दिल्ली बम ब्लास्ट में अपनों को खोने वाले लोग 15 साल बाद भी आर्थिक मुश्किल झेलने को मजबूर

23 साल की मनीषा माइकल के लिए 29 अक्टूबर काला दिन ही रहेगा. जब वो 8 साल की थी तो दिल्ली में 2005 में हुए सीरियल बम धमाकों में उसने अपने माता-पिता और भाई को एक झटके में खो दिया.

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2005 में हुआ था दिल्ली में ब्लास्ट 2005 में हुआ था दिल्ली में ब्लास्ट

पूनम शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 30 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 7:53 AM IST
  • 29 अक्टूबर 2005 को हुए थे सीरियल बम धमाके
  • दिल्ली के कई इलाकों में हुए थे बम ब्लास्ट
  • बम धमाकों में कई लोगों की गई थी जान

15 साल पहले 29 अक्टूबर 2005 को हुए सीरियल बम धमाकों में पूरी दिल्ली दहल गई थी. पहाड़गंज और कनॉट प्लेस के साथ-साथ सरोजनी नगर मार्केट में भी धमाकों की गूंज इतनी ज्यादा थी कि बाजार में 7 लोगों के तो शव ही नहीं मिले थे. बम विस्फोट में सरोजनी नगर मार्केट में सबसे ज्यादा तबाही हुई थी. यहां 50 लोगों की जान चली गई और 7 लोगों के शव इसलिए नहीं मिल पाए क्योंकि बम धमाके में वह टुकड़ों में बिखर गए थे. 127 लोग बुरी तरह घायल भी हुए थे. मरने वालों में मासूम बच्चे भी थे और बुजुर्ग भी. वहीं इस घटना के बाद पीड़ित परिवारों को काफी आर्थिक परेशानी का सामना भी करना पड़ा था.

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23 साल की मनीषा माइकल के लिए 29 अक्टूबर काला दिन ही रहेगा. जब वो 8 साल की थी तो दिल्ली में 2005 में हुए सीरियल बम धमाकों में उसने अपने माता-पिता और भाई को एक झटके में खो दिया. मनीषा ने उस 8 साल की नन्ही उम्र में सरोजनी नगर मार्केट में हुए बम ब्लास्ट में अपने परिवार को खो दिया, जब ठीक से मौत के मायने भी पता नहीं होते हैं. दादा बेहद बुजुर्ग हैं और आज भी आर्थिक तंगी मुंह बाए खड़ी है. मनीषा माइकल ग्रेजुएट तो है लेकिन नौकरी अभी भी उसे नहीं मिल पाई है. परिवार को खोने का गम और वर्तमान की बेरोजगारी ने मनीषा माइकल के भविष्य पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं.

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वहीं उम्र के 50वें दशक में चल रहे विनोद पोद्दार भी 15 साल पुराने इस दर्द से आज भी नहीं उबर पाए हैं. उनकी पूरी जिंदगी तहस-नहस हो गई. विनोद ने अपने 8 साल के बेटे करण को इस बम ब्लास्ट में खो दिया था, बेटी गंभीर रूप से घायल हुई लेकिन बच गई. खुद विनोद पोद्दार बम धमाके में 70 फीसदी तक जल गए थे. जिसके कारण उनके एक पैर को काटना पड़ा. अपाहिज हो चुके विनोद पोद्दार को कुछ वक्त सरकारी मदद मिली लेकिन अब नकली पैर लगाने के लिए होने वाला खर्चा भी उन्हें खुद ही वहन करना पड़ता है.

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परिवारों का संघर्ष

वहीं इस घटना के बाद नौकरी के लिए परिवारों का संघर्ष भी लंबा रहा. मसलन मनीषा के पिता का शव नहीं मिलने की वजह से उसे पिता का मुआवजा ही नहीं मिला. 7 साल बीत जाने के बाद भी जब सुध नहीं ली गई तो उसने हाईकोर्ट में केस डाला और हाईकोर्ट के आदेश के बाद उसके पिता को बम धमाकों में मृतक का दर्जा देने के बाद चार लाख रुपये का मुआवजा दिया गया.

15 साल बीतने के बाद भी 2005 में सीरियल बम धमाकों में अपनों को खोने वाले या फिर खुद घायल होने वाले लोगों के लिए जख्म उतने ही हरे हैं, जितने 15 साल पहले थे. कुछ एनजीओ की मदद से सरकार के सामने बम धमाकों में अपनों को खोने वाले या उसके शिकार होने वाले लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 2% आरक्षण की मांग की गई थी लेकिन फिलहाल सरकार ने इस पर कोई फैसला नहीं किया है.

अपनों को खोने का गम और आर्थिक तंगी बम धमाकों के शिकार लोगों की जिंदगी को और मुश्किल बना देती है. ऐसे में मनीषा माइकल हो या फिर विनोद पोद्दार, इनकी मुश्किलों को हल करने के लिए सरकार के साथ-साथ समाज को भी साथ आने की जरूरत है.

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