दो परिवार, हत्या और एक त्रासद जनाजा... कश्मीर की बर्फ में कैसे पनपा आतंकवाद

सिख साम्राज्य जम्मू-कश्मीर पर लाहौर से शासन करता था, लेकिन वहां पर उनके डोगरा सामंत राजा गुलाब सिंह और उनके भाई सुचेत सिंह के साथ ध्यान सिंह की अहम भूमिका थी. इस अस्थिरता के दौर में डोगरा शासकों ने अवसरवादी भूमिका निभाई, जो पक्ष उन्हें तात्कालिक लाभ देता दिखा, उसी के साथ हो लिए.

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महाराजा रणजीत सिंह का निधन (Photo: AI) महाराजा रणजीत सिंह का निधन (Photo: AI)

संदीपन शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 17 मई 2025,
  • अपडेटेड 7:50 AM IST

कश्मीर... हिमालय की बर्फीली परत से ढका, पहाड़ों की गोद में बसा और वादियों-घाटियों का सजा-धजा इलाका, इसे देख ऐसा लगे कि खुद प्रकृति भी यहां बैठकर अपना रूप सजाती है. इसी जमीन के लिए कहा गया कि गर फिरदौस बर रुये जमींअस्तो, हमींअस्तो, हमींअस्तो, हमींअस्तो.

लेकिन, कश्मीर पर जो सफेद चादर ढकी दिखती है, वह सिर्फ बर्फ की परत भर नहीं है, यह जादुई है, मायावी है और धोखे-छल, षड्यंत्र से बनी हुई है. ये किसी जादूगर के पर्दे के मानिंद हैं, जो आपकी आंखों से ही काजल चुरा लेता है, देखते-देखते दृश्य बदल देता है और हकीकत को छिपा देता है. ये मायावी पर्दा, कोई आजकल या परसों का नहीं पड़ा है इसका दो सदियों का बेहद दुखद इतिहास है जो कश्मीर की किस्मत बन गया है. इस मायावी पर्दे के पीछे शक्तिशाली ताकतें गुप्त रूप से अपने हितों के अनुसार चालें चलती रहीं, और उनके असली इरादे तब तक उजागर नहीं होते, जब तक सब कुछ तयशुदा दिशा में नहीं बढ़ जाता.

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वैसे ये कहानी न जाने कितने पहले से शुरू हो गई थी, लेकिन अभी हम इसे वहां से शुरू करते हैं, जहां से महाराजा रणजीत सिंह का निधन होता है. समेंसाल था 1839, महाराजा रणजीत सिंह की लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई. वे एक विशाल साम्राज्य के शासक थे, जि जम्मू और कश्मीर भी शामिल था. उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष शुरू हो गया, जिसने षड्यंत्रों, महल की साजिशों और हत्याओं को जन्म दिया. इसी दौरान अंग्रेजों और सिखों के बीच संघर्ष छिड़ा और अंततः सिख हार गए.

सिख साम्राज्य जम्मू और कश्मीर पर लाहौर से शासन करता था, लेकिन वहां पर उनके डोगरा सामंत राजा गुलाब सिंह और उनके भाई सुचेत सिंह व ध्यान सिंह की अहम भूमिका थी. इस अस्थिरता के दौर में डोगरा शासकों ने अवसरवादी भूमिका निभाई, जो पक्ष उन्हें तात्कालिक लाभ देता दिखा, उसी के साथ हो लिए.

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1846 में, जब सिख अंग्रेजों से हार गए, तो गुलाब सिंह ने विजयी अंग्रेजों से कश्मीर राज्य को 'खरीद' लिया. यह सौदा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और गुलाब सिंह के बीच अमृतसर संधि के जरिये हुआ. सिखों ने इसे विश्वासघात कहा, लाहौर के प्रति वफादारी का मुखौटा पहनकर, गुलाब सिंह ने सिखों को धोखा दिया. यहीं से छलावे के एक युग की शुरुआत हुई, जो आज तक खत्म नहीं हुआ.

