G-23 का द्वंद: गांधी कुनबे के लिए बड़ी चुनौती, 2 मई है डेडलाइन, क्या नेतृत्व का संकट खत्म होगा?

अगर 2 मई 2021 के बाद कांग्रेस असम में सर्बानंद सोनोवाल को और केरल में पी विजयन को सत्ता से बेदखल करने में नाकामयाब रहती है तो कांग्रेस को एक कर उसका नेतृत्व अपने हाथ में लेने की राहुल गांधी की संभावनाएं गहरे पानी में गोते लगाते नजर आएंगी.

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जम्मू में G-23 से जुड़े कांग्रेस के असंतुष्ट नेता (फोटो- पीटीआई) जम्मू में G-23 से जुड़े कांग्रेस के असंतुष्ट नेता (फोटो- पीटीआई)

रशीद किदवई

  • नई दिल्ली,
  • 28 फरवरी 2021,
  • अपडेटेड 10:36 PM IST
  • 2 मई के बाद पहले जैसी नहीं रहेगी कांग्रेस की राजनीति
  • कांग्रेस में प्रेशर ग्रुप बनकर उभरा G-23 समूह
  • राहुल को G-23 से हर राज्य में मिल रही चुनौती

'दीवार क्या गिरी मेरे खस्ता मकान की, लोगों ने मेरे सेहन में रस्ते बना लिए' क्या 2 मई 2021 के बाद गांधी कुनबा सिब्त अली सबा के इस दोहे को गुनगुनाएंगे?

कांग्रेस के असंतुष्टों और पार्टी नेतृत्व के बीच खींचतान एक निर्णायक दौर में पहुंच गया है. लंबे समय से चल रहे इस जंग के नतीजे पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर निर्भर करता है. विधानसभा चुनाव के ये नतीजे 2 मई 2021 को आने वाले हैं.

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सोनिया, राहुल और प्रियंका की तिकड़ी के नेतृत्व में गांधी कुनबा चुनावी सफलता हासिल करने के लिए बेकरार है. लेकिन अगर हाल में आए एक ओपिनियन पोल पर यकीन किया जाए तो तमिलनाडु को छोड़कर जहां कि कांग्रेस जूनियर पार्टनर की भूमिका में है, भारत की इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी को दूसरे राज्यों में चुनावी सफलता मिलने के कम ही आसार हैं. गांधी परिवार के लिए ये एक चिंताजनक संकेत है जो कि कठिन मेहनत कर असम और केरल के चुनावी पूर्वानुमानों को झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं.  

अगर 2 मई 2021 के बाद पार्टी असम में सर्बानंद सोनोवाल को और केरल में पी विजयन को सत्ता से बेदखल करने में नाकामयाब रहती है तो कांग्रेस को एककर उसका नेतृत्व अपने हाथ में लेने की राहुल गांधी की संभावनाएं गहरे पानी में गोते लगाते नजर आएंगी.  

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ऐसी स्थिति में उन्हें या तो उन्हें 'स्वतंत्र और निष्पक्ष' चुनाव करवाने होंगे, जिसमें की गांधी परिवार का कोई भी व्यक्ति रेस में नहीं होगा, या फिर उन्हें कांग्रेस के 87वें अध्यक्ष के रूप में खुद को स्थापित करना होगा, इसकी वजह से चाहे कांग्रेस में और टूट क्यों न हो जाए. इन दोनों परिदृश्यों में गांधी परिवार का अथॉरिटी और राजनीतिक नेतृत्व कमजोर होता दिखता है. 

इस असहज स्थिति को भांपते हुए गांधी परिवार के राजकुमार ने देश के दक्षिणी हिस्सों में फोकस करने का फैसला किया है, जैसे कि केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी. राहुल गांधी की ओर से हाल ही में उत्तर बनाम दक्षिण को लेकर दिए गए बयान के बाद केरल राहुल गांधी के बेहद अहम हो गया है. 
 
प्रियंका गांधी असम में कांग्रेस की संभावनाओं को तलाशने और पुनर्जीवित करने में जुटी हैं. प्रियंका ने असम में चुनाव प्रचार का फैसला किया है, इसके लिए वह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल के उस आकलन पर भरोसा कर रही हैं जहां उन्होंने कहा है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन असम में आश्चर्यजनक रूप से फेरबदल कर सत्ता में वापसी करेगा. 

असम में बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के बीजेपी से टूटकर कांग्रेस के नेतृत्व में बने गठबंधन महाजोत में शामिल होने से राज्य में चुनावी जंग रोचक हो गया है. हालांकि असम के ओपिनियन पोल बीजेपी की जीत का स्पष्ट संकेत कर रहे हैं, लेकिन ये ओपिनियन पोल तब किए गए थे जब बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट बीजेपी के साथ थी. 

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इधर कांग्रेस के असंतुष्टों का गुट, जिन्हें मीडिया में G-23 के नाम से ख्याति मिली है, भी चुपचाप नहीं बैठा है. उन्होंने शनिवार 27 फरवरी को जम्मू में एक जमावड़ा कर अपनी मौजूदगी का एहसास करा दिया है. 
 
