5 राज्य, 12 शहर... कांवड़ यात्रा हमें आधुनिक भक्ति के बारे में क्या बताती है?

इंडिया टुडे ने पांच राज्यों के 12 शहरों के 100 से ज्यादा कांवड़ यात्रियों से बात की, जिससे यह समझा जा सके कि आखिर उन्हें कांवड़ यात्रा पर निकलने के लिए क्या प्रेरित करता है और आस्था की यह यात्रा क्यों मायने रखती है.

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कांवड़ यात्रा का हुआ समापन (Photo: AFP) कांवड़ यात्रा का हुआ समापन (Photo: AFP)

श्रेया सिन्हा

  • नई दिल्ली,
  • 23 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 6:56 AM IST

भारत की सबसे लोकप्रिय तीर्थयात्राओं में से एक, इस साल की कांवड़ यात्रा का समापन हो गया है. हालांकि, यह यात्रा आस्था पर आधारित होती है लेकिन  पिछले दिनों सामने आईं हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाएं यह सवाल खड़ा करती हैं. आइए जानते हैं कि इस लंबी और कष्टदायक यात्रा पर निकलने वालों के कंधों पर किस तरह के बोझ होते हैं. 
 
कांवड़ यात्रा पर जाने वाले लोग बाइक मैकेनिक, एसी टेक्निशियन, छोटे व्यवसायी, रेहड़ी-पटरी वाले लोग, गृहिणियां, रिटायर्ड कर्मचारी और यहां तक कि इंजीनियर भी होते हैं. लेकिन तीर्थयात्रा के दौरान, उन पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाई जाती हैं और पुलिस सुरक्षा उनके साथ होती है. कुछ लोग अपनी संस्कृति, स्वास्थ्य और अपने परिवारों की भलाई के लिए पैदल यात्रा करते हैं, तो कुछ देश की एकता, शांति और बेहतरी के लिए घर से बाहर निकलते हैं. इंडिया टुडे ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और झारखंड के सैकड़ों श्रद्धालुओं से बात की और समझा कि आखिर उन्हें इस लंबी यात्रा पर निकलने के लिए क्या प्रेरित करता है.

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सुपौल गांव के मछुआरे मिथुन कुमार (19) बिना किसी योजना के, सिर्फ़ आस्था के साथ कांवर यात्रा पर निकल पड़े. 15 साल के बुधन, जो अभी तक पढ़े-लिखे नहीं हैं, बिना रुके अपनी यात्रा पूरी की क्योंकि दो साल पहले उन्हें एक प्रेरणा महसूस हुई थी. 55 साल के सिकंदर साह, जो चार दशकों से भी ज़्यादा वक्त से इस यात्रा में शामिल हो रहे हैं, और 39 वर्षीय शिवेंद्र पोद्दार, जिन्होंने बिहार के बलवाहाट में एक स्थानीय यात्रा शुरू करने में मदद की, उनके लिए यह यात्रा आस्था और आंतरिक खुशी दोनों का प्रतीक थी. दूसरे शब्दों में, वे सभी लॉर्ड शिव की ओर एक आकर्षण से बंधे हुए थे.

कांवड़ यात्रा पर निकलने वाले लोगों का स्टेटस एक जैसा नहीं होता है. कुछ यात्री वकील, प्रोफ़ेसर, छात्र और यहां तक कि राजनेता भी होते हैं, लेकिन ज़्यादातर कम इनकम वाले गिग वर्कर, मैकेनिक, ड्राइवर, रेहड़ी-पटरी वाले या फेरीवाले होते हैं. इंडिया टुडे ने जिन तीर्थयात्रियों से बात की, उनमें से ज़्यादातर ऐसे नहीं हैं, जो रोज़ की कमाई के भरोसे गुज़ारा करते हैं. उन्हें अपनी आवाज उठाने के लिए मुसीबतें झेलनी पड़ती है. लेकिन यात्रा के दौरान, उनका सम्मान किया जाता है. कांवड़ यात्रा भारत के बदलते आध्यात्मिक लैंडस्केप का प्रतीक है.

