फैंटेसी और कंफ्यूजन का ड्रामा... जलियांवाला बाग हत्याकांड पर बनी 'केसरी 2' वास्तव में इतिहास और फैक्ट्स की हत्या है!

जलियांवाला बाग हत्याकांड को लेकर कुछ भी अनकहा नहीं है. इस घटना पर अब तक दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं, जिनमें अलग-अलग नजरिए से इसकी पूरी कहानी और इसके बाद के हालात को विस्तार से बताया गया है. यह कहानी भारतीय और ब्रिटिश दोनों ही दृष्टिकोणों से सामने आ चुकी है, यहां तक कि जनरल डायर की आंखों से भी. इस घटना की चर्चा भारत में भी हुई और ब्रिटिश संसद में भी, जहां विंस्टन चर्चिल ने इसे 'बेहद घिनौनी और अमानवीय' घटना कहा था.

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केसरी: चैप्टर 2 (Photo: Movie still) केसरी: चैप्टर 2 (Photo: Movie still)

संदीपन शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 19 अप्रैल 2025,
  • अपडेटेड 4:04 PM IST

'केसरी चैप्टर 2: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ जलियांवाला बाग' के बारे में अगर कोई एक चीज सच है, तो वो सिर्फ इसका नाम है. कहानी वाकई में 'अनटोल्ड' है, क्योंकि शुक्रवार को स्क्रीन पर आने से पहले तक ये बस इसके मेकर्स की कल्पना में ही थी. अगर आप इतिहास के सच की बात करें, तो यह फिल्म 1985 की 'मर्द' और सलमान खान की 'वीर' जैसी फिल्मों का मिला-जुला रूप लगती है- दोनों ही इतिहास के साथ मजाक करने वाली फिल्में थीं. 

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1985 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म 'मर्द' को याद करिए, जिसमें दारा सिंह अपने छोटे से बच्चे की छाती पर चाकू से 'मर्द' लिख देते हैं और बाद में एक उड़ते हुए प्लेन को रस्सी फेंक कर रोक लेते हैं. इस फिल्म में मनमोहन देसाई की वही पुरानी 'बिछड़ने और मिलने' वाली कहानी थी, जिसमें कई अंग्रेज कैरेक्टर मिलकर दारा सिंह को उसके राजपाठ से और अमिताभ बच्चन को उनकी प्रेमिका अमृता सिंह से दूर रखने की साजिश करते हैं.

आपके अमिताभ बच्चन की 'मर्द' फिल्म याद है?

सबसे मजाकिया बात यह थी देसाई ने अपनी फिल्म में ऐसे-ऐसे किरदारों को एक साथ दिखा दिया जो असल जिंदगी में कभी एक-दूसरे से मिले ही नहीं थे- जैसे लॉर्ड कर्जन (जिसे फिल्म में 'कर्जू' कहकर मजाक उड़ाया गया), जो 1905 में ही भारत छोड़ चुका था, जनरल डायर जो 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए कुख्यात है, और साइमन, जो 1928 में भारत आया था. इन सबको एक ही मंच पर सिर्फ इसलिए लाया गया था ताकि अमिताभ बच्चन और उनके पिता उन्हें पीट सकें और हीरो बन सकें.

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'केसरी 2' भी कुछ ऐसी ही फिल्म है. निर्देशक करण सिंह त्यागी ने इतिहास के बिल्कुल अलग-अलग दौर के किरदारों को एक साथ दिखा दिया है. वे ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर और लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर के बीच भी कंफ्यूज हो जाते हैं, और एक ऐसा झूठा मुकदमा दिखाते हैं जो असल में कभी हुआ ही नहीं था. इस फिल्म को देखकर लगता है जैसे इतिहास की हत्या कर दी गई हो. ये एक गंभीर ऐतिहासिक घटना को मजाक बना देती है.

