तीन तलाक पर बैन लगने के बाद अब 'तलाक-ए-हसन' को लेकर सियासी विवाद खड़ा हो गया है. सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को तलाक-ए-हसन के एक मामले में सुनवाई करते हुए सख्त टिप्पणी की है. सर्वोच्च अदालत ने कहा कि किसी भी सभ्य समाज में इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती. अगर नोटिस या तलाकनामे पर खुद पति के दस्तखत नहीं हैं, तो ऐसे तलाक को वैध नहीं माना जा सकता है.
बेनजीर हिना को उनके पति यूसुफ ने तलाक-ए-हसन के जरिए तलाक दिया था. इसे लेकर बेनजीर हिना ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि 'मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट, 1937' की धारा 2 को शून्य घोषित किया जाए. यह धारा मुसलमान पुरुषों को एकतरफा तलाक देने की इजाजत देती है.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली तीन जजों, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस कोटिश्वर सिंह की पीठ, बेनजीर हिना बनाम भारत संघ मामले की सुनवाई करते हुए तलाक-ए-हसन पर सवाल उठाए. कोर्ट ने सवाल किया कि क्या आधुनिक और सभ्य समाज में ऐसी परंपरा स्वीकार की जा सकती है. इस भेदभावपूर्ण प्रथा का आविष्कार कैसे हुआ? यह कैसे वैध माना जा सकता है?
तलाक-ए-हसन क्या है?
इस्लामिक शरियत में तलाक के कई प्रकार हैं. इसी में एक तलाक-ए-हसन की प्रक्रिया है तलाक-ए-हसन का अर्थ है कि पति अपनी पत्नी को पवित्रता (तुहर) की अवधि के दौरान तीन बार तलाक देता है. तलाक-ए-हसन में पति पहली बार तलाक देता है। फिर एक माहवारी (एक महीने) का इंतजार किया जाता है. उसके बाद दूसरी बार तलाक दी जाती है। फिर एक और माहवारी का इंतजार होता है,. फिर तीसरी बार तलाक दी जाता है.
तीन महीने की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान पति-पत्नी एक ही घर में रह सकते हैं, बात करने का और अपने व्यवहार पर सोचने का मौका मिलता है. पहली और दूसरी तलाक के बाद वापस जुड़ने का पूरा मौका रहता है, लेकिन तीसरे महीने तीसरी तलाक देने के बाद रिश्ता हमेशा के लिए खत्म हो जाता है.
तलाक-ए-अहसन क्या है?
तलाक-ए-हसन के अलावा तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) में शख्स एक बार में कई बार तलाक बोलता है, इसमें मियां-बीवी के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं होती और शादी मौके पर ही खत्म हो जाती है. भारत में तीन तलाक प्रतिबंधित हो गया है, लेकिन तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन अभी भी बरकरार हैं.
तलाक-ए-अहसन भी तीन महीने की प्रक्रिया है, इसमें तलाक-ए-हसन की तरह तीन बार तलाक कहने की जरूरत नहीं होती, बल्कि पति एक बार ही तलाक कहता है, जिसके बाद पति-पत्नी एक ही छत के नीचे तीन महीने तक रहते हैं. इस अवधि में अगर दोनों में सुलह हो जाती है तो तलाक नहीं होता, वरना तीन महीने बाद तलाक हो जाता है. इन दोनों प्रक्रियाओं में पति-पत्नी को फैसला लेने के लिए वक्त मिलता है.
तलाक-ए-हसन पर क्या-क्या एतराज है?
तलाक-ए-हसन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाने वाली बेनजीर हिना ने aajtak.in से बातचीत में बताया कि तीन तलाक के बैन किए जाने के बाद तलाक-ए-हसन के जरिए मुस्लिम समुदाय में शादियां खत्म की जा रही हैं. तलाक-ए-हसन की प्रक्रिया का काफी गलत इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस पर न ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड गौर कर रहा है और न ही मुस्लिम उलेमा कोई कदम उठा रहे हैं.
बेनजीर हिना कहती हैं कि मेरे पति यूसुफ ने खुद के बजाय अपने वकील के जरिए मुझे तीन अलग-अलग महीनों में 'तलाक-ए-हसन' की नोटिस भेजीं, पहला नोटिस 19 अप्रैल 2022 को, दूसरा19 मई 2022 और तीसरा 19 जून 2022 के आसपास भेजा। हर नोटिस में एक तलाक का जिक्र था, लेकिन नोटिस पर यूसुफ के खुद के साइन नहीं थे, बल्कि उनकी जगह पर वकील के साइन थे.
तलाक की जो नोटिस जिस पते से भेजी गई थी, वह भी मेरे पति के बजाय वकील के ऑफिस का पता था. तलाक देने के लिए सामने भी नहीं आए. ये इस्लामी और संवैधानिक दोनों तरह से गलत है। पुरुषों को एकतरफा शादी तोड़ने और दूसरी शादी करने की छूट मिली हुई है, जबकि मुस्लिम महिला जाए तो कहाँ जाए.
याचिकाकर्ता बेनजीर हिना कहती हैं कि तलाक की तीन नोटिस भेजने के बाद उनके पति ने दूसरी शादी कर ली. तलाक-ए-हसन की पहली नोटिस आने के बाद जब उनके परिवार ने यूसुफ से संपर्क करना चाहा तो उन्होंने अपने सारे फोन बंद कर लिए थे. इसके बाद उनके रिश्तेदारों ने भी सारे नाते तोड़ लिए थे.