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प्रेरणाओं की भरमार

गाजियाबाद की एक लॉ फर्म में काम करने वाले 30 वर्षीय सोनू प्रजापति, जिनकी सालाना कमाई करीब 2.5 लाख रुपये है, लोगों को मांस और अंडे का सेवन छोड़ने और सनातन धर्म का प्रचार करने के लिए प्रेरित करने के लिए पैदल यात्रा कर रहे हैं. इसी बीच, हरिद्वार के 18 वर्षीय अमित "गौ माता" को "राष्ट्रमाता" का दर्जा दिलाने के लिए पैदल यात्रा कर रहे हैं.

दिल्ली के जाफरपुर में रहने वाले 30 साल के प्रिंस अपनी मां को कांवर का जल पिलाने के लिए पैदल निकल पड़े. दिल्ली के एक टाइल कारीगर, ललित, जो दसवीं तक पढ़े हैं, अपने माता-पिता के स्वास्थ्य के लिए पैदल चलते हैं. 20 हजार रुपये प्रति माह से भी कम कमाने वाले, आस्था ही शायद उनके माता-पिता के लिए एक स्वस्थ और लंबी उम्र सुनिश्चित करने का एकमात्र ज़रिया है. और दिल्ली का एक लड़का अंकुश, जो कला स्नातक की पढ़ाई कर रहा है, इंजीनियर बनने के अपने सपने को पूरा करने और कुछ पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए पैदल चल रहा है.

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भक्ति या कामना?

फरीदाबाद के अंकित भारद्वाज अपनी साइकिल से इस यात्रा पर जाते थे लेकिन पुत्र प्राप्ति की चाहत ने उन्हें पैदल यात्रा करने पर मजबूर कर दिया. जुड़वां पुत्रों के जन्म के बाद, कृतज्ञता स्वरूप उन्होंने इस साल फिर से पैदल यात्रा शुरू की. राजस्थान के 40 वर्षीय संतोष हार्डवेयर की दुकान चलाते हैं और अच्छी कमाई करते हैं. वह इस यात्रा में इसलिए शामिल होते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ईश्वर हमेशा उनके साथ हैं.

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गाजियाबाद के बारहवीं पास गोलू, जो एक फर्नीचर कंपनी में काम करते हैं और 16 हजार रुपये प्रति माह कमाते हैं. एक 'गहरी निजी भावना' से प्रेरित होकर यात्रा पर निकल पड़ते हैं. बिहार के खगड़िया के मानस कुमार, जो अपने बिजनेस से 15 हजार रुपये प्रति माह कमाते हैं, कहते हैं कि उन्हें 'भगवान शिव की अदृश्य शक्ति' प्रेरित करती है. विजय कुमार सिंह को अपने परिवार से प्रेरणा मिली, जो पीढ़ियों से इस यात्रा में शामिल होते आए हैं. सोहन चौधरी इसलिए पैदल यात्रा करते हैं क्योंकि उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ कांवड़ यात्रा पर जाने में अच्छा लगता है. इसी तरह, राजस्थान के दौसा के धर्मदेव सोलंकी, जो एक राशन की दुकान चलाते हैं, कहते हैं कि वे बचपन से ही बिना किसी उम्मीद के इस यात्रा पर जाते रहे हैं.

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चिलचिलाती धूप में, भारी बारिश और तूफ़ानों का सामना करते हुए, वे पैदल चलते हैं और कुछ लोग तो इससे भी ज़्यादा मेहनत करते हैं. खगड़िया के चालीस वर्षीय मुन्ना भागड़ अपने गांव के मंदिर के लिए कुछ खास करना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने 1997 में पहली बार इस आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत की. उस वक्त, वे ट्रेन से खगड़िया जाते थे, फिर पवित्र जल लेने के लिए मुंगेर घाट तक जीप से जाते थे और बिना रुके 80 किलोमीटर पैदल यात्रा करते थे. उनकी पहली यात्रा में उनके साथ चार लोग थे. अब, हर साल हज़ारों लोग उनके साथ चलते हैं.

