प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में कहा कि वंदे मातरम् के अहम हिस्से हटा दिए गए और इसे 'गाने का बंटवारा' कहा गया, जिसने आगे चलकर देश के बंटवारे की जमीन तैयार की. उन्होंने कहा कि बंकिमचंद्र चटर्जी की लिखी इस रचना की छह पंक्तियां कांग्रेस नेताओं ने हटा दीं क्योंकि उनमें हिंदू देवी-देवताओं का जिक्र था. अब जानिए इतिहासकार इस पूरी बहस को कैसे देखते हैं.
लोकसभा में 10 घंटे की बहस, PM मोदी का आरोप
भारत के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर सोमवार को लोकसभा में 10 घंटे लंबी बहस हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत की. इसके बाद मंगलवार को राज्यसभा में गृह मंत्री अमित शाह विशेष सत्र का नेतृत्व करेंगे.
पीएम मोदी ने कहा कि 1937 में वंदे मातरम् के कई हिस्से हटाए गए. उन्होंने इसे 'गाने का बंटवारा' बताते हुए कहा कि पहले वंदे मातरम् तोड़ा गया, फिर देश. उनका आरोप था कि कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू ने मुस्लिम लीग के दबाव में राष्ट्रीय गीत को 'टुकड़ों में' बांट दिया. यहीं सवाल उठता है कि क्या वाकई वंदे मातरम् मुसलमानों को खुश करने के लिए छोटा किया गया?
वंदे मातरम् की शुरुआत और कैसे बढ़ा विवाद
बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1875 में इस गीत के दो पद लिखे थे. बाद में इसे उनके उपन्यास आनंदमठ (1882) में छह और पद जोड़कर शामिल किया गया. उपन्यास में ये कहानी हिंदू संन्यासियों और बंगाल के मुस्लिम शासकों के बीच लड़ाई पर आधारित थी. इसी वजह से मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा इसे अपनी धार्मिक भावनाओं के खिलाफ मानने लगा.
इसी दौरान हिंदू क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम् को आजादी की लड़ाई का नारा बनाया. फांसी पर चढ़ते समय कई स्वतंत्रता सेनानी वंदे मातरम् के नारे लगाते थे. लेकिन कुछ जगहों पर यही नारा दंगों के दौरान मुसलमानों को भड़काने के लिए भी इस्तेमाल होने लगा. इतिहासकार बताते हैं कि पहली बार 1900 के दशक की शुरुआत में इस गाने को हिंदू-मुस्लिम तनाव से जोड़ा गया.
कांग्रेस ने सिर्फ दो पद क्यों अपनाए?
गांधी, नेहरू, राजेंद्र प्रसाद सहित कांग्रेस के बड़े नेताओं ने वंदे मातरम् की ताकत और आजादी की लड़ाई में उसके योगदान को माना. इसलिए कांग्रेस ने इसे अपने गीत के रूप में अपनाया.
लेकिन सांप्रदायिक तनाव को देखते हुए सिर्फ पहले दो पद ही लिए गए जो पूरी तरह देशभक्ति और प्रकृति की सुंदरता पर आधारित थे. इनमें देवी-देवताओं का जिक्र नहीं था. बाकी छह पदों में दुर्गा जैसी देवियों का उल्लेख था और हिंदू संन्यासियों की मुस्लिम शासकों से लड़ाई का वर्णन था, जिसे मुसलमान समुदाय आपत्तिजनक मानता था. इसीलिए 1951 में भारत का राष्ट्रीय गीत तय करते समय भी सिर्फ दो पद ही चुने गए.
जो गीत जोड़ता था, वही बांटता भी था: इतिहासकार
इतिहासकार सब्यसाची भट्टाचार्य लिखते हैं कि वंदे मातरम् लोगों को जोड़ता भी था, और बांटता भी. उनका कहना है कि 1937 में कांग्रेस द्वारा अपनाने से पहले भी कई दंगे ऐसे हुए जहां 'वंदे मातरम्' और 'अल्लाहु अकबर' दोनों को भड़काऊ नारे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था. गांधी ने भी कहा था कि इन नारों का इस्तेमाल दोनों समुदाय भावनाओं में उफान लाने के लिए करते थे.
टैगोर ने नेहरू को क्या सलाह दी थी
1937 में सुभाष चंद्र बोस पूरे गीत को अपनाना चाहते थे लेकिन नेहरू को डर था कि इससे मुस्लिम समुदाय नाराज होगा. नेहरू ने इस मुद्दे पर रवींद्रनाथ टैगोर को लिखा. टैगोर ने साफ कहा, सिर्फ पहले दो पद ही राष्ट्रीय इस्तेमाल के लिए सही हैं. ये पद किसी भी धर्म को आहत नहीं करते. बाकी पद साहित्य का हिस्सा रहें, उनकी जगह वहीं बेहतर है.
टैगोर के इस सुझाव के बाद गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, आजाद और प्रसाद की मौजूदगी में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 1937 में फैसला लिया जहां भी वंदे मातरम् गाया जाए, सिर्फ दो ही पद गाए जाएं.
स्वतंत्रता के बाद क्या हुआ?
1950 में संविधान सभा ने आधिकारिक रूप से दो पदों वाले वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया. आज भी स्कूलों, कार्यक्रमों और स्टेडियमों में यही संस्करण गाया जाता है. पूरा गीत किताबों और सांस्कृतिक मंचों में मौजूद है, अपनी मूल रूप में. तो सवाल उठता कि अब क्या वंदे मातरम् ‘मुसलमानों को खुश करने’ के लिए छोटा किया गया था? इतिहासकारों के मुताबिक गीत छोटा किया गया लेकिन मकसद था राष्ट्रीय एकता, न कि किसी समुदाय को खुश करना.
जो हिस्से हटाए गए, वे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा सकते थे इसलिए केवल वे पद चुने गए जो सबको जोड़ते थे. बहसें आज भी जारी हैं लेकिन वंदे मातरम् आज भी आजादी की लड़ाई की याद, साहस और भारत की विविधता का प्रतीक है.
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