ये मामला सिर्फ बेनजीर हिना के ही साथ नहीं हुआ, बल्कि कई मुस्लिम महिलाओं के साथ भी हुआ है, जिनके केस सुप्रीम कोर्ट में हमारे केस के साथ चल रहे हैं. तलाक-ए-हसन का सहारा लेकर नोटिस भेजिए और दूसरी शादी कर लीजिए, क्या इस्लाम इस बात की इजाजत देता है, जहां पुरुष एकतरफा फैसला ले रहा है.
याचिका पर सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट रिजवान अहमद ने बताया कि याचिकाकर्ता का पति खुद भी वकील है और उसने दूसरे वकील के जरिए तीन नोटिस भेजकर तलाक की प्रक्रिया पूरी की और फिर दूसरी शादी कर ली.
बिना पति के दस्तखत वाले तलाकनामे पर भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि बाद में वही पति यह दावा कर सकता है कि उसने कभी तलाक दिया ही नहीं, जिससे महिला पर बहुविवाह का आरोप तक लग सकता है. उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी स्थिति में महिला जब भी दोबारा शादी करना चाहेगी, तो कोई भी पुरुष उस 'अवैध तलाक' का हवाला देकर इंकार कर सकता है.
तलाक-ए-हसन के पक्ष में क्या-क्या तर्क?
इस्लामी स्कॉलर एडवोकेट मुफ्ती ओसामा नदवी कहते हैं कि इस्लाम में शादी एक समझौता है, जो पति और पत्नी के बीच होता है. ऐसे में अगर उनके बीच रिश्ते खराब हो जाते हैं और एक-दूसरे के साथ गुजर-बसर नहीं हो सकता है, तो उसे खत्म करने के लिए तलाक की प्रक्रिया रखी गई है. इस्लाम में विवाह विच्छेद को तलाक कहा जाता है। यह वैवाहिक संबंध को कानूनी तौर पर समाप्त करने की प्रक्रिया है.
इस्लाम में तलाक के कई प्रकार हैं, जिनमें तलाक-ए-बिद्दत यानी तीन तलाक, तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन शामिल हैं. कोई मुस्लिम पति अगर अपनी पत्नि के साथ रिश्ते खत्म करना चाहता है तो इन तीनों तरीकों से अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है. इसके अलावा पत्नी को भी अपने पति से तलाक लेने का अधिकार है, जिसे 'खुला' कहा जाता है. तलाक-ए-बिद्दत भारत में प्रतिबंधित है, लेकिन तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन का विकल्प है। इसकी इजाजत इस्लाम और संविधान दोनों देते हैं.
कुरान में तलाक के बारे में बताया गया है कि "तलाक दो बार है, उसके बाद या तो पत्नी को सम्मान के साथ अपने पास रखा जाए, या अच्छे तरीके से अलग कर दिया जाए - (सूरह बकरा 229. अगली आयत में कहा गया है कि अगर पति तीसरी बार तलाक दे दे, तो पत्नी के साथ उसके रिश्ते खत्म हो जाते हैं। तलाक-ए-हसन की प्रक्रिया का अगर कोई गलत इस्तेमाल कर रहा है तो वह तलाक नहीं होगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तलाक की प्रक्रिया ही गलत है.
मुफ्ती ओसामा नदवी कहते हैं कि तलाक-ए-हसन एक बार में नहीं दिया जाता. इसमें पति लगातार तीन महीनों में एक बार 'तलाक' कहता है. पहले व दूसरे बार 'तलाक' कहने के बाद भी पति-पत्नी के बीच सुलह की गुंजाइश बनी रहती है. अगर इस बीच वे वैवाहिक संबंध फिर से स्थापित कर लेते हैं, तो तलाक की प्रक्रिया शून्य हो जाती है. यह कुरान के उन सिद्धांतों के अनुरूप है जो विवाह को समाप्त करने से पहले चिंतन और सुलह के प्रयास पर जोर देते हैं.
वह कहते हैं कि इस्लाम शादी को बचाने का पूरा मौका भी देता है, लेकिन उसके बाद भी पति-पत्नी सहमति नहीं होते हैं तो वह अलग हो सकते हैं. यह एक सुधारात्मक और धार्मिक रूप से स्वीकृत प्रक्रिया के रूप में है जो पति-पत्नी को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का समय देती है.
मुफ्ती ओसामा नदवी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी मानता है कि बेनजीर के मामले में जो प्रक्रिया अपनाई गई है, वह गलत है, तलाक-ए-हसन गलत नहीं है। भारतीय संविधान मुसलमानों को उनके शरियत के लिहाज से अपने शादी, तलाक जैसे मामले की इजाजत देता है.
'मुस्लिम शरीयत के एप्लीकेशन एक्ट, 1937', मुस्लिमों को उनके धार्मिक कानून के अनुसार तलाक सहित व्यक्तिगत मामलों का पालन करने की अनुमति देता है. यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रदान की गई धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत आता है महाराष्ट्र हाईकोर्ट ने भी माना है कि तलाक-ए-हसन के जरिए कोई भी मुस्लिम शौहर अपनी पत्नि को तलाक दे सकता है. इस तरह इसकी कानूनी वैधता है, लेकिन अब मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच की तरफ जाता दिख रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही है ताकि विस्तार से सुनवाई हो सके.
कुबूल अहमद