गांधी ग्लोबल मीट में की गई इन नेताओं की घोषणा को न तो विद्रोह कहा जा सकता है और न ही पार्टी की अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को पार करना कहा जाएगा, लेकिन इन नेताओं ने कुछ ऐसा संकेत दिया है जो असहजता से आगे की स्थिति को दर्शाता है. कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति से परिचित लोगों का कहना है कि G-23 में शामिल कम से कम 8 नेताओं ने पार्टी के स्थापित नेतृत्व के खिलाफ पब्लिक में जाने का फैसला कर लिया है.  

गांधी परिवार के लिए जो चिंताजनक बात है वो यह है कि पार्टी के कई प्रभावी नेता इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं. गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, भूपिंदर सिंह हुड्डा, विवेक तन्खा जैसे नेताओं की प्रतिक्रियाओं का जवाब रणदीप सिंह सुरजेवाला, अभिषेक मनु सिंघवी, पवन खेड़ा, सुप्रिया श्रीनेत और पार्टी दूसरे प्रवक्ताओं ने दिया है.  

लेकिन पार्टी के सीनियर मोस्ट नेताओं की श्रेणी में गिने जाने वाले नेता जैसे पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह, एके एंटनी, पी चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे के अलावा, डीके शिवकुमार, जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, प्रमोद तिवारी, नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेताओं ने गंभीर चुप्पी कायम रखी है. ये नेता AICC सचिवालय का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन सामूहिक रूप से कांग्रेस परिवार के भीतर बहुत दमखम रखते हैं. 
 
पिछले साल जब पार्टी के असंतुष्ट नेताओं ने अगस्त में एक चिट्ठी लिखी थी जो एमपी के पूर्व सीएम कमलनाथ ने तब मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी, तब उन्होंने G-23 के नेताओं और 10 जनपथ के बीच एक मीटिंग भी करवाई थी. लेकिन तब कथित तौर पर कुछ विचार-विमर्श का पालन नहीं किया गया. 

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वरिष्ठों में शुमार अंबिका सोनी ने समझौता कराने की पहल की, लेकिन ज्यादातर असंतुष्टों के लिए वह 10 जनपथ की बहुत नजदीकी हैं, जजमेंटल हैं और कई बार बजाय इसके कि वे बिना पक्षपात के काम करें, उन्हें अपने समर्थकों को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक हुए देखा जा सकता है. लेकिन कांग्रेस नेता मोती लाल बोरा और अहमद पटेल अपने समय में इस कला में माहिर थे. हालांकि ये दोनों सोनिया के प्रति अत्यंत वफादार थे, लेकिन साथ ही अगर किसी को पार्टी आलाकमान तक कुछ कहना होता तो ये इनकी सुनते और उनके उदगार को पार्टी फोरम पर जगह मिलती थी. 

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कांग्रेस के एक दूसरे संकटमोचक तब 10 जनपथ पर नजर आ रहे थे, जब पार्टी के असंतुष्ट नेता जम्मू में आतंरिक लोकतंत्र के लिए आवाज उठा रहे थे. 

क्या यह सोनिया गांधी द्वारा गहलोत को पार्टी के एक नेता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास था? या फिर राजस्थान के मुख्यमंत्री अमन कायम करनेवाले के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे? बता दें कि राजस्थान का सीएम बनने की महात्वाकांक्षा रखने वाले सचिन पायलट अब गांधी परिवार से चाहते हैं कि उनके साथ जो वादा किया गया है उसे पूरा किया जाए. हालांकि पायलट कैंप इस बात पर जोर देते हैं कि वे G-23 ग्रुप में शामिल नहीं होंगे. 

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कांग्रेस की इस जंग में पैंतरेबाजी के लिए स्पेस बहुत कम है. यदि अगली उपलब्ध वैकेंसी से गुलाम नबी आजाद को राज्यसभा में जगह दे भी दी जाती है तो इसकी बहुत कम गुंजाइश है कि G-23 संतुष्ट हो जाएगा. एक साथ मिलकर इन नेताओं का ये ग्रुप एक दबाव समूह बन गया है जो लगभग हर राज्य में राहुल गांधी की अथॉरिटी को चैलेंज कर रहा है. 

माना जाता है कि G-23 के पास एक प्लान बी भी है. हालांकि इसकी रुपरेखा अभी कुछ तय नहीं है, लेकिन अगर 2 मई को कांग्रेस नाकामी के सागर में गोते लगाती है तो एक बार फिर फोकस शरद पवार और ममता बनर्जी पर आ जाएगी, हालांकि इसके लिए जरूरी है कि ममता बनर्जी बंगाल को अपने हाथ में रख पाने में कामयाब रहे. 
 
G-23 के कुछ पात्र चाहेंगे कि डीएमके के स्टालिन कांग्रेस के नए संगठन के साथ राजनीति करें जिसमें कि पार्टी छोड़ नेता शामिल हैं, और वे सफलतापूर्वक अपना राजनीतिक संगठन चला रहे हैं. हालांकि कहना हमेशा आसान होता है और करना कठिन. लेकिन 2 मई के बाद महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीति पहले जैसी नहीं रहने वाली है.   

(पत्रकार रशीद किदवई 24 अकबर रोड और सोनिया ए बायोग्राफी के लेखक हैं) 

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