सोशल मीडिया पर नालंदा विश्वविद्यालय को लेकर बहस छिड़ी हुई है. नेटिजंस इस विषय पर अपने अलग-अलग तर्क रख रहे हैं कि 523 ईस्वी पूर्व बने नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस कैसे हुआ? आम जानकारी है कि बख्तियार खिलजी ने 12वीं शताब्दी के अंत में नालंदा विश्वविद्यालय पर हमला किया और उसे नष्ट कर दिया. उसने विश्वविद्यालय को लूटा और आग लगा दी, जिससे वह खंडहर में बदल गया.
हालांकि सोशल मीडिया पर नेटिजंस इसी आम जानकारी को लेकर दो धड़ों में बंट गए हैं. इसमें से एक धड़े का कहना है कि बख्तिार खिलजी द्वारा नालंदा को नष्ट किए जाने की जानकारी अधूरे तर्क पर आधारित है. हालांकि वह ये तर्क जिन साक्ष्यों के आधार पर दे रहे हैं, दूसरी तरफ वाला धड़ा उसे विश्ववसनीय साक्ष्य नहीं मान रहा है. खैर, तमाम तथ्यों और तर्कों के बीच ये जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर नालंदा कब और कैसे बना, साथ ही इसका नामकरण कैसे हुआ?
नालंदा विश्वविद्यालय कैसे बना?
20वीं सदी में इतिहास विषयों के जानकार लेखक रहे हैं, डीजी आप्टे. साल 1961 में उनकी एक किताब आई थी, Universities in Ancient India (D. G. APTE). इस पुस्तक में वह भारत के प्राचीन विश्वविद्यालयों का जिक्र करते हैं, जहां उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय के ऐतिहासिक तथ्यों और इसके महत्व पर बहुत विस्तार और गहराई से प्रकाश डाला है. इस पुस्तक की दूसरी खास बात है कि, इसमें भारत के अन्य विश्वविद्यालयों का भी जिक्र है.
खैर, नालंदा विश्वविद्यालय पर लौटते हैं. किताब में डीजी आप्टे लिखते हैं कि नालंदा के नाम की उत्पत्ति और महत्व के बारे में कई तरह के तथ्य और वर्णन अलग-अलग दिए जाते रहे हैं. वह जिक्र करते हैं कि इस स्थान के नामकरण के पीछे एक नाग (कोबरा) था. कुछ ऐसे सिद्धांत हैं कि नालंदा का नाम एक नाग (कोबरा) नागिलिदा से लिया गया है, जो एक संघाराम (मठ) के दक्षिण में आम के पेड़ के पास एक तालाब में रहता था.
नालंदा के नामकरण की क्या है कहानी?
एक और तथ्य ऐसा है कि यह नाम उस लगातार दान से आया है जो इस स्थान पर रहने वाले बोधिसत्व के लिए किया गया था. तीसरा कारण भी दूसरे से ही मिलता-जुलता है कि इस संस्थान को निरंतर दान मिलता था, लेकिन दानदाताओं कभी इससे संतुष्ट नहीं हुए कि उन्होंने पर्याप्त दान दिया है. बाद में वर्णित इसकी समृद्धि से पता चलता है कि तीसरी हुई व्याख्या अन्य दो की तुलना में अधिक स्वीकार्य है.
ईसाई युग से बहुत पहले यह स्थान एक धार्मिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था. यह वह स्थान था जिसे बुद्ध और उनके शिष्यों (523 ई.पू. - 477 ई.पू.) के ठहरने से बहुत पवित्र माना जाता रहा था. यहां बौद्ध सिद्धांतों पर कई चर्चाएं हुई थीं. यह वह स्थान भी था जहां जैन तीर्थंकर महावीर की गोसालक (गोशालक या मक्खलि गोसालः गोशालक आजीवक संप्रदाय के संस्थापक थे, जो नियतिवाद में विश्वास करते थे.) से भेंट हुई थी.
डीजी आप्टे इस स्थान का और वर्णन करते हुए लिखते हैं कि, यहां नागार्जुन और अन्य लोगों ने प्रारंभिक ईसाई युग में चर्चाएं की थीं. अशोक ने यहां एक मंदिर और विहार बनवाया था, क्योंकि यह राजगृह की घनी आबादी से थोड़ी दूरी पर था और इसलिए धार्मिक प्रथाओं के लिए सुविधाजनक था.
कैसे हुई विश्वविद्यालय की स्थापना?
किताब में डीजी आप्टे जिक्र करते हैं कि विश्वविद्यालय की स्थापना शक्रादित्य द्वारा की गई थी और उनके पुत्र बुद्धगुप्तराज और उनके उत्तराधिकारी तथागतगुप्तराज द्वारा इसका विस्तार किया गया. इसके बाद 500 ई.पू. में मिहिरकुल के शासक ने जब नरसिंहगुप्त का पीछा किया तो इस दौरान नालंदा में भी विध्वंस हुआ. हालांकि वह लिखते हैं कि इस विनाश के बाद यह स्थान और अधिक वैभव और समृद्धि के साथ फला-फूला.
इस तरह, हालांकि यह स्थान दूसरी शताब्दी में नागार्जुन के समय और उससे पहले बुद्ध के समय में एक महान धार्मिक और शैक्षिक केंद्र था ही और पांचवीं सदी के आते-आते एक विश्वविद्यालय बन गया, वह भी तब जब विद्वानों की तीर्थयात्रा का प्रवाह इस स्थान की ओर शुरू हुआ. इस विश्वविद्यालय के लगभग पूरे अस्तित्व काल में इसे शाही संरक्षण भी प्राप्त हुआ और इस तरह यह लंबे समय तक समृद्ध बना रहा.
