हमारी सीरीज के दूसरे भाग में आज हम 1980 से 1989 की गर्मियों तक के उस दौर को याद कर रहे हैं, जब कश्मीर में सब कुछ शांत था. ये वो वक्त था, जब सब कुछ ठीक लग रहा था, लेकिन अंदर ही अंदर एक तूफान धीरे-धीरे तैयार हो रहा था.
कश्मीर का इतिहास मुस्लिम राजवंशों से भरा पड़ा है. ये सिलसिला 14वीं सदी में शाह मीर से शुरू हुआ था और फिर आगे चलकर अब्दुल्ला और मुफ्ती जैसे राजनीतिक परिवारों तक पहुंचा. लेकिन एक दिलचस्प बात ये है कि कश्मीर में मुस्लिम दौर की शुरुआत एक तिब्बती राजकुमार रिंचन शाह से हुई थी. करीब 1320 के आस-पास उसने सत्ता अपने हाथ में ले ली थी.
रिंचन शाह ने इस्लाम कबूल कर लिया था. उस पर सूफी संत बुलबुल शाह का काफी असर था. रिंचन की मौत के बाद वहां के मुस्लिम अमीरों ने उसके बेटे हैदर को कैद कर लिया और शाह मीर को राजा बना दिया. यहीं से कश्मीर में पहली मुस्लिम हुकूमत की नींव पड़ी.
पहली बार जो कहा जाए एक लोकतांत्रिक राजवंश, उसकी शुरुआत शेख अब्दुल्ला ने की थी. 21 अगस्त को श्रीनगर के इक़बाल पार्क में पार्टी की एक बैठक में शेख अब्दुल्ला ने अपने बेटे फारूक अब्दुल्ला को नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी का नया नेता घोषित किया. इस दौरान भीड़ में ज़ोर-ज़ोर से नारे लगे—"नेशनल, नेशनल, ऑल आर नेशनल!"
अब्दुल्ला परिवार से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी भी है, जो ट्रिनिडाड के लेखक वी.एस. नायपॉल ने अपनी किताब An Area of Darkness में लिखी है. उन्होंने कश्मीर यात्रा के अपने अनुभव में बताया कि कैसे गुलमर्ग में एक यूरोपीयन होटल चलाने वाले को एक गरीब मुस्लिम लड़की से प्यार हो गया. लड़की ने शादी की शर्त रखी कि पहले उसे इस्लाम कबूल करना होगा. लड़के ने बिना देर किए इस्लाम अपना लिया. इस जोड़े- माइकल हेनरी नेडू और मीर जान से जन्मी अकबर जहां, जो आगे चलकर शेख अब्दुल्ला की पत्नी बनीं.
ब्रिटिश-पाकिस्तानी लेखक तारिक अली ने अपनी किताब Bitter Chill of Winter में अकबर जहां को लेकर एक दावा किया है, जो अब तक पक्के तौर पर साबित नहीं हुआ है. उनके मुताबिक, जब अकबर जहां 17 साल की थीं, तब उन्होंने ब्रिटिश जासूस टी.ई. लॉरेंस से शादी की थी, जिन्हें मशहूर फिल्मकार डेविड लीन ने Lawrence of Arabia के नाम से अमर बना दिया.
तारिक अली लिखते हैं कि लॉरेंस उस वक्त भारत में ‘करम शाह’ नाम से एक अरबी मौलवी के भेष में रह रहे थे. 'अकबर जहां की उनसे मुलाकात उनके पिता के होटल में हुई होगी. बातचीत शुरू हुई और मामला धीरे-धीरे आगे बढ़ गया. फिर अकबर जहां के पिता ने तुरंत शादी करवाने की ज़िद की, जो हो भी गई.' लेकिन जब उनके पति की असली पहचान सामने आ गई, तो दोनों का तलाक हो गया.