जलियांवाला बाग हत्याकांड पर सबकुछ छप चुका है

जलियांवाला बाग हत्याकांड को लेकर कुछ भी अनकहा नहीं है. इस घटना पर अब तक दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं, जिनमें अलग-अलग नजरिए से इसकी पूरी कहानी और इसके बाद के हालात को विस्तार से बताया गया है. यह कहानी भारतीय और ब्रिटिश दोनों ही दृष्टिकोणों से सामने आ चुकी है, यहां तक कि जनरल डायर की आंखों से भी. इस घटना की चर्चा भारत में भी हुई और ब्रिटिश संसद में भी, जहां विंस्टन चर्चिल ने इसे 'बेहद घिनौनी और अमानवीय' घटना कहा था.

अमृतसर में निहत्थे प्रदर्शनकारियों की हत्या से भी संतुष्ट नहीं होने पर, ब्रिटिश सरकार ने पंजाब में कड़ा मार्शल लॉ लागू कर दिया था. इस घटना के बाद कई हफ्तों तक जनरल डायर ने भारतीयों को अपमानित किया- उन्हें जमीन पर रेंगने के लिए मजबूर किया गया, हर अंग्रेज को सलामी देनी पड़ी और सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए. कई लोगों को गिरफ्तार किया गया, देश से बाहर भेजा गया और सख्त सजाएं दी गईं.

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1977 में आई थी गुलजार की 'जलियांवाला बाग'
 
गुलजार ने 'जलियांवाला बाग' (1977) नाम की एक फिल्म लिखी थी, जो बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप हो गई और जल्द ही भुला दी गई. हाल ही में आई एक ओटीटी सीरीज 'The Waking of a Nation' ने इस घटना को हंटर कमीशन के भारतीय सदस्य चिमनलाल हरिलाल सेतलवाड़ के नजरिए से दिखाने की कोशिश की है (हालांकि उन्हें एक काल्पनिक नाम दिया गया है). लेकिन जलियांवाला बाग हत्याकांड की सबसे असरदार सिनेमाई प्रस्तुति अब भी रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' ही मानी जाती है.

फिल्म में छोटी-छोटी गलतियां

केसरी 2 की शुरुआत 13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड से होती है, और शुरुआती दृश्य एटनबरो की फिल्म से प्रेरित प्रतीत होते हैं. कहानी धीरे-धीरे सच्चाई से हेराफेरी करते हुए आगे बढ़ती है, फिर इतिहास के एक ऐसे संस्करण में बदल जाती है जो कभी हुआ ही नहीं.

-फिल्म कहती है कि नरसंहार शाम 5:30 बजे हुआ, जबकि हकीकत में गोलीबारी करीब 4:30 बजे शुरू हुई थी.

-फिल्म में बताया गया कि 1650 लोग मारे गए और 2330 राउंड फायर किए गए- जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार 379 लोग मारे गए और 1650 राउंड फायर हुए.

-फिल्म में तर्क दिया गया है कि कुछ नेपाली, गोरखा और बलूच सैनिक डायर की फायरिंग स्क्वॉड का हिस्सा थे. यह आधा सच है. डायर उस दिन नरसंहार वाली जगह पर करीब 100 गोरखा और सिखों को लेकर गया था. लेकिन, जिन लोगों ने गोलियां चलाईं, वे मुख्य रूप से गोरखा थे.

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-वकील सी. शंकरन नायर (अक्षय कुमार), जो कहानी के नायक हैं (वास्तव में वह एक अलग कारण से नायक थे), ब्रिटिशों द्वारा एक क्रांतिकारी कवि किरपाल सिंह को गिरफ्तार करने में मदद करने के लिए सम्मानित किए जाते हैं. रोलेट एक्ट, जो हत्याकांड का कारण बना, ब्रिटिशों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और बिना वकील, दलील या अपील का मौका दिए उसे कोर्ट में पेश करने का अधिकार देता था. इसलिए, किसी कवि को फंसाने में अंग्रेजों की मदद करने के लिए वकील की जरूरत नहीं पड़ती.

डायर के खिलाफ जेनोसाइड का कोई केस कभी चला ही नहीं

फिल्म फिर फैंटेसी की एक काल्पनिक दुनिया में चली जाती है. इसमें शंकरन नायर को एक स्थानीय वकील (अनन्या पांडे) के साथ मिलकर जनरल डायर के खिलाफ 'जेनोसाइड' का मामला स्थानीय अदालत में दायर करते हुए दिखाया जाता है.