1980 का दशक कश्मीर में शांति और सामान्य स्थिति का झूठा वादा लेकर आया, लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत होते-होते कश्मीर में हालात पूरी तरह बदल गए. 1989 के अंत से शुरू हुआ असंतोष 1990 तक एक उग्र जनविद्रोह में तब्दील हो गया. भारत से अलगाव की भावना अब सड़कों पर खुलकर दिखाई देने लगी. 1990 के शुरुआती महीनों में रूढ़िवादी अनुमानों के अनुसार, करीब 100 अलग-अलग उग्रवादी और राजनीतिक संगठनों की सशस्त्र शाखाएं घाटी में सक्रिय थीं. इनमें से कई को पाकिस्तान का समर्थन मिला हुआ था. इन संगठनों की बदौलत अलगाववादियों ने घाटी की सड़कों पर कंट्रोल कर लिया था. रोज़ाना विरोध प्रदर्शन, हड़तालें और बंद ये कश्मीर के लिए आम बात हो गई. 

फरवरी 1990 के अंत में, लगभग चार लाख कश्मीरियों ने संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह के कार्यालय की ओर मार्च किया. वे चाहते थे कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को लागू किया जाए और आत्मनिर्णय का जनमत संग्रह कराया जाए. 1 मार्च को, जब लगभग दस लाख लोग सड़कों पर उतरे, तो पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें 40 से अधिक लोग मारे गए. (स्रोत: विक्टोरिया शोफील्ड की किताब 'Kashmir in Conflict')

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परंतु यह भी कश्मीर के इतिहास का एक और झूठा सबेरा साबित हुआ.

एक हत्या और त्रासद जनाज़ा

स्वतंत्रता के बाद के दशकों में, कश्मीर की राजनीति दो परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती रही. अब्दुल्ला परिवार और मीरवाइज परिवार. शेख मोहम्मद अब्दुल्ला, जिन्हें शेर-ए-कश्मीर कहा जाता था, ने कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे में जाने से रोकने के लिए भारत के साथ गठबंधन किया.1932 में उन्होंने ‘ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना की, जो डोगरा शासन में मुस्लिम समुदाय के अधिकारों की लड़ाई के लिए थी. 1939 में उन्होंने इसे धर्मनिरपेक्ष बनाते हुए 'नेशनल कॉन्फ्रेंस' में परिवर्तित कर दिया. 

दूसरी ओर, इस पार्टी के सह संस्थापक मीरवाइज़ यूसुफ शाह ने इसकी मूल मुस्लिम पहचान बनाए रखी और पुराने दल के मुखिया बने. मीरवाइज़, घाटी के प्रमुख धार्मिक नेता होने के नाते, राजनैतिक रूप से भी अत्यधिक प्रभावशाली थे. लेकिन शेख अब्दुल्ला के विपरीत, मीरवाइज़ यूसुफ शाह पाकिस्तान के पक्षधर थे. 1947 में वे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर चले गए. बाद में, 1960 के दशक में उनके भतीजे मौलवी फ़ारूक मीरवाइज़ बने और धीरे-धीरे एक महत्वपूर्ण अलगाववादी नेता के रूप में उभरे.

21 मई 1990 को, चरमपंथ के चरम दौर में, तीन लोगों ने मौलवी फ़ारूक से उनके श्रीनगर स्थित घर पर मुलाक़ात की, आर्थिक मदद मांगने के बहाने. लेकिन कुछ ही मिनटों में उन्होंने मीरवाइज़ पर गोलियां चला दीं और मौके से फरार हो गए.