बेटे की वापसी और तूफान की दस्तक
शेख अब्दुल्ला की मौत सितंबर 1982 में हुई और इसके बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने. यहीं से कश्मीर के इतिहास ने एक नया मोड़ लिया. 1980 के शुरुआती सालों में कश्मीर घाटी टूरिस्ट्स के लिए किसी जन्नत से कम नहीं थी. पिछला साया बर्फ में दब चुका था. ज्यादातर कश्मीरी अब अलगाव की बात भूल चुके थे और भारत के एक राज्य के तौर पर बेहतर भविष्य की तरफ देख रहे थे.
1983 के चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फारूक अब्दुल्ला से गठबंधन की कोशिश की लेकिन फारूक ने मना कर दिया. उसके बाद इंदिरा गांधी ने बदला लेने का फैसला किया. उनके भतीजे और खास सलाहकार अरुण नेहरू ने बाद में कहा - 'इंदिरा चाहती थीं कि किसी भी कीमत पर अब्दुल्ला को हटाया जाए.' (Source: Victoria Schofield: Kashmir in Conflict)
इसी मकसद से कांग्रेस ने फारूक के साले जीएम शाह को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया और फारूक की सरकार गिरा दी - जबकि फारूक को 1983 के चुनाव में भारी बहुमत मिला था. शाह, जिन्हें गुलशन भी कहा जाता था, उनके राज में घाटी में हड़तालें और सांप्रदायिक हिंसा का दौर शुरू हो गया. लोग उन्हें ताना मारते हुए 'गुल-ए-कर्फ्यू' कहने लगे. जब उनकी सरकार बर्खास्त हुई और 1987 के चुनावों का एलान हुआ, तब तक कश्मीर अंदर ही अंदर फटने को तैयार हो चुका था.
एक ईरानी सपना
1970 के दशक में जमात-ए-इस्लामी, जो एक कट्टर इस्लामी सोच वाली पार्टी थी, कश्मीर में ईरान जैसी क्रांति लाने का सपना देखने लगी. (Alastair Lamb: Kashmir: A Disputed Legacy, 1846-1990.)
पार्टी के पाकिस्तानी नेता तेहरान भी गए थे, ये जानने कि क्या कश्मीर में भी भारत के राज को उसी तरह खत्म किया जा सकता है, जैसे ईरान में शाह का शासन गिरा था. लेकिन ये सपना लगभग दस साल तक सिर्फ सपना ही बना रहा. हकीकत में नहीं बदल सका.
1987 का चुनाव कट्टरपंथियों के लिए पहला असली मौका बनकर सामने आया. कांग्रेस से बेइज़्ज़ती झेलने के बाद फारूक अब्दुल्ला ने इंदिरा गांधी के बेटे और 1984 में प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी से समझौता कर लिया. कश्मीर के बहुत से लोगों ने इसे एक तरह की हार और दिल्ली द्वारा अनुच्छेद 370 में दी गई स्वायत्तता पर हमला माना. इस गठबंधन की वजह से पूरी विपक्षी राजनीति जैसे खत्म ही हो गई. एक राजनीतिक खालीपन पैदा हो गया.
इसी माहौल में कुछ पाकिस्तान समर्थक और आज़ादी समर्थक दलों ने मिलकर मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) नाम से एक नया मोर्चा बनाया. इस गठबंधन ने वादा किया कि कश्मीर में शरीयत का कानून लागू किया जाएगा. चुनाव को कश्मीर के भारत से जुड़े रहने पर एक तरह का जनमत संग्रह माना जा रहा था. ऐसे में कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) गठबंधन बुरी तरह फंस गया था.
अगर MUF जीतता, तो अलगाववाद को राजनीतिक मान्यता मिल जाती और पाकिस्तान या आज़ादी की मांग करने वाले और मज़बूत हो जाते. वहीं अगर गठबंधन जीतता, तो घाटी के लोगों की भावनाओं को कुचलने जैसा माना जाता. इस मुश्किल घड़ी में गठबंधन ने वही रास्ता चुना, जो उनके लिए थोड़ा आसान था.