वास्तव में, जनरल डायर के खिलाफ जेनोसाइड का कोई भी केस किसी अदालत में कभी नहीं चलाया गया. अक्टूबर 1919 में, ब्रिटिशों ने हंटर कमीशन से भारत में हालिया 'अशांति' की जांच करने को कहा था. कमीशन ने जनरल डायर के कामकाज की भी जांच की, और उसके दावे की पड़ताल की कि उन्होंने अपने सैनिकों से फायर करने के लिए कहा क्योंकि उन्हें अशांति, अराजकता और हिंसा का डर था.

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शंकरन नायर के बारे में भी जान लेते हैं

हंटर कमीशन में तीन भारतीय सदस्य थे, लेकिन शंकरन नायर उनमें से नहीं थे. कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर, 1920 में जनरल डायर को उसकी कमांड से हटा दिया गया. वह इंग्लैंड में मृत्यु तक यह दावा करता रहा कि उसने कोई गलती नहीं की थी.

शंकरन नायर 23 जुलाई 1919 तक वायसराय के कार्यकारी परिषद के सदस्य थे, जो भारतीय मंत्रिमंडल का पूर्ववर्ती था. परिषद के सदस्य के रूप में, उन्होंने पंजाब में मार्शल लॉ लगाने पर सहमति जताई थी. (द केस दैट शुक द एम्पायर: वन मैन'स फाइट फॉर द ट्रुथ अबाउट द जलियांवाला बाग हत्याकांड; पुष्पा पलात और रघु पलात). अपने इस्तीफे के बाद, वह 2 जनवरी 1920 को तत्कालीन सचिव एडविन मोंटेगू की परिषद में शामिल हुए.

ओ'ड्वायर ने किया था मानहानि का केस
 
1922 में, जलियांवाला बाग हत्याकांड, हंटर कमीशन की रिपोर्ट और डायर के भारत से तबादले के कई महीनों बाद, इंदौर राज्य के दीवान के रूप में कार्य करते हुए शंकरन नायर ने एक किताब लिखी 'गांधी और अराजकता', जो महात्मा गांधी के नागरिक अवज्ञा आंदोलन की आलोचना थी. इस किताब में उन्होंने 'संकेत किया कि पंजाब में हुई हिंसा ओ'ड्वायर की पूरी जानकारी और स्वीकृति से हुई थी.' माइकल ओ'ड्वायर हत्याकांड के वक्त पंजाब का उप-राज्यपाल था. जनरल डायर वह अधिकारी था जिसने गोली चलाने का आदेश दिया था.

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ओ'ड्वायर ने नायर पर मानहानि का केस दायर किया और माफी की मांग की. जब नायर ने माफी नहीं मांगी, तो ओ'ड्वायर इस मामले को लंदन के किंग्स बेंच तक ले गया (जो एक कानूनी बेंच से थोड़ा अलग था).

साहसी लड़ाई के लिए मिली शहीदों की गैलरी में जगह
 
आखिरकार, नायर यह मामला हार गए, जिसमें जूरी के केवल एक सदस्य ने उनके पक्ष में मतदान किया. उनकी इस साहसी लड़ाई के लिए नायर को हीरो माना गया, और उनकी लड़ाई ने उन्हें जलियांवाला बाग में शहीदों की गैलरी में जगह दिलाई.

लेकिन फिल्म में, नायर डायर (ओ'ड्वायर नहीं) के खिलाफ मुकदमा करते हैं. मामला जनसंहार (मानहानि नहीं) का है, और यह भारत में (लंदन में नहीं) लड़ा जाता है. और अगर इतना काफी नहीं है, तो फिल्म में जिस जज ने मानहानि मामले की सुनवाई की, उसे निष्पक्ष, तटस्थ और निडर दिखाया गया है, जबकि नायर के अनुसार, वह इसके बिल्कुल विपरीत थे.

अगर यह इतिहास का टॉर्चर नहीं है, तो हम 'मर्द' को ब्रिटिश राज का सबसे प्रामाणिक रिकॉर्ड मान सकते हैं, जो कलम से नहीं बल्कि चाकू से उकेरा गया था.

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