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मध्यम और निम्न वर्ग के जीवन की रोज़मर्रा की कठिनाइयों के बावजूद कई लोग पैदल चलते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसा करने के लिए अस्थायी रूप से अपनी आरामदायक जिंदगी भी त्याग देते हैं. 15 लाख रुपये से ज़्यादा सालाना कमाने वाले इंजीनियर अमित कुमार और यशवंत रावत, भक्ति में नंगे पैर चलने के लिए आलीशान बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तरों को पीछे छोड़ देते हैं. दिल्ली के एक बैंक मैनेजर सुरेश कुमार कहते हैं कि भगवान शिव का बुलावा यूं ही नहीं जाने दिया जा सकता है. 

वकील, शिक्षक, गृहिणियां और यहां तक कि ओडिशा की किरण और अर्चना जैसे सिविल निर्माण श्रमिक, सभी ने एक ही विषय दोहराया: तर्क, वर्ग या सुविधा से परे एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति.

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एक राजनीतिक मार्च?

हर कोई व्यक्तिगत इच्छा से नहीं चलता. कुछ लोग चुपचाप सामूहिक बदलाव लाना चाहते हैं. इंदौर के 36 वर्षीय रवि जिराती, जिन्होंने 12वीं तक शिक्षा प्राप्त की है, 'हिंदुत्व और राष्ट्र की समृद्धि' के प्रचार के लिए पैदल मार्च करते हैं. पानीपत के सौरभ हिंदुओं में एकता देखना चाहते हैं.

कांवड़ यात्री 20 साल के अभिषेक इस साल कश्मीर के पहलगाम में हुए घातक आतंकी हमले से सदमे में हैं. उन्होंने कहा, "मैं अपने देश के हिंदुओं में एकता चाहता हूं. पहलगाम की घटना ने मुझे बहुत प्रभावित किया है. वह दर्द मेरे दिल में अब भी है. मैंने हिंदुओं में एकता बढ़ाने के लिए कांवड़ यात्रा शुरू की है."

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दूसरी तरफ, दरभंगा के सीनियर पत्रकार मणिकांत झा मैथिली संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए पैदल यात्रा करते हैं. वे पिछले 50 साल से कांवड़ यात्रा करते आ रहे हैं. उनका कहना है कि यह यात्रा मिथिला की संस्कृति में गहराई से जुड़ी हुई है. यह मान्यता कि भगवान शिव को पहला जल मिथिला के लोगों द्वारा बसंत पंचमी के दिन अर्पित किया जाता है.

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लेकिन हाल ही में हुई हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाओं ने यात्रा के आध्यात्मिक स्वरूप पर गहरा असर डाला है. कांवड़ियों की नागरिकों के साथ झड़प और हाल ही में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के एक जवान के साथ हुई हिंसा की तस्वीरों ने चिंताएं बढ़ा दी हैं. जिन लोगों से हमने बात की, उन्होंने बताया कि केवल आस्था और ईश्वर से एकाकार होने की लालसा ही उन्हें इस यात्रा के लिए प्रेरित कर रही थी, लेकिन बढ़ती हुई अव्यवस्थाओं ने यात्रा के बदलते स्वरूप को लेकर कुछ असहज सवाल खड़े कर दिए हैं.

तो क्या आस्था सिर्फ़ एक निजी शरणस्थली है, या यह सशक्तिकरण और अपनेपन का प्रदर्शन बन गई है? कई लोगों के लिए, यह यात्रा मंदिर पहुंचने के बारे में नहीं, बल्कि रास्ते में साक्षी बनने के बारे में है, एक ऐसी कोशिश है, जिसमें उन्होंने कामयाबी हासिल की है.

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