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इस हत्या से घाटी में तूफान खड़ा हो गया. भारत सरकार पर आरोप लगाए गए कि उसने एक राष्ट्रविरोधी आवाज को चुप करा दिया. लेकिन जांच में सामने आया कि मीरवाइज़ को पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन हिज़बुल मुजाहिद्दीन ने मारा था. इसकी वजह यह बताई गई कि मीरवाइज़ हिंसा के विरोधी थे और पाकिस्तान के बजाय एक स्वतंत्र कश्मीर की वकालत कर रहे थे, जिससे ISI नाखुश था. (पाकिस्तानी लेखक आरिफ जमाल की किताब 'Shadow War' के अनुसार, यह हत्या अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के कहने पर हुई थी, लेकिन यह आरोप कभी सिद्ध नहीं हो सका.)

यह हत्या अलगाववादी खेमों के बीच एक कड़वी प्रतिस्पर्धा की शुरुआत थी, जिसने जल्द ही इस पूरे आंदोलन को कमजोर कर दिया.

1990 के दशक का उन्माद थमने से पहले, कश्मीर ने कई भयावह घटनाएं देखीं. मीरवाइज़ मौलवी फ़ारूक की अंतिम यात्रा पर गोलीबारी की गई, जिसमें दर्जनों लोगों की मौत हो गई. यह घटना 'हवाल नरसंहार' के नाम से जानी गई. 1993 में सोपोर (कश्मीर का सेब उत्पादन केंद्र) में सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच झड़प हुई. जवाबी कार्रवाई में कई नागरिक मारे गए.

4 जुलाई 1995 को, छह विदेशी पर्यटकों को अल-फ़रान (हर्कत-उल-अंसार का नकली नाम) द्वारा अगवा कर लिया गया. बदले में उन्होंने 20 आतंकियों की रिहाई की मांग की, जिनमें मौलाना मसूद अज़हर भी शामिल था (जो बाद में जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक बना). इनमें से एक पर्यटक बच निकला, जबकि एक नॉर्वेजियन को मार डाला गया और उसका शव पहलगाम में फेंका गया, जिस पर 'Al-Faran' खुदा हुआ था. बाकी चार का कभी पता नहीं चला और वे मृत मान लिए गए.

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अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1988 से 1995 के बीच कश्मीर में लगभग 40,000 लोग मारे गए, जबकि सरकारी आंकड़े 13,500 के आसपास बताते हैं, जिनमें से आधे आतंकी थे. इस दौरान सुरक्षा बलों ने 13427 एके-47 राइफलें, 750 रॉकेट लांचर, 1682 रॉकेट, 54 लाइट मशीन गन और 753 अन्य हथियार जब्त किए. (स्रोत: शोफील्ड, Kashmir In Conflict)

1990 के दशक की शुरुआत में जो अलगाववादी जोश दिखा, वह एक छलावा साबित हुआ. पांच साल की हिंसा, हत्याओं और हड़तालों के बाद, कश्मीर इस अराजकता से थकने लगा था.

अलगाववादी संगठनों के आपसी मतभेद, आतंकियों के हाथों आम नागरिकों की हत्या, और सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी, इन सबने मिलकर कश्मीरियों का इन संगठनों से मोहभंग कर दिया. पाकिस्तान ने शुरू में ‘आजादी’ की बात करने वाले जेकेएलएफ को समर्थन दिया, लेकिन बाद में हिज़बुल मुजाहिद्दीन का साथ देने लगा क्योंकि वह कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की वकालत करता था.

जैसे-जैसे इन संगठनों के बीच युवाओं की भर्ती को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ी, इन्होंने जबरन भर्तियों, अपहरण और फिरौती का सहारा लेना शुरू किया. इससे आम जनता में उनके प्रति गुस्सा बढ़ने लगा. 1996 तक हालात कुछ हद तक सामान्य होने लगे. इस वर्ष भारत सरकार ने सफलतापूर्वक विधानसभा चुनाव करवाए, जिससे छह वर्षों से चल रहा राज्यपाल शासन समाप्त हुआ. फारुक अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. सड़कों से प्रदर्शन गायब हो चुके थे, और सक्रिय आतंकी संगठनों की संख्या 100 से घटकर करीब 20 रह गई थी. एक नई सुबह की संभावनाएं दिखाई देने लगीं, एक नए कश्मीर का वादा...

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