बैलेट से बुलेट तक
अमीराकदल, श्रीनगर का धड़कता दिल माना जाता है. ऐतिहासिक लाल चौक और खूबसूरत डल झील के पास बसा ये इलाका शहर की आर्थिक और राजनीतिक हलचलों का केंद्र है.1987 के विधानसभा चुनाव में, जब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) ने मोहम्मद यूसुफ शाह को अपना उम्मीदवार बनाया, तो अमीराकदल दुनिया की नजरों में आ गया. यूसुफ शाह पेशे से स्कूल टीचर थे.
कई रिपोर्टों में दावा किया गया कि यूसुफ शाह अमीराकदल से आगे चल रहे थे, लेकिन नतीजों में नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार को विजेता घोषित कर दिया गया. इससे चुनाव में धांधली और गड़बड़ी के आरोप लगने लगे. हालांकि, इसे साबित करने के लिए आज तक कोई आधिकारिक वोटों का आंकड़ा मौजूद नहीं है.
धीरे-धीरे अमीराकदल 1987 के चुनावों का प्रतीक बन गया. एक ऐसा चुनाव जिसे स्थानीय प्रशासन ने हेरफेर करके बिगाड़ दिया. नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन भारी बहुमत से जीता, जबकि MUF को कुल 31 फीसदी वोट मिले लेकिन पूरी घाटी में सिर्फ 4 सीटें ही मिलीं. बाद में MUF के नेता, जैसे यूसुफ शाह, जेल में डाल दिए गए. चुनाव आयोग ने उनके 'चुराए गए जनादेश' की शिकायतों पर ध्यान ही नहीं दिया.
लगभग हर विश्लेषक मानता है कि 1987 का चुनाव कश्मीर के कई लोगों को यह यकीन दिलाने के लिए काफी था कि लोकतंत्र का रास्ता अब उनके लिए बंद हो चुका है. यही वजह थी कि बहुत से नौजवानों ने हथियार उठा लिए और पाकिस्तान की ISI की तरफ रुख किया. जेल से रिहा होने के बाद यूसुफ शाह, जो कभी अमीराकदल के उम्मीदवार थे, पाकिस्तान चले गए। उनके पीछे-पीछे एक और नाम भी पाकिस्तान पहुंचा, उनका चुनाव एजेंट यासीन मलिक.
जल्द ही पाकिस्तान एक ऐसा अड्डा बन गया, जहां से भारत को बंदूक के दम पर चुनौती देने वाली ताकतें तैयार होने लगीं.
लंदन से आया मेहमान
सितंबर 1985 में अमानुल्ला खान, वो कश्मीरी बाग़ी जिनका नाम भारतीय राजनयिक रविंद्र म्हात्रे के अपहरण और हत्या (जिक्र पहले हिस्से में) से जुड़ा था, उसे पाकिस्तान भेज दिया गया. यह तब हुआ जब उसे अवैध हथियार रखने के आरोप से बरी कर दिया गया.
1970 के दशक में अमानुल्ला खान ने ब्रिटेन में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) नाम से एक उग्रवादी संगठन बनाया था, जिसका मकसद कश्मीर को आजाद करवाना था. ब्रिटिश निगरानी से बाहर होने के बाद JKLF, पाकिस्तान की उस योजना का हिस्सा बन गया जो भारत को अस्थिर करना चाहती थी और उसे कश्मीरी कट्टरपंथियों का साथ भी मिल गया जो अब हथियार उठाने को तैयार थे.
अमानुल्ला खान के पहले सिपाही बने कुछ नौजवान जिन्हें 'हाजी' कहा गया - अशफाक मजीद वानी, शेख अब्दुल हमीद, जावेद अहमद मीर और यासीन मलिक (जो पहले यूसुफ शाह का चुनाव एजेंट था). ISI के कैंपों में इन सबकी ट्रेनिंग करवाई गई और फिर JKLF ने इन्हें वापस कश्मीर भेजा, ये कहकर कि अब घाटी में खौफ का राज कायम करो.
