आरक्षण: 'कोटा के अंदर कोटा' पर फिर छिड़ी बहस, जानें पूरा मामला

आखिर सुप्रीम कोर्ट को सात जजों की संवैधानिक बेंच का गठन क्यों करना पड़ा? क्योंकि 2005 में पांच जजों की बेंच द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि राज्य सरकारों के पास आरक्षण के उद्देश्य से एससी की उप-श्रेणियां बनाने की कोई शक्ति नहीं है. अब पांच जजों की बेंच उस फैसले को नहीं बदल सकती', इसलिए इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सात जजों की बेंच बनाई गई है.

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सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 28 अगस्त 2020,
  • अपडेटेड 12:07 PM IST
  • सुप्रीम कोर्ट का 7 जजों की बेंच के गठन का फैसला
  • सबसे ज्यादा वंचितों को फायदा देने की कवायद
  • कोटा के अंदर कोटा पर कानूनी बहस हुई शुरू

क्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का लाभ जरूरतमंदों को पहुंचाने के लिए इन समूहों में सब कैटेगरी बनाई जा सकती है? सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर विचार करने के लिए सात जजों की एक संवैधानिक बेंच का गठन करने का फैसला लिया है. ये खंडपीठ इस मुद्दे पर विचार करेगी. हम इस पूरे मामले को विस्तार से समझेंगे कि इसके पक्ष और विपक्ष में क्या तर्क हैं और पहले इसे क्यों रोक दिया गया था.  

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गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मुद्दे पर 7 जजों की संवैधानिक बेंच के गठन के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के उप-वर्गीकरण के मुद्दे पर एक बार फिर कानूनी बहस शुरू हो गई है. क्या कोटा के भीतर कोटा दिया जा सकता है.

सात जजों की बेंच का गठन क्यों?

आखिर सुप्रीम कोर्ट को सात जजों की संवैधानिक बेंच का गठन क्यों करना पड़ा? दरअसल 2005 में पांच जजों की बेंच द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि राज्य सरकारों के पास आरक्षण के उद्देश्य से एससी की उप-श्रेणियां बनाने की कोई शक्ति नहीं है. अब पांच जजों की बेंच उस फैसले को नहीं बदल सकती इसलिए इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सात जजों की बेंच बनाई गई है.

संविधान ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को विशेष दर्जा देते समय जाति का वर्णन नहीं किया है कि कौन सी जातियां इसमें आएंगी. ये अधिकार केंद्र के पास है. अनुच्छेद 341 के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों को एससी और एसटी कहा जाता है. एक राज्य में SC के रूप में अधिसूचित जाति दूसरे राज्य में SC नहीं भी हो सकती है.

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देश में कितनी अनुसूचित जाति?

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में देश में 1,263 एससी जातियां थीं. अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, अंडमान और निकोबार एवं लक्षद्वीप में कोई समुदाय अनुसूचित जाति के रूप में चिह्नित नहीं किया गया.

सिर्फ राष्ट्रपति को अधिकार

2005 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जाति की सूची में जातियों को हटाने और जोड़ने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को है. संविधान सभी अनुसूचित जातियों को एकल सजातीय समूह मानता है. अगर सभी अनुसूचित जातियों को एक ग्रुप माना गया है तो उप वर्गीकरण कैसे हो सकता है.

समाजिक असमानता के आधार पर अनुसूचित जातियों को विशेष सुरक्षा प्रदान की गई है, क्योंकि इन जातियों के खिलाफ छुआछूत की भावना थी. आरक्षण का लाभ आरक्षित जातियों के जरूरतमंद यानी सबसे कमजोर तबके तक पहुंचे, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू किया. इसे 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता केस के फैसले में लागू किया गया था. 

क्रीमी लेयर का नियम ओबीसी (अदर बैकवर्ड क्लास) में लागू होता है. जबकि यह अनुसूचित जाति पर 2018 में प्रमोशन के केस में लागू किया गया. केंद्र सरकार ने 2018 के इस फैसले पर रिव्यू करने की गुहार लगाई और इस पर फैसला अभी आना बाकी है.

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उप-वर्गीकरण के खिलाफ क्या हैं तर्क?

शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन की धारणा को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर नहीं लागू किया जा सकता, क्योंकि इन्हें विशेष दर्जा छुआछूत के खिलाफ दिया गया है. 1976 में केरल वर्सेज एन. एम थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि अनुसूचित जाति एक जाति नहीं बल्कि वर्ग है.

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