रतन टाटा तब पैदा हुए थे जब नए भारत का सपना बुना ही जा रहा था. 1937 में जन्में रतन टाटा ने ब्रिटिश इंडिया की यादें साझा की थी. एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था कि एक बच्चे के रूप में भारत को गुलाम देखकर उनके अंदर बैचेनी थी. वे भारत को जीतता हुआ देखना चाहते थे.
रतन टाटा का घर तत्कालीन बंबई में आजाद मैदान के आस-पास था. रतन टाटा बताते हैं कि वे अपने घर की बालकनी से अक्सर आजाद मैदान की हलचलों की देखते थे. जहां अक्सर स्वतंत्रता सेनानियों का मजमा लगा हुआ होता, नेता आते, भाषणबाजी होती और साथ ही साथ होता अंग्रेज सिपाहियों से इनका टकराव. रतन टाटा के अनुसार वे कई बार अपने घर से आजाद मैदान में लाठीचार्ज, दंगा और हिंसा की तस्वीरें देखा करते थे.
आजाद मैदान और रतन टाटा की घर की बालकनी
पत्रकार करन थापर के साथ एक इंटरव्यू के दौरान रतन टाटा ने कहा था कि वे भी अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों की गाड़ियों की फ्यूल टंकी में चीनी डाल दिया करते थे. दरअसल यह एक बाल मन का अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध था.
रतन टाटा ने इस वाकये को कुछ यूं बताया था, "मुझे आजादी आंदोलन की बहुत सारी चीजें तो याद नहीं है लेकिन मुझे दंगें याद हैं, मेरा पारिवारिक घर आजाद मैदान के नजदीक वाली स्ट्रीट में है, इस आजाद मैदान में कई बैठकें होती थी, लाठी चार्ज होते थे, मुझे याद है अपने बालकनी से मैं ये सब देखा करता था."
ब्रिटिश कारों की टंकियों में डाल देता था चीनी
रतन टाटा के अनुसार ये उनके लड़कपन का जोश था और वे ये चाहते थे कि अंग्रेज भारत से भाग जाए. इसके लिए वे भी अपने साथियों के साथ कुछ करते थे. रतन टाटा ने कहा था, "मुझे याद है, हम लड़के ब्रिटिश सांसदों की कारों और मोटरसाइकिल की पेट्रोल टंकियों में चीनी डाल दिया करते थे, जब भी हमें मौका मिलता हम इस तरह की चीजें किया करते थे." रतन बताते हैं कि ऐसा उन्होंने कई ब्रिटिश कारों में किया था.
आप सोच सकते हैं कि कारों की पेट्रोल-डीजल टंकी में चीनी डाल देने से क्या हो सकता है?
दरअसल किसी भी मशीन के फ्यूल टैंक में चीनी डाल देना उस मशीन को खराब कर देने के लिए काफी है. चीनी ईंधन फिल्टर को बंद कर सकती है, जिससे ईंधन की आपूर्ति बंद हो जाती है और इंजन बंद हो जाता है. चीनी के क्रिस्टल एयर फिल्टर को जाम कर सकते हैं, जिससे हवा का प्रवाह कम होता है और इंजन खराब हो जाता है. कुल मिलाकर एक बार चीनी जाने से इंजन का कबाड़ा होना तय है.
दरअसल रतन टाटा का बालमन अंग्रेजों के प्रति अपने गुस्से को इन्हीं तरकीबों से निकालते थे.
परिवार के अंग्रेजों से नजदीकी रिश्ते रहे
हालांकि रतन टाटा का परिवार ब्रिटिश रॉयल्टी के प्रभाव से अछूता नहीं था. रतन टाटा का पालन-पोषण उनकी दादी ने किया था. कुलीन और संभ्रांत पारसी परिवार होने की वजह से इनकी दादी का ब्रिटिश राज परिवार के साथ उठना-बैठना था. रतन टाटा खुद बताते हैं, " हां मेरी दादी का ब्रिटिश रॉयल परिवार के साथ नजदीकी रिश्ते थे. मेरी दादी और सर रतन टाटा क्वीन मैरी और किंग जॉर्ज पंचम के बहुत करीबी थे."
हालांकि रतन टाटा ये भी कहते हैं कि ये उनकी जिंदगी का हिस्सा था, ये मेरी जिंदगी की कहानी नहीं थी.
रतन टाटा के अनुसार उनके पिता चाहते थे कि वे इंग्लैंड जाएं और चार्टर्ड अकाउंटेंट की पढ़ाई पढ़े. लेकिन रतन टाटा के अनुसार ,'वे वो विद्रोही थे जो यूनाइटेड स्टेट्स जाना चाहते थे और आर्किटेक्चर और इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते थे. लेकिन उनके पिता को ये बात पसंद नहीं थी. फिर भी किसी तरह से उन्होंने अपने सपने को पूरा किया और अमेरिका में आर्किटेक्चर और इंजीनियरिंग की पढ़ाई की.
उन्होंने 1959 में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर में दाखिला लिया और 1962 में बी.आर.ए. (बैचलर ऑफ आर्किटेक्चर) की डिग्री प्राप्त की. कॉर्नेल यूनिवर्सिटी की जिंदगी रतन टाटा के जीवन में कई बदलाव लेकर आई. रतन ने कहा था कि यहां टाटा ब्रांड नेम का कोई मतलब नहीं था. वे यहां के 20 हजार छात्रों के बीच एक छात्र थे.
रतन कहते हैं, "उन दिनों जब कोई भी इंडियन विदेश पढ़ने जाता तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया बहुत कम अलाउंस देता था और मैं अमेरिका में कोई अमीर भारतीय नहीं बल्कि संघर्ष कर रहा एक छात्र था. मुझे ये चिंता रहती थी कि मेरा अगला चेक आने से पहले महीने का खर्चा पूरा होगा या नहीं."
लेकिन जल्द ही रतन टाटा को जल्द ही अमेरिका से प्यार हो गया. दरअसल वो बचपन से ही इस शहर से प्यार कर बैठे थे. पढ़ाई खत्म करने के बाद रतन टाटा वापस नहीं लौटना चाहते थे. लेकिन नियति ने कुछ और लिख रखा था. रतन अपनी उस दादी की पुकार पर लौटे जिन्होंने उनके लिए मां का रोल निभाया था और उन पर काफी प्रभाव रखती थीं. भारत लौटने के मात्र 15 दिन बाद जमशेदपुर यानी कि टाटा की कर्मभूमि उनका इंतजार कर रही थी.
पन्ना लाल