ज़िया का प्लान: आतंक से भारत को हज़ार ज़ख्म देने की तैयारी
JKLF के 'हाजी' पाकिस्तान और उसके तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक़ के लिए किसी वरदान से कम नहीं थे. ज़िया को तो बस एक बहाना चाहिए था ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की याद और 1971 में बांग्लादेश में मिली हार का बदला लेने के लिए.
मार्च 1976 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने सात सीनियर अफसरों को किनारे कर, भारत के जालंधर में जन्मे ज़िया-उल-हक़ को आर्मी चीफ बना दिया. लेकिन सिर्फ 15 महीनों में ज़िया ने अपने ही नेता की पीठ में छुरा घोंप दिया- पहले तख्तापलट किया और फिर भुट्टो को अहमद खान कसूरी की हत्या के केस में फांसी पर चढ़वा दिया. (कसूरी वही जज थे जिन्होंने ब्रिटिश दौर में भगत सिंह की फांसी के कागज़ों पर दस्तखत किए थे.)
भुट्टो की सत्ता गिरते ही पाकिस्तान में विरोधी पार्टियों ने निज़ाम-ए-मुस्तफा यानी इस्लामी शासन की मांग उठानी शुरू कर दी. सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने और कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए ज़िया ने पूरे देश में इस्लामीकरण की मुहिम शुरू कर दी. पाकिस्तान का क़ानून, समाज और संस्कृति, सबको अपने मुताबिक बदल डाला.
जब वहां के चुनाव बार-बार टाले गए और ज़िया पूरी तरह सत्ता में जम गए, तब उन्होंने अपनी नजर कश्मीर पर डाली. ISI को ज़िम्मेदारी दी गई कि अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को फंड्स मुहैया कराओ. ये पैसे जो असल में अफगानिस्तान के जिहाद के लिए पश्चिमी देशों से आ रहे थे, अब कश्मीर की मस्जिदों और मदरसों में पहुंचने लगे- जहां भारत के खिलाफ ज़हर उगला जाने लगा.
ज़िया एक चालाक खिलाड़ी थे. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वो शिमला समझौते की इज़्ज़त की बातें करते, लेकिन असल में उनकी सेना को काबू में रखने का सबसे आसान तरीका था कश्मीर को एक ज्वलंत मुद्दा बनाए रखना.
इतिहास से सीख लेते हुए ज़िया ने तय किया कि इस बार न तो अपनी सेना भेजनी है, न ही कबीलों की भीड़. अब कश्मीरियों को ही ट्रेनिंग देकर विद्रोह करवाना है, ताकि भारत के लिए घाटी पर कब्जा बनाए रखना नामुमकिन हो जाए. ज़िया का सपना था- भारत को हज़ार ज़ख्म देने का, मतलब खुली जंग की बजाय छोटे-छोटे आतंकी हमलों से भारत में लंबे समय तक खून बहाना.
1980 के दशक से ही पाकिस्तान ने एक प्लान पर काम शुरू कर दिया था- ऑपरेशन टोपक (Tupac). इससे पहले वो ऑपरेशन गुलमर्ग और ऑपरेशन जिब्राल्टर जैसे मिशन बना चुका था. टोपक नाम एक 18वीं सदी के बाग़ी टोपक अमीन से प्रेरित था. हालांकि कुछ जानकार मानते हैं कि ऑपरेशन टोपक शायद भारत की कल्पना भर है. लेकिन 1987 के बाद कश्मीर में जो हालात बने, उन्होंने ज़िया को वो मौका दे दिया जिसकी उसे बरसों से तलाश थी.
घाटी में विस्फोट
1989 की गर्मियों में कश्मीर एक मासूम भेड़ की तरह था, जिसे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि चारों ओर भेड़िए मंडरा रहे हैं. टूरिज़्म अपने चरम पर था, कई सालों के मुकाबले सबसे ज़्यादा सैलानी आ रहे थे. राज्य के मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला अक्सर डल झील के किनारे वाली बुलेवार्ड रोड पर बाइक चलाते दिखते थे.