इसकी समृद्धि का अंदाजा इसकी इमारतों के आश्चर्यजनक निर्माण से भी लगाया जा सकता है, जिसका वर्णन लेखक अपनी किताब में करते हैं. वह लिखते हैं कि, पहला संघाराम शक्रादित्य (415-455 ई.) द्वारा बनवाया गया था. उनके पुत्र बुद्धगुप्तराज ने दक्षिण में एक और संघाराम बनवाया. उनके उत्तराधिकारी तथागतगुप्तराज ने इसके पूर्व में एक और नया संघाराम बनवाया.
फिर बलादित्य (468-472 ई.) ने उत्तर-पूर्व में एक नया संघाराम बनवाया, साथ ही उन्होंने एक और विशाल विहार भी बनवाया, जो तीन सौ फीट ऊंचा था. आगे किताब नें उनके पुत्र वज्र का जिक्र है, जिन्होंने पश्चिम में एक और संघाराम बनवाया. बाद में मध्य भारत के एक राजा श्रीवर्ष ने इसके उत्तर में नया संघाराम बनवाया और इन इमारतों के चारों ओर एक ऊंची दीवार बनवाई जिसमें एक द्वार था. इस तरह यह एक दीवार के भीतर घिरी हुई आकर्षक इमारत के रूप में तब्दील हो गया.
अलग-अलग मौकों पर होता रहा निर्माण कार्य
किताब की मानें तो, ग्यारहवीं शताब्दी तक हिंदू और बौद्ध दानदाताओं द्वारा नई इमारतों का निर्माण जारी रहा. ह्वेन सांग ने भी अपने समय में नालंदा प्रतिष्ठान में छह मठों का उल्लेख किया है. ये सभी इमारतें 'अपने आकार और ऊंचाई में भव्य थीं, जिनमें समृद्ध रूप से सजाए गए मीनारें, परियों जैसे बुर्ज जो नुकीली पहाड़ियों की तरह दिखते थे. सुबह की धुंध में खोए हुए प्रेक्षागृह तो देखते बनते थे जो किसी जादुई आभा देते थे. ऊपरी कमरे बादलों से ऊपर उठते हुए से बने थे (बहुत ऊंचाई) और उनकी खिड़कियों से हवा आती थी और बादल हमेशा नए रूप बनाते दिखते थे. छतों से सूर्यास्त की चमक और चांदनी की शोभा दिखाई देती थी.
पुजारियों के कक्षों वाले बाहरी आंगन चार मंजिलों के थे. इन मंजिलों में ड्रैगन-प्रोजेक्शन और रंगीन छतें, मोती-लाल रंग के खंभे, नक्काशीदार और सजाए गए, समृद्ध रूप से सजे-धजे रेलिंग्स थे, जबकि छतें ऐसी टाइलों से ढकी थीं जो हजारों रंगों में प्रकाश को प्रतिबिंबित करती थीं. परिसर को गहरे पारदर्शी तालाबों से सुसज्जित किया गया था, जो इसे किसी आलीशान
संरचना में बदलते थे और अध्यात्म के भी कलेवर में ढालते थे.
इनमें नीले कमल और गहरे लाल रंग के कनक फूल आपस में मिले हुए थे. आम के छायादार बगीचों से भी परिसर समृद्ध था. लेखक लिखते हैं कि इस स्थान पर की गई पुरातात्विक खुदाई नालंदा की कलात्मक संपदा के वर्णन को पूरी तरह से सही ठहराती है. अब तक तीन मठों और एक मंदिर भवन की खुदाई की गई है. इनमें से एक का वर्णन इसकी विशालता का अंदाजा देने के लिए पर्याप्त है. (किताब के आधार पर)
इमारतों की संरचना, जो उस दौर में हाई क्वालिटी की थी
सबसे दक्षिणी ओर बड़े मठ परिसर की उत्तरी दीवार 203 फीट लंबी और 6 फीट 6 इंच मोटी है. बगल की दीवारें 168 फीट लंबी और 7 फीट 6 इंच मोटी हैं. दीवारें हाई क्वालिटी की ईंटों से बनी हैं, जो हल्के पीले रंग की और शानदार बनावट वाली हैं, ये इतनी सटीकता से जोड़ी गई हैं कि कुछ जगहों पर ईंटों के बीच के जोड़ पूरी तरह से छिपे हुए हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर ये कहां से जुड़े हुए हैं.
ईंटों का काम इतना गुणवत्तापूर्ण तरीके से किया गया था कि, जो किसी भी आधुनिक संरचना से बेहतर थे. मुख्य दीवारों से बने आयत में 9'-6", 10'-11" और 12' के कक्ष हैं. प्रत्येक एकल बैठने वाले कक्ष में एक पत्थर की बेंच थी, दोहरे बैठने वाले कक्ष में दो बेंच थीं. हर एक कमरे में एक दीपक के लिए एक आला और किताबों के लिए दूसरा आला था. बड़े आकार के चूल्हों की खुदाई से पता चलता है कि यहां सामूहिक भोजन की व्यवस्था थी.
प्रत्येक मठ के आंगन के एक कोने में एक कुआं खोजा गया था. खुदाई से पता चला है कि अलग-अलग समयों में इस स्थान पर कम से कम तेरह मठ थे. विश्वविद्यालय का क्षेत्रफल कम से कम एक मील लंबा और आधा मील चौड़ा था, सभी इमारतें एक पूर्व नियोजित योजना के अनुसार व्यवस्थित थीं. केंद्रीय कॉलेज में सात हॉल थे, जिनमें पढ़ाई के लिए तीन सौ कमरे थे.
विकास पोरवाल