गायकवाड़ कहते हैं कि उनके यहां साढ़े तीन सौ से ज्यादा बच्चे हैं, जिनमें 182 लड़कियां हैं. इन सबके सिर से पिता का साया उठा तो आश्रम में शरण लेनी पड़ी. लेकिन सरकार तब भी उनकी सुध नहीं लेती. इसलिए अब वो किसानों के बीच इन बच्चों के लेकर जाते हैं और बताते हैं कि उन पर कितना भी कर्जा हो आत्महत्या का रास्ता ना अपनाएं क्योंकि इसके बाद उनके परिवारों की सुध लेने वाला भी कोई नहीं होता.
किसान अन्नदाता कहलाता है लेकिन खुदकुशी करने के लिए मजबूर है. सरकार सुनती नहीं और कमाई का कोई दूसरा जरिया भी नहीं. अगर एक साल फसल खराब हुई तो मुसीबत, ज्यादा फसल होने पर दाम नहीं मिलते, लागत वसूल नहीं होने पाने की परेशानी, लेकिन ये सब अब किसानों की नियति बन गई है. क्योंकि जिस दौर में सरकारें जरूरतमंद किसानों की बातों को उनकी मांगों को अनसुना कर रही हों उस दौर में किसान आखिर करे तो क्या करे.
कपिल शर्मा