Indigo Blues: भारत बना दुनिया की सबसे बड़ी 'एयरलाइन कब्रगाह', जानें क्यों नहीं टिक पाती कोई कंपनी?

नो-फ्रिल्स, जीरो कर्ज, एक ही तरह के जहाज के साथ इंडिगो आज भी खड़ी है. लेकिन नए FDTL नियमों और बढ़ते खर्च से उसकी पुरानी ताकत पर सवाल उठ रहे हैं. एयर इंडिया को टाटा ने नया जीवन दिया है, लेकिन अभी लंबी दौड़ बाकी है. स्पाइसजेट लंगड़ाती चल रही है. अकासा नया दांव लगा रही है. इसल‍िए भारत का आसमान जितना चमकदार दिखता है, एयरलाइन कंपनियों के लिए उतना ही खतरनाक साबित होता है.

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क्या भारत एक और बड़ी एयरलाइन खोने वाला है? (File Photo: PTI) क्या भारत एक और बड़ी एयरलाइन खोने वाला है? (File Photo: PTI)

संदीपन शर्मा

  • नई दिल्ली ,
  • 05 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 3:11 PM IST

इंड‍ियन एविएशन का सबसे पुराना मजाक आज भी सबसे सटीक है, 'अगर आप जल्द से जल्द छोटी पूंजी बनाना चाहते हैं तो बड़ी पूंजी लेकर एयरलाइन शुरू कीजिए.' ऐसा कहने के पीछे वजह भी है. साल 1991 के उदारीकरण के बाद से अब तक भारत ने कम-से-कम दो दर्जन एयरलाइनों को दफनाया है. ईस्ट-वेस्ट से गोफर्स्ट तक, हर बड़ा सपना कर्ज, कोर्ट-कचहरी और अंत में जमीन पर खड़े जहाजों में खत्म हुआ. दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता एविएशन मार्केट होने के बावजूद भारत एयरलाइंस के लिए सबसे खतरनाक कब्रिस्तान बना हुआ है. 

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1990 का पहला झटका

साल 1991 से पहले आसमान पर 'सरकारी' कब्जा था. एयर इंडिया विदेशों के लिए उड़ती थी और इंडियन एयरलाइंस घरेलू रूट में काबिज थी. तब प्राइवेट प्लेयर को घुसने की इजाजत ही नहीं थी. फिर आया 1991 का आर्थिक संकट और उदारीकरण का दौर, नये दरवाजे खुलते ही नई एयरलाइंस की बाढ़ आ गई. 

फिर 1992 में ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस देश की पहली प्राइवेट शेड्यूल्ड एयरलाइन बनी. फिर उसके पीछे-पीछे जेट, दमानिया, मोदीलुफ्त, एनईपीसी आ गए. सबने मानो इंडियन एयरलाइंस को टक्कर देने की ठान ली थी, यानी बेहतर सर्विस, नई गाड़ियां और कम किराया...लेकिन दशक खत्म होने से पहले ही ज्यादातर 'गायब' हो गईं. 

जितनी तेज उड़ान...तेज मौत

ईस्ट-वेस्ट सबसे पहले उड़ी और सबसे पहले जमीन पर आ गई. केरल के ठेकेदार थाकिउद्दीन वाहिद की कंपनी ने इंडियन एयरलाइंस से भी सस्ता किराया रखा. नतीजा? 1995 तक बैंक ने लोन बंद कर दिया, बेड़ा जमीन पर और कंपनी दिवालिया... 13 नवंबर 1995 को वाहिद को गोली मार दी गई. वहीं, अंडरवर्ल्ड का शक आज भी बना हुआ है. अगस्त 1996 तक एयरलाइन पूरी तरह बंद हो गई. 

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वहीं, दमानिया ने अलग रास्ता अपनाया. वो बॉम्बे-गोवा, बॉम्बे-पुणे जैसे शॉर्ट रूट पर प्रीमियम सर्विस, गर्म खाना, ज्यादा लेग रूम दे रहे थे, लेकिन किराये से कॉस्ट कवर नहीं हो पाई. वो चार साल भी नहीं चले, इसी दौर में एनईपीसी और मोडीलुफ़्ट भी हास्यास्पद स्तर तक किराए घटा रहे थे, और दमनिया हर महीने नुकसान पर थी. 1997 में उसने अपने दोनों विमान सहारा को बेच दिए और चुपचाप बंद हो गई. 

सहारा: सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा, सबसे करारी चोट

1993 में लॉन्च हुई एयर सहारा (बाद में सिर्फ सहारा) उस दौर की सबसे महात्वाकांक्षी या यूं कहें कि दुस्साहसी एयरलाइन थी. उसने बॉम्बे-दिल्ली का वन-वे किराया सिर्फ 2,999 रुपये रखा, जब इंडियन एयरलाइंस 6,000 से ऊपर वसूल रही थी. इससे मार्केट में भूचाल आ गया. चार बिल्कुल नई बोइंग 737-400 सौ फीसदी लीज पर लीं.