लेकिन, आतंक धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था. 1987 के चुनाव में हिस्सा लेने वाली लगभग सभी कट्टरपंथी पार्टियों ने अब अपने-अपने उग्रवादी गुट बना लिए थे. अल बरक़, अल फतेह, अल जेहाद, अल्लाह टाइगर्स और JKLF. इसके बाद लश्कर-ए-तैयबा और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन जैसे संगठन भी आए, जिनका नेतृत्व कर रहा था मोहम्मद यूसुफ शाह. आतंकवादी बनने के बाद उसने अपना नाम बदलकर सैयद सलाउद्दीन रख लिया- इस्लामी नेता सलाउद्दीन अय्यूबी (सलादीन) से प्रेरित होकर.
1988 में कश्मीर में सिलसिलेवार तरीके से स्नाइपर हमले, बम धमाके, विरोध प्रदर्शन और हड़तालें शुरू हो गईं. इसी के साथ आधिकारिक तौर पर कश्मीर में आतंकवाद की शुरुआत हो चुकी थी.
पहला खून
1989 का साल कश्मीर में अलगाववादियों और आतंकवादी संगठनों का साल था. पूरी वादी में बस उन्हीं की बातें सुनाई देती थीं. अब्दुल्ला सरकार की आवाज कहीं गुम हो गई थी. हर कुछ दिन में हड़ताल का ऐलान होता, खासतौर पर उन दिनों पर जो भारत के लिए ऐतिहासिक थे.
15 अगस्त, भारत के स्वतंत्रता दिवस पर भी हड़ताल और ब्लैकआउट का ऐलान किया गया. बंदूकधारी आतंकवादी और लाठी लिए अलगाववादी सड़कों पर गश्त कर रहे थे ताकि कोई नियम न तोड़े. लेकिन उस रात एक दुकान की लाइट जली रही- वो थी यूसुफ़ वानी की मिठाई की दुकान. यूसुफ़ वानी, जिन्हें सब 'हलवाई' के नाम से जानते थे, ने अपनी दुकान की बत्ती बंद नहीं की थी.
21 अगस्त को श्रीनगर के सराफ कदल में अपनी मिठाई की दुकान पर काउंटर के पीछे खड़े यूसुफ़ वानी पर JKLF के आतंकियों ने गोलियां चला दीं. हलवाई वहीं ढेर हो गया, और हमलावर खून से सने जूतों के निशान छोड़कर गायब हो गए. हलवाई का 'गुनाह' बस इतना था कि उसने 15 अगस्त को अपनी दुकान की बत्ती नहीं बुझाई. संदेश साफ़ था: अगर आप भारत के साथ हैं, तो आप कश्मीर के खिलाफ़ हैं.
21 अगस्त की वारदात
21 अगस्त को जो हुआ, वो कश्मीर में बीते बीस सालों में पहली टारगेट किलिंग थी. ये तरीका हूबहू वही था, जैसा मक़बूल बट्ट ने 1966 में एक CID इंस्पेक्टर की बेरहमी से हत्या करते वक्त अपनाया था. लेकिन इस बार मामला एक अकेली घटना तक सीमित नहीं रहने वाला था.
अब एक ऐसे दौर की शुरुआत हो चुकी थी, जिसमें चुन-चुनकर लोगों को मारने का सिलसिला शुरू हो गया था. एक ऐसा सिलसिला जिसमें टारगेटेड मर्डर और इस्लामी आतंक का खौफनाक खाका तैयार था. मकसद था- जो भी भारतीय तिरंगे के साथ खड़ा हो, उसे कश्मीर से मिटा दो.
कुछ ही हफ्तों में कश्मीर का आसमान हरे झंडों से भर गया और जमीन उन लोगों के खून से लाल हो गई जो भारत के साथ थे. और सबसे डरावनी बात ये थी कि इस आतंक की सबसे बड़ी मार पड़ी घाटी की अल्पसंख्यक आबादी- कश्मीरी पंडितों पर.
संदीपन शर्मा