NPA बना बोझ, बैंकों की सेहत सुधारने में सरकार के छूटे पसीने

यदि कांग्रेस सरकार को बैंकों की समस्या के लिए जिम्मेदार मानते हुए कहा जाए कि कांग्रेस की नीतियों को चलते बैंकों के सामने एनपीए का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा हो चुका है तो यह भी कहने से गुरेज नहीं करना चाहिए कि बीते चार साल के दौरान बैंकिंग व्यवस्था को सुधारने में मोदी सरकार द्वारा की गई कवायद से बैंकिंग क्षेत्र की समस्या कम होने की जगह और गंभीर हो गई है.

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यूपीए ने खड़ा किया बैंक एनपीए तो एनडीए ने और उलझा दिया? यूपीए ने खड़ा किया बैंक एनपीए तो एनडीए ने और उलझा दिया?

राहुल मिश्र

  • नई दिल्ली,
  • 23 मई 2018,
  • अपडेटेड 11:28 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फरवरी 2018 में देश की बैंकिंग व्यवस्था की दूर्दशा की ठीकरा पूर्व की यूपीए सरकार पर फोड़ा था. प्रधानमंत्री ने कहा कि बैंक एनपीए की समस्या 100 फीसदी कांग्रेस सरकार के गुनाहों का नतीजा है. यदि कांग्रेस सरकार को बैंकों की समस्या के लिए जिम्मेदार मानते हुए कहा जाए कि कांग्रेस की नीतियों को चलते बैंकों के सामने एनपीए का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा हो चुका है तो यह भी कहने से गुरेज नहीं करना चाहिए कि बीते चार साल के दौरान बैंकिंग व्यवस्था को सुधारने में मोदी सरकार द्वारा की गई कवायद से बैंकिंग क्षेत्र की समस्या कम होने की जगह और गंभीर हो गई है.

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मोदी सरकार ने मई 2014 में सत्ता संभालने के बाद सरकारी बैंकों की स्थिति सुधारने के लिए एक मेगा प्लान तैयार किया. इसके तहत सरकारी बैंकों का प्रोफेश्नल तरीके से संचालन करने के लिए वरिष्ठ पदों पर सही व्यक्ति को बैठाने की कवायद पर जोर दिया गया. इसके लिए मोदी सरकार ने पूर्व सीएजी के नेतृत्व में बैंक बोर्ड ब्यूरो का गठन किया. लेकिन इसके बाद पंजाब नेशनल बैंक में हजारों करोड़ का घोटाला उजागर होने के बाद एक बात पूरी तरह से साफ हो गई कि बीते दो साल के दौरान यह बोर्ड अपनी पारी की शुरुआत भी नहीं कर सका है.

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वहीं ब्यूरो के चेयरमैन पद पर विनोद राय का कार्यकाल पूरा हो चुका है और 1 अप्रैल 2018 से केन्द्र सरकार ने इस ब्यूरो की कमान रिटायर्ड आईएएस अधिकारी भानु प्रताप शर्मा को सौंप दी है. गौरतलब है कि सरकारी बैंकों की स्थिति में सुधार करने के लिए इस ब्यूरो का कामकाज का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कार्यकाल खत्म होते-होते विनोद राय ने ब्यूरो और केन्द्र सरकार ने संवादहीनता का इशारा किया. विनोद राय के मुताबिक उन्होंने अपने दो साल के कार्यकाल के दौरान बैंकों की स्थिति में सुधार करने के लिए कई कड़े कदम उठाने की सलाह दी थी लेकिन केन्द्र सरकार ने उनके सलाहों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. यदि इस बयान में जरा भी सच्चाई है तो सवाल उठता है कि क्या केन्द्र सरकार ने बैंकों को एनपीए की समस्या से निजात दिलाने के लिए अपने सबसे बड़े कदम को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया?

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दरअसल, बीते दो साल के दौरान बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो को दी गई जिम्मेदारी की दिशा में आगे बढ़ने नहीं दिया गया. सरकारी बैंकों के प्रमुखों की नियुक्ति प्रक्रिया से इसे बाहर रखा गया जबकि इसका गठन इसी काम का हवाला देते हुए किया गया था. इतना ही नहीं, केन्द्र सरकार ने बैंक और वित्तीय संस्थाओं की नियुक्ति पर ब्यूरो द्वारा सुझाए गए नामों को नजरअंदाज किया और आगे चलकर ब्यूरो से सुझाव लेना ही बंद कर दिया. इसके चलते सरकारी बैंकिंग प्रक्रिया में राजनीतिक और नौकरशाही हस्तक्षेप कायम रहा और इसका नतीजे आज देश के सामने है जहां पीएनबी जैसे घोटाले में देश के कई और बैंक पिस रहे हैं.

इसके इतर केन्द्र सरकार ने बैंकों के स्वास्थ को दुरुस्त करने के लिए देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में उसके सभी एसोशिएट बैंकों को मर्ज करते हुए

एक विशाल बैंकिंग ढांचा खड़ा करने की कवायद की.  इस फैसले के बाद स्टेट बैंक ने 17 साल में पहली बार 2,400 करोड़ रुपये के घाटे का तिमाही नतीजा पेश किया.

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इसके बाद जिस एक घटना ने पूरी बैंकिंग व्यवस्था के सामने सबसे गंभीर चुनौती पेश की वह पंजाब नेशनल बैंक का 11,400 करोड़ रुपये का घोटाला था. इस घोटाले में दो महत्वपूर्ण पहलू सामने आए. पहला, कि इस घोटाले को बैंक के एक वरिष्ठ अधिकारी की शह पर अंजाम दिया गया. वह वरिष्ठ अधिकारी घोटाला उजागर होने के बाद रिटायर भी हो चुका है. दूसरा, बैंकिंग व्यवस्था की रीढ़ माना जाने वाला मनी ट्रांसफर के स्विफ्ट सिस्टम का दुरुपयोग. इन दो खामियों के चलते हुए घोटाले से एक बात फिर साफ है कि यदि बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो को दी गई जिम्मेदारियों पर खरा उतरने दिया गया होता तो आज देश के सामने एक सुरक्षित और मजबूत बैंकिंग व्यवस्था रहती.

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इन सभी कवायदों के बाद अब केन्द्र सरकार एक बार फिर बैंकिंग सुधार को लेकर दोराहे पर खड़ी है. उसके सामने पहला सवाल है कि क्या वह अपनी पुरानी नीति के तहत देश में एक बड़ा सरकारी बैंकिंग ढांचा खड़ा करे या फिर सरकारी ढांचे में निजी बैंकों को शामिल करे जिससे एनपीए की समस्या से निजात मिल सके. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि केन्द्र सरकार ने बैंकिंग व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए एक ऐसे भूचाल पर से ढक्कन हटा दिया है जिसे संभालना अब मुश्किल होता जा रहा है.

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