फिर 1997-98 का पूर्वी एशियाई वित्तीय संकट आया. रुपया रातों-रात डॉलर के मुकाबले ढह गया. लीज का किराया 20% तक उछल गया. हर महीने नुकसान बढ़ने लगा. सहारा ने जान बचाने के लिए 1998 में जेट एयरवेज को 49% हिस्सा बेचा, फिर 2007 में पूरी एयरलाइन ही बेच दी, नाम पड़ा जेटलाइट. और 2019 में जब जेट एयरवेज खत्म हुई, जेटलाइट भी उसी के साथ दफन हो गई. यानी सहारा एयरलाइन ने दो बार में मिटने का रिकॉर्ड बनाया. 

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मोदीलुफ्त: शुद्ध कॉर्पोरेट ड्रामा और रातों-रात मौत

1993 में मोदी रबर वाले मोदी परिवार और जर्मन दिग्गज लुफ्थांसा ने मिलकर 'मोदीलुफ्त'एयरलाइन शुरू की. तीन साल भी नहीं बीते कि दोनों में पैसे के इस्तेमाल को लेकर भयंकर झगड़ा हो गया. 1996 में लुफ्थांसा ने एक रात में अपने सारे जहाज वापस ले लिए. फिर अगले ही हफ्ते डीजीसीए ने लाइसेंस सस्पेंड कर दिया. 

ईस्ट-वेस्ट, दमानिया, मोदीलुफ्त, सहारा सबकी मौत का एक ही फॉर्मूला रहा. जहाज सौ फीसदी लीज पर, अपनी पूंजी लगभग शून्य, रुपया गिरा तो डॉलर के भुगतान आसमान छूने लगे, किराये के कॉम्प‍िट‍िशन में खून बहाया और प्रमोटर का लालच या अहंकार ही इस अंत की वजह रहे. जैसे ही कैश रुकता, लेसर आते और जहाज़ उड़ा ले जाते. इन सबके बीच सिर्फ जेट एयरवेज टिकी रही. प्रीमियम सर्विस, अच्छा ब्रांड बनाया और कब्रिस्तान के नियम को लंबे समय तक चुनौती देता रहा. 

2000 का लो-कॉस्ट बूम 

साल 2003 में एयर डेक्कन ने किराया ट्रेन से भी सस्ता कर दिया. 'चप्पल वाले भी उड़ेंगे'का नारा हिट हुआ. स्पाइसजेट, इंडिगो पीछे-पीछे आए. डेक्कन को किंगफिशर ने खरीदा, विजय माल्या ने लग्जरी में डुबोया और 2012 में 8,000 करोड़ कर्ज के साथ डुबो दिया. इस बीच पैरामाउंट, एयर कोस्टा, एयर पेगासस, एयर ओडिशा, डेक्कन 360 जैसे रीजनल प्लेयर भी आए और चले गए. 1990 की बची-खुची जेट एयरवेज 2019 में ढेर हो गई. गोफर्स्ट ने 2023 में दिवालिया घोषित कर दिया. 

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वो जाल जो आज भी नहीं टूटा

विशेषज्ञ एक ही बात दोहराते हैं, 'संरचनात्मक जाल आज भी वैसा का वैसा है.' एटीएफ (जेट फ्यूल) भारतीय एयरलाइंस की लागत का 40-45% खा जाता है, दुनिया में कहीं ये इतना नहीं है. ऊपर से किराया को लेकर इतना कंपटीशन कि 'सस्ता रखो वरना यात्री भाग जाएगा'. वहीं फ्यूल, लीज, मेंटेनेंस ये ज्यादातर खर्चा डॉलर में आता है. ऐसे में रुपया एक झटका खाता है तो पूरा मॉडल ढह जाता है. कर्ज बढ़ता है, एसेट फ्रीज, गेम ओवर और लेंडर जहाज ले उड़ते हैं. 

जो अभी भी सांस ले रहे हैं

वहीं इंडिगो आज भी खड़ी है. नो-फ्रिल्स, जीरो कर्ज, एक ही तरह के जहाज के साथ इंड‍िगो कायम है. लेकिन नए FDTL नियमों और बढ़ते खर्च से उसकी पुरानी ताकत पर सवाल उठ रहे हैं. एयर इंडिया को टाटा ने नया जीवन दिया है, लेकिन अभी लंबी दौड़ बाकी है. स्पाइसजेट लंगड़ाती चल रही है. अकासा नया दांव लगा रही है. इसल‍िए भारत का आसमान जितना चमकदार दिखता है, एयरलाइन कंपनियों के लिए उतना ही खतरनाक साबित होता है. इसल‍िए जो इतिहास से नहीं सीखते, वे उसे दोहराते हैं. इसीलिए एविएशन का वो सबसे पुराना मजाक आज भी सबसे सच्